मुजफ्फरनगर। संजीव प्रधान का एक सपना है। वह चाहते हैं कि यूपी के मुजफ्फरनगर स्थित उनके गांव दुल्हेड़ा में जिन मुस्लिम परिवारों को दंगे के चलते घर छोड़ना पड़ा, वे अब वापस आ जाएं। वह इसके लिए पुरजोर कोशिश भी कर रहे हैं। मुजफ्फरनगर के शाहपुर क्षेत्र स्थित गांव दुल्हेड़ा में दंगे के चलते 65 मुस्लिम परिवारों को 2013 अगस्त और सितंबर में घर छोड़ना पड़ा था। इनमें से 30 परिवारों को संजीव प्रधान मनाकर वापस ला चुके हैं।
Muzaffarnagar riots: Sanjeev Pradhan’s dream, migrated Muslims come back
जब मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलस रहा था, तब 42 साल के इस शख्स ने कई मुस्लिम परिवारों की मदद की और उन्हें अपने घर पर शरण दी थी। इसके अलावा उन्होंने और उनके साथियों ने अपने शरणार्थियों की रक्षा भी की। 4 साल बाद गांव लौटकर आईं अफसाना बेगम बताती हैं, ‘मुझे याद है कि कैसे वह (संजीव) और उनके साथी हमारी मस्जिद की सुरक्षा कर रहे थे। उन्होंने किसी को इसे छूने तक नहीं दिया। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर हमारी सुरक्षा की। अगर वह कहते हैं कि हमें वापस आना चाहिए, तो मैं बिना दो बार सोचे उन पर यकीन कर लूंगी।’
अपनों से ही मिली आलोचना
वहीं, संजय कहते हैं कि वह लोगों को उनके गुणों के आधार जज करते हैं न कि धर्म के आधार पर। वह कहते हैं, ‘मुसलमान खराब हैं? या हिंदू खराब हैं? मैं कहता हूं इंसान खराब हैं। हमें लड़ने और बदलाव की उम्मीद की जरूरत है। मैं सिर्फ वही कर रहा हूं।’ हालांकि अपनी धारणा पर अड़े रहना उनके लिए इतना भी आसान नहीं था। गांव के पूर्व प्रधान संजीव को उन्हीं के जाट समुदाय के लोगों की आलोचना झेलनी पड़ी। जोकि मुस्लिमों के हमेशा के लिए गांव छोड़ने के अवसर में संजीव को बाधा के रूप में देखते थे।
‘मस्जिद को किसी को हाथ तक लगाने नहीं दिया’
उनके एक समर्थक नवाब सिंह कहते हैं, ‘संजीव प्रधान ने 2015 में प्रधान का चुनाव जीता था और इसके पीछे अल्पसंख्यकों को दंगों में बचाने के लिए उनका प्रयास प्राथमिक वजह बना। कुछ हिंदू भी उन्हें ताने मारते हुए ‘सलाम-अलाइकुम’ बोलने लगे थे और दावा करते थे कि वह अब लगभग मुस्लिम ही हैं।’
संजीव उस दिन को याद करते हुए बताते हैं, ‘मुझे आज भी अच्छी तरह याद है- वह 8 सितंबर 2013 का दिन था। हम कुछ दूरी पर गोलियों की आवाज सुन सकते थे और बाद में यह स्पष्ट हो गया कि नरसंहार शुरू हो चुका है। चूंकि कई मुस्लिम परिवार और उनकी एकमात्र मस्जिद मेरे घर के पास में ही थी, हमने उनके घरों पर पहरा डाल लिया। हालांकि तब तक 27 अगस्त को कवल गांव में 5 हत्याओं की खबरें आ चुकी थीं, जिस वजह से दंगा भड़का था।’
‘हमारी जिंदगी पर संजीव का उधार’
दुल्हेड़ा, कुत्बा गांव से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर ही था जहां 8 मुस्लिमों की हत्या हुई थी। दुल्हेड़ा भी हिंसा की आग से बच नहीं पाया था। इस दंगे में कुल 62 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 50 हजार से ज्यादा विस्थापित हो गए थे। हालांकि संजीव और उनके साथी अब लोगों को वापस गांव बुलान के लिए सार्थक प्रयास कर रहे हैं। इन्हीं में से एक बाला बानो भी हैं जो उन दिनों को याद करते हुए आज भी कांप जाती हैं। वह कहती हैं, ‘हम डर और अनिश्चितता से भरे हुए थे। अगर संजीव वहां नहीं होते तो हम बच नहीं पाते।’