भाई भतीजा और पुत्र वाले नेताओं को नहीं जिताएं कार्यकर्ता..!

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बाखबर
राघवेंद्र सिंह

राजनीति में कार्यकर्ता भजन कीर्तन करने तो नहीं आते और न ही नेता सन्यासी बनने। सियासत में हैं तो पद प्रतिष्ठा के साथ माल भी कमाते हैं। किसी भी पार्टी में नेता हजारों हजार कार्यकतार्ओं की मेहनत और सालों साल लगाए जाने वाले नारों से बनते हैं। नेताजी के लिए अपना तन मन धन और समय कुर्बान करने वाले कार्यकतार्ओं को जब बुढ़ापे में ही सही उम्मीदवार बनने का मौका आता है तो जिस नेता को वे अपने पैसे पसीने और खून की कीमत पर विधायक और सांसद बनवाते हैं वही अपने प्राणप्रिय कार्यकर्ता की जगह लल्लू कल्लू पप्पू चप्पू डंपू विक्की नाम वाले नालायक न सही मगर कार्यकतार्ओं की तुलना में कम काबिल भाई भतीजे बेटे ही उत्तराधिकारी के रूप में याद आते हैं। पुराना कार्यकर्ता जो दरी उठाते बिछाते बूढ़ा हो गया हो उसे तो लगता है जैसे जिस लीडर के साथ था वही डकैत निकल गया और पार्टी नागिन निकल गई। हम ऐसे ही लुटे पिटे और राजनीतिक रूप से डसे गए कार्यकतार्ओं के दुख से रूबरू होना चाहते हैं। यह चुनाव का ही वक्त है जो इस तरह के आभास दिलाता है और तजुर्बे कराता है। कार्यकतार्ओं पर अन्याय करने में सभी पार्टियों का किरदार एक जैसा ही लगता है।

पहले कभी भाई भतीजा और वंशवाद के लिए भाजपा और विरोधी दल कांग्रेस को निशाना बनाते थे। सूबे में सत्ता के पन्द्रह साल बाद जब चुनाव हो रहे हैं तो उन क्षेत्रों के कार्यकर्ता बड़े अनाथ से महसूस कर रहे होंगे जहां नेताओं के वंश को उम्मीदवार बनाने के मामले में आगे रखा गया है। भाजपा में ही लें तो पूर्व मुख्यमंत्रियों में शामिल कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी को अपने पिता की विरासत मिली और कार्यकर्ता नाम का प्राणी टिकट पाने के मामले में अनाथ हो गया।

इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा संतान नहीं होने के कारण उनके भतीजे सुरेन्द्र पटवा को राजनीतिक विरासत के तौर पर भोजपुर सीट मिली फिर वहां पटवा के समकालीन और उनके बाद की पीढ़ी विधायक की उम्मीदवारी का सपना लिए ही गुजर गई। अब सुरेन्द्र पटवा के बाद की पीढ़ी गुजरने के दांव पर लगी हुई है। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरेन्द्र कुमार सखलेचा के पुत्र ओमप्रकाश सखलेचा भी लगातार विधायक बने हुए हैं और इन सभी को फिर पार्टी ने उम्मीदवार बनाया है। ये उदाहरण कार्यकतार्ओं की दुखती रग को छूने की कोशिश भर है। बाकी तो वे सब अपने राजनीतिक अंत को अपने सामने जीवंत देख रहे हैं।

ये वैसा ही है जैसे कोई सेहतमंद व्यक्ति को मौत का फरमान सुना दिया जाए और वो उससे बचने की बजाए केवल हर चुनाव में खुद को मरता हुआ देखता रहे। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि कार्यकर्ता ऐसे नेताओं को न जिताए जिनका परिवार हो और उसमें पत्नी, भाई- भतीजे, बेटा- बेटी और पुत्रवधु शामिल हों। इतना ऐहतियात तो उसे विरोधियों को हराने में भी नहीं बरतना पड़ता होगा। कांग्रेस में भी जिस चुरहट से अर्जुन सिंह को कार्यकर्ताओं ने चुनाव जिताया अब वहां से अजय सिंह राहुल पट्टेदार बन गए।

जिस गुना से माधवराव सिंधिया को जनता ने सिर माथे बैठाया वहां ज्योतिरादित्य सिंधिया राज कर रहे हैं। राघौगढ़ से पहले दिग्विजय सिंह और अब उनके युवराज जयवर्धन सिंह विधायक हैं। रीवा क्षेत्र से पहले श्रीनिवास तिवारी तो अब उनके पुत्र सुन्दरलाल तिवारी विधायक हैं मतलब कार्यकतार्ओं के लिए कोई भविष्य नहीं है। उनके भाग्य में जिन्दाबाद के नारे लगाने के अलावा दरी उठाने बिछाने और नेताजी की चापलूसी करना ही लिखा है। जिन नेताओं के पुत्र पुत्रियां और परिजन नाबालिग हैं ये उदाहरण उनके लिए सबक के तौर पर है।

राजनीति में आधारहीन अचंभों का भी खूब बोलबाला रहता है। भाजपा में यह आधारहीन लेकिन संगठन की दृष्टि से मजबूत माने जाने वाले नेताओं को संगठन मंत्री और संगठन महामंत्री कहा जाता है। वे चुनाव लड़ें तो जनता में आधार न होने के कारण भले ही हार जाएं लेकिन कार्यकतार्ओं को नेता बनाना और उन्हें चुनाव जिताने का हुनर उन्हें आता है। लेकिन वे भी अब इस काबिलियत में कमजोर हो गए हैं। उनकी भी चुनाव लड़ने की इच्छा जाग जाती है।

अलग बात है कि टिकट नहीं मिलता मगर कई संगठन के आधारहीन नेता अपने को मजबूत मानते हुए चुनाव जीतने के लिए सुरक्षित सीट की तलाश में दिख रहे हैं। अगर वे कामयाब हुए तो किसी कार्यकर्ता के राजनीतिक जीवन का असमय अंत हो जाएगा। भोपाल को ही देखें तो गोविन्दपुरा विधानसभा सीट पर परजीवी नेताओं की नजर लगी हुई है। इसमें इंदौर समेत मालवा की भी कुछ सीटें हैं। जिन नेताओं को परिवारवाद का लाभ नहीं मिला है उनमें सत्यनारायण जटिया माया सिंह के नाम प्रमुख हैं। इन्हें और इनके परिवार में से किसी को भी भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया है।कार्यकर्ता इस पर खुश हो सकते हैं मगर इन नेताओं के लिए ये खून के आंसू रोने का वक्त है। वे जरूर सोचते होंगे आखिर हमारे बच्चों ने क्या गुनाह किया है..? चुनाव का टाइम है फिलहाल तो बेचारे कार्यकतार्ओं की जय जय।