काम पर गया

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काम पर गया
एक शख्स लौट रहा है
घर अपने।
गाड़ी घर ले जा रही है उसे
मगर दूनी रफ्तार से भाग रहा है वह
कि अरमानों को पंख लग गए हैं
आंखों को मिल गया है
आसमान सा विस्तार
कि गाड़ी की इत्तू सी
खिड़की से
दिखलाई दे रहा
पूरे घर, मोहल्ले में बिखरा उत्सव।
गाड़ी के पहियों को पंख लग गए हैं
कि उड़ रहे हैं ख्याल।
हाथ कभी संभालते हैं वस्त्र…
जांच लेते सामान
कि कुछ छूट तो न गया पीछे
कि अफसोस हो
क्यों भूल आए
वह जो लाया गया था
खास इस प्रसंग के लिए।
टिकट तक जांच लिया जाता
बीसियों बार।
बैचेनी में
उतारे-पहने जाते जूते।
दर्जनों बार देखी जाती घड़ी।
सहयात्री की सहमति पाते तो
कुछ अपनी खीज उतारते हुए
आउटर पर जब ठिठकती है ट्रेन
रेलवे को कोसा जाता है
सबसे ज्यादा।
देरी से पहुंचाने वाली हर
बाधा पर होती कोफ़्त।
ज्यों ज्यों करीब आता
अपना शहर, मोहल्ला, घर
धड़कनें बढ़ जाती हैं
आंखें चमक जाती हैं
चेहरे पर आ जाती लालिमा
हर पहचानीे शै देख
बढ़ जाता है रक्त प्रवाह
इस तरह घर लौटता
शख्स
होता जाता है और खूबसूरत…

-पंकज