नई दिल्ली। वित्त वर्ष 2017-18 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में हमारे देश का चालू खाते का घाटा बढ़कर जीडीपी के दो फीसद के बराबर हो गया है। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का भाव बढ़ा तो यह और ऊपर जा सकता है। इधर अमेरिका सहित कुछ देशों ने अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए संरक्षणवादी नीतियां अपनाई हैं, जिससे ट्रेड वार की स्थिति बन गई है। ऐसे में यह जानना उपयोगी होगा कि व्यापार घाटा और चालू खाते का घाटा क्या है और इनमें उतार-चढ़ाव अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करता है।
चालू खाते का घाटा और व्यापार घाटा समझने के लिए सबसे पहले हमें भुगतान संतुलन की अवधारणा को समझना होगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के अनुसार भुगतान संतुलन एक स्टेटिस्टीकल स्टेटमेंट है, जो एक देश के निवासियों के अन्य देशों के साथ एक निश्चित अवधि में किए गए आर्थिक लेन-देन का सार प्रस्तुत करता है। निवासी से आशय देश के नागरिकों से नहीं बल्कि उन व्यक्तियों या कंपनियों से है जिनका आर्थिक हित उस देश में है।
सरल शब्दों में कहें तो एक देश के निवासी व्यक्ति या कंपनियां और वहां की सरकार एक साल या तिमाही के भीतर अन्य देशों के साथ जब वस्तुओं, सेवाओं और पूंजी का आयात-निर्यात करते हैं तो आंकड़ों के रूप में दिए गए उसके सार को भुगतान संतुलन कहते हैं। जब किसी देश का भुगतान संतुलन डगमगाता है तो वहां की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। नब्बे के दशक के शुरू में जब भारत में भुगतान संतुलन का संकट गहराया तो सरकार को संकट से उबरने के लिए उदारीकरण और आर्थिक सुधारों की शुरूआत करनी पड़ी थी।