NARESH MEWADA
भोपाल के बॉम्बे चिल्ड्रन अस्पताल के डॉक्टरों ने असंभव को संभव बना दिया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। बॉम्बे चिल्ड्रन अस्पताल के शिशु रोग डॉ. राहुल अग्रवाल और उनकी टीम ने दो जुड़वां भाईयों लविक और लविश को नया जीवनदान देकर उसके पिता की ोली में खुशियां डाल दी है। जिसे वह जीवनभर नहीं भूलेगा।
दुनिया की हर नारी में मातृत्व वास करता है। बेशक उसने संतान को जन्म दिया हो या न दिया हो। नारी इस संसार और प्रकृति की जननी है। नारी के बिना तो संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की मूल पहचान माँ होती है। माँ शब्द एक ऐसा शब्द है जिसमें समस्त संसार का बोध होता है। जिसके उच्चारण मात्र से ही हर दुख दर्द का अंत हो जाता है। माँ की ममता और उसके आँचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। यह घटना मध्यप्रदेश के भोपाल की है जब एक बार फिर से यह बात दोहराने के लिए मजबूर कर देती है कि मां तो आखिर मां होती है।
भोपाल की प्रसिद्ध क्लासिक गायक दीप्ति के मौत से पहले आखिरी शब्द यहीं थे कि मेरे को नहीं मेरे बच्चों को बचा लो। प्रीमैच्योर डिलीवरी के 19 दिन बाद मां चल बसी। अब बच्चों का संसार पिता के हाथों में है। वह उन्हें मां की कमी महसूस नहीं होने दे रहे है। डॉक्टरों ने बताया कि प्रीमैच्योर डिलीवरी के टाइम जुड़वां बच्चों का वजन 500 ग्राम था। 35 दिन दोनों को आईसीयू में रखा गया। 100वें दिन शनिवार को लविक-लविश का वजन दो-दो किलो होने के साथ ही पूरी तरह स्वस्थ होने पर डॉक्टरों ने इन्हें डिस्चार्ज कर दिया। डॉक्टरों का दावा है कि प्रदेश में ऐसा पहला केस है।

दरअसल शाहपुरा निवासी शैलेंद्र ने अपनी प्रेमिका जानी-मानी क्लासिकल सिंगर दीप्ति से 2012 में शादी की थी। थी। दीप्ति ने संगीत में पीएचडी की थी। वे संगीत महाविद्यालय में उपप्राचार्य थीं। जिसके तीन साल बाद दीप्ति की किडनी खराब हो गई। दिसंबर 2015 में अपनी लाड़ली बेटी दीप्ति को बचाने के लिए मां इंद्रा गेडाम ने अपनी किडनी डोनेट की।
शैलेंन्द्र को पिता बनने का सुख तो मिला, लेकिन पत्नी को खोना पड़ा
शैलेंद्र ने बताया कि बंसल अस्पताल में पत्नी की किडनी ट्रांसप्लांट होने के बाद डॉक्टरों ने कहा था कि दीप्ति अब मां बनी तो उसकी जान पर बन आएगी। ऐसे ही आपरेशन के बाद कुछ महिलाएं मां बन चुकी थीं। उनसे प्रेरित होकर दीप्ति ने भी मातृत्व सुख पाने का सपना संजोया। पति और परिजनों की सहमति से दीप्ति ने मां बनने का फैसला लिया। गर्भवती होने के बाद चार माह तक तो दीप्ति को कोई समस्या नहीं हुई। उसका कहना था कि मैं रहूं न रहूं लेकिन अपने जिगर के टुकड़ों को कुछ नहीं होने दूंगी। जन्म से पहले ही मां ने अपने बच्चों के नाम भी सोच लिए थे। लेकिन ईश्वर को जुड़वा बच्चे देने थे। इसी दौरान उसे पीलिया हो गया था। महिला के पति ने बताया कि दीप्ती ने सातवें माह के पहले सप्ताह में 14 नवंबर 2022 को बंसल अस्पताल में 500-500 ग्राम के दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। जिनका नाम लविक-लविश है। डिलेवरी के 19 दिन बाद 2 दिसंबर 2022 की रात दीप्ति की मौत हो गई। इसके बाद बेहद कमजोर जन्म बच्चों को बचाने की कवायद शुरू हुई। परिजन किसी भी कीमत पर बच्चों की जिंदगी चाहते थे। लिहाजा डॉक्टर भी जी जान से जुट गए।

