शितिज

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अब कहीं जाकर
शांत हुई है वृष्टि
तुम्हारी यादों की
और
कुछ हरकत सी हुई है
ज़िस्म में

कई दिवस
बीत जाने के बाद
फिर छटे हैं संताप के
घनेरे बादल

ज्योहीं
छिटक कर
ढक लिया
तुम्हारे लौट आने की
समूची उम्मीद को
आशातीत किरणों ने

मानों
बांध लिया हो
सूरज के छोर को
पलकों के छज्जे से

गलक कर
तार तार न हो जाये
जो
मन के कमरे में,
विश्वास की खूंटी पर
सीलन की गंध में
लिपटी, टंगी है
वह गठरी जिसे
लटकाकर गए थे तुम
जाने से पहले

हमने रख दी है
आज फिर
सूखने, खोल कर
एक एक तह

ताकि बची रहे
वहाँ तक
“वायदे की गठरी”
और बचा रहे “प्रेम”
मन के पार्थिव शरीर में,
धरती के उस छोर तक
जहाँ के बाद सम्भावनाएं
मूंद लेती हैं
अपनी आँखें,,,,

रश्मि सक्सेना