टैगोर हास्टल के गलियारे और पुरानी यादें

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ब्रजेश राजपूत की ग्राउंड रिपोर्ट

उम्मीद नहीं थी कि सागर में आफ द स्क्रीन पर चर्चा इतनी रोचक और विस्तृत होगी। किसी नयी किताब पर चर्चा सुनने के लिये रवीन्द्र भवन सरीखे बडे सभागार में ढाई सौ से तीन सौ लोग बुंदेलखंड की सांस्कृतिक राजधानी सागर में ही आ सकते है ये शायद मैं भूल गया था। बुंदेलखंड प्रेस क्लब और बुनियाद सांस्कृतिक समिति के गुंजन भैया, रजनीश जैन और शैलेन्द्र ठाकुर के प्रयासों से हुयी इस चर्चा में लोगों ने रूचि के साथ किताब पर बातचीत की और यादगार आयोजन हो गया। मगर ये क्या इधर कार्यक्रम खत्म होने को था और उधर हमारे मित्र अनुराग द्वारी नयी फरमाइश लेकर आ गये। दादा आपकी यूनिवरसिटी का इतना नाम सुन लिया है आज के आयोजन में कि अब तो देखने का मन बहुत हो रहा है।
Tagore Hostel corridor and old memories
माना कि अंधेरा हो रहा है, माहौल नहीं दिखेगा तो क्या वो इमारतें ही देख लेगे जहां पर ओशो रजनीश, आशुतोष राना और आप जैसे लोग पढे। मैं समझ गया कि अनुराग पूरे मूड में हैं यूनिवरसिटी चलना ही पडेगा। उधर पारंग और उनके दोस्त भी जिद पर अड गये कि आपने हास्टल का इतना अच्छा ब्यौरा और अपनी यादें अभी मंच से कहीं हैं हास्टल तक चक्कर मार आइये।  बस फिर क्या था अनुराग गुंजन भैया के साथ गाडी में सवार होकर चढ पडे सागर विश्वविद्यालय की घटिया।

रात के अंधरे में भी विश्वविद्याल की इमारतों के होंठों पर मुस्कान दिख रहीं थी। प्रोफेसर सुरेश आचार्य ने पुस्तक चर्चा में मंच से कह ही दिया था कि मेरा सागर आना अनायास नहीं हुआ है पितृ पक्ष के दिनों में मेरे अकादमिक पुरखों ने मुझे यहां बुलाया है। तो बहुत कुछ घर आंगन वापसी की अनुभूति हो रही थी। हास्टल जाने के रास्ते में पडने वाले विभाग, दफतर और रास्ते ताने मारते दिखे रहे थे अरे कैसे रास्ता भटक गये भाई, हम सब को तो बिलकुल भुला ही दिया। और थोडी देर बाद ही बांहें पसारे टैगोर हास्टल मेरे सामने खडा था।

1985 में मैं जब पहली बार इस छात्रावास में आया था तो जो डर इस विशाल इमारत और इसमें रहने वालों को देखकर पैदा हुआ था वो तो हास्टल में रहते रहते दूर हो ही गया था और करीब छह साल हंसी खुशी गुजारने के बाद कब इस हास्टल से विदा हो गये पता ही नहीं चला। संबंध निभाने में कितने कच्चे और किस हद तक स्वार्थी हो जाते हैं हम आज अहसास हो रहा था कि कभी इस हास्टल से विधिवत विदा ही नहीं ली ओर इस सबके बावजूद इस बडे दिल वाले हास्टल को कोई शिकायत नहीं है वो वैसा ही मुस्कुरा रहा है जैसे पहले दिन उसे देखा था।

सर अंदर चलिये ना। ये पारंग का दोस्त राघव रामकरन था जो बांदा से आकर एलएलबी कर रहा था। हां हां क्यों नहीं। हास्टल में घुसते ही बांयी तरफ वो कमरा दिखा जहां कभी सिक्के वाला टेलीफोन टंगा रहता था और एक ही अटेंडेंट दोनों हास्टल के छात्रों को पुकारने जाता था कि बाबू आपका फोन आया है। इसी टेलीफोन के कमरे में बात करने के अंदाज से ही समझ में आ जाता था कि फोन किसका और कहां से आया है। देखा मेस में बैंचों पर बैठकर खाना खाया जा रहा है। सब कुछ वही था दाल सब्जी की रंगत बिलकुल वही सालों पुरानी थी कि उपर से देखकर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था कि सब्जी है या दाल और यदि सब्जी है कि तो किसकी।

हां रोटियां कुछ बेहतर लग रही थी जो गैस चूल्हे में पक रहीं थी वरना हमको चूल्हे की रोटियां मिलती थीं जिनको हाथ में लेकर पहले आटा झाडना पडता था। अब तक राघव के दूसरे दोस्त भी आ गये थे। सर आप कौन से कमरे में रहते थे और कितने साल यहां रहे तब कैसा था ये हास्टल क्या तब भी इतनी ही सफाई रहती थी क्या तब भी मारपीट और रैंगिग होती थी। इन सवालों का जबाव देते देते मन नहीं माना और एक सामने पडे कमरे में अंदर जाकर देख ही लिया। उफ कितना छोटा सा कमरा है।

मुन्ना भाई के सर्किट के शब्दों में कहें तो कमरा शुरू होते ही खत्म हो गया और इस छोटे से कमरे में मैं कभी मनोज तो कभी अनिल तो कभी मधुर के साथ छह साल रहे हैं। इस छोटे से कमरे ने कितनी बडी बडी बातें सिखायीं हैं। जो आज काम आ रहीं हैं। इतनी बडी जिंदगी में इस छोटे से कमरे की बडी अहमियत है। ये मैं उन छोटे साथियों को समझाने लगा। ये हास्टल बस एक पडाव है जिंदगी का। बेहतर दिन गुजारो ओर बेहतर बनकर निकलो। बेहद खूबसूरत दुनिया तुम्हारा इंतजार कर रही है।

सर एक फोटो हो जाये कमरे के बाहर फोटो हो ही रहा था कि एक हास्टलर दौडते हुये आया अरे आपको मैं टीवी पर देखता हूं आप यहां इस हास्टल में रहे हैं अरे वाह। मैंने कहा कि मैं तो टीवी वाला हूं मगर फिल्मों वाले हमारे दोस्त आशुतोष राना भी यहीं हमारे साथ रहे हैं इसलिये खुश होकर यहां रहो और एक सवाल अपने से वक्त मिलने पर पूछते रहो कि यहां जो करने आया था क्या वो ईमानदारी से कर रहा हूं। चलिये दादा वापस लौटने का मन हो रहा है या नहीं। ये अनुराग थे जो अब तक हास्टल

एबीपी न्यूज, भोपाल