बच्चों के आर्गन पूरी तरह विकसित नहीं हुए थे
बच्चों को प्रोफेसर कॉलोनी इलाके के अग्रवाल बॉम्बे चिल्ड्रन हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। हॉस्पिटल के डायरेक्टर डॉ. राहुल अग्रवाल ने बताया कि जन्म के समय लविक और लवीश नाम के बच्चों का वजन सिर्फ 410 ग्राम था। फेफड़े, ब्रेन और आंतें भी पूरी तरह विकसित नहीं हुए थे। 10 दिन तक दोनों बच्चे बंसल हॉस्पिटल में रहे। इस दौरान उनका वजन घटता गया। इसके बाद बॉम्बे चिल्ड्रन हॉस्पिटल में शिफ्ट किया गया। यहां लविक 32 और लवीश 35 दिन तक वेंटिलेटर सपोर्ट पर रहा। इस दौरान कई बार उनकी सेहत बिगड़ी। 100 दिन तक चले इलाज के बाद अब बच्चे पूरी तरह स्वस्थ हैं। शनिवार को उन्हें डिस्चार्ज कर दिया। दोनों बच्चों का वजन भी दो-दो किलोग्राम हो गया है। बच्चे अब चार महीने के हो गए हैं।

मप्र का पहला केस
भारत में सबसे पहली बार 400 ग्राम के साढ़े 23 हफ्ते के एक बच्चे को बचाया था और अब मप्र में पहली बार डॉक्टर राहुल अग्रवाल और उनकी टीम ने 400-400 ग्राम के जुड़वां बच्चे को नया जीवनदान दिया है यहां किसी चमत्कार से कम नहीं है। मप्र के मेडिकल इंडवायमेंट के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। उनका कहना है कि पूरे मिशन में 24 घंटे लगे रहे। ये खुशियां बच्चे के पिता को हमारे अस्पताल से मिली यहां हमारे लिए बहुत बड़ी बात है। हमें बच्चे के पिता और नानी का पूरा सपोर्ट मिला। और उनके उस विश्वास के साथ हम बच्चों को नया जीवनदान दे सके। इस दौरान मैं और मेरी टीम ने एक भी दिन छुट्टी नहीं ली।
दूसरे नवजात बच्चों की मां का दूध पिलाया
शुरू से ही बच्चों को अपनी मां का दूध नहीं मिला। ऐसे में बच्चों को फीड कराने के लिए मदर मिल्क, अस्पताल में भर्ती दूसरे नवजात बच्चों की मांओं ने दूध पिलाया। डॉ. राहुल अग्रवाल ने बताया कि बच्चों को इंफेक्शन से भी बचाना था, क्योंकि इतने छोटे बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। इनकी लेजर थैरेपी भी की गई, क्योंकि आमतौर पर इतने छोटे बच्चों के साथ लंग्स और रेटिनोपैथी आफ प्रीमैच्योरिटी जैसी दिक्कत का सामना भी करना पड़ता है।
मप्र का पहला केस
डॉ. राहुल अग्रवाल ने बताया कि 26 हफ्ते से कम प्रेग्नेंसी में नवजात को बचाना संभव नहीं होता। ऐसे करीब 20-21 बच्चे ही हैं, जो बच पाए हैं। उनका दावा है कि यह प्रदेश का पहला और देश का दूसरा मामला है, जिसमें 24 हफ्ते के जुड़वां बच्चों को बचाया गया। इससे पहले अमेरिका में 22 हफ्ते 1 दिन के बच्चे को बचाया गया था। फिर ऐसा मामला भारत में 23 हफ्ते 3 दिन का है।