राकेश दुबे
Madhya Pradesh: The opposition will have to come out of agony
जिस तरह कांग्रेस ने अध्यक्ष के चुनाव में चतुराई से काम लेकर समय से पांच नामांकन भरवाए थे उससे कुछ सीखना था, उपाध्यक्ष के चुनाव में भी यही फार्मूला लगाकर कांग्रेस जीती, भाजपा को किसने रोका था | अब आसंदी पर आक्षेप व्यर्थ है |साफ दिखता है भाजपा के सारे विधायक अभी भी हार के शोक से ग्रस्त हैं | सामान्य सी बात है शोक में खीज उत्पन्न होती है, जिसमे भाजपा का संतुलन गडबडा रहा है | भाजपा को अब इस स्थिति से नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव उबार सकते हैं | भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने शिवराज सिंह को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर गोपाल भार्गव को खुल कर काम करने का मौका दिया है | अब उन्हें ही नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश की सम्पूर्ण भाजपा को संतुलन बनाना होगा |
वैसे पांच राज्यों में मिली हार के बाद भाजपा अब आम चुनावों में किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहती है और इसलिए हर दांव सोच-समझ कर खेल रही है। भारत में चुनाव मुद्दों से अधिक भावनाओं के इर्द-गिर्द कैसे हो सकते हैं, इसका सफल प्रयोग भी वह अतीत में कर चुकी है। इसलिए धर्म के बाद अब वह जातिगत भावनाओं को भुनाने की तैयारी में है। सामान्य वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला सरकार ने जिस हड़बड़ी में लिया, वह इसका उदाहरण है।
यूं तो सवर्ण हमेशा से भाजपा के वोट बैंक माने जाते रहे हैं, लेकिन पिछले साढ़े चार सालों में भाजपा के सवर्ण समर्थक अलग-अलग कारणों से उससे नाराज हुए और बतौर मतदाता उससे दूर भी हुए। मध्यप्रदेश में “माई के लाल” का कमाल दिखने के साथ पद्मावत फिल्म विवाद, नोटबंदी और जीएसटी के कारण व्यापार, रोजगार को होने वाला नुकसान, बेरोजगारी की बढ़ती दर, महंगाई इन सबसे सवर्णों में नाराजगी देखी गई। फिर एससी एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भाजपा की परेशानी और बढ़ा दी। देश में दलित समुदाय की नाराजगी को रोकने के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद में संविधान संशोधन पेश किया तो सवर्ण नाराज हो गए।
और मध्यप्रदेश,राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा को हराने का बाकायदा ऐलान भी किया और नतीजे उस एलान के अनुरूप ही आए।