मप्र डीजीपी : पुलिस की ‘बोलती’ बंद करना अच्छा, मगर संवाद तो कायम रहे

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पंकज शुक्ला,

1983 बैच के आईपीएस ऋषि कुमार शुक्ला मप्र के पुलिस महानिदेशक हैं। वे शांत स्वभाव के हैं और आक्रामकता विहीन कार्य करते हैं। सहज इतने कि बिना वर्दी के होते हैं तो आसपास के लोगों को यकीन नहीं होता कि ये प्रदेश की पुलिस के मुखिया हैं। प्रशिक्षु अधिकारी से लेकर मुखिया बनने तक के कार्यकाल के दौरान के कई प्रशंसक हैं जो बड़े सम्मान से उनकी कार्यशैली को याद करते हैं। मगर, इनदिनों उनका एक आदेश चर्चा में है। खबर बनी थी कि डीजीपी ने पुलिस अधिकारियों को मीडिया से बात न करने की हिदायत दी है। कहा कि पूर्व अनुमति लेकर ही बात होगी। हालांकि, उनके आदेश की गलत व्याख्या की गई।

कहा गया कि उन्होंने मीडिया से संवाद को ‘बैन’ कर दिया। ऐसा नहीं है। बल्कि यह आदेश सोशल मीडिया पर जारी बेलगाम पोस्ट की रोकथाम के लिए आचार संहिता तय करने जैसा है। असल में डीजीपी ने सोशल मीडिया में पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों के अनुचित व्यवहार पर लगाम लगाई है। अनुशासनहीनता पर लगाम अच्छी है, मगर पुलिस और मीडिया के बीच परस्पर संवाद की व्यवस्था भी तो होनी चाहिए ताकि गलत खबरों का प्रसारण तुरंत रोका जा सके। बेहतर तो यही होगा कि एक्टीविस्ट बन रहे अफसरों को आचार संहिता का पाठ पढ़ाने के साथ मप्र पुलिस मीडिया से संवाद की बेहतर व्यवस्था तैयार करे।

करीब डेढ़ पेज के सरल भाषा के आदेश में प्रदेश पुलिस के मुखिया ने साफ कहा है कि सोशल मीडिया पर कोई गोपनीय जानकारी शेयर न की जाए। दुर्भावनापूर्ण टिप्पणी या फोटो या अन्य सामग्री न डाली जाए। आपत्तिजनक पोस्ट का समर्थन न किया जाए। सोशल मीडिया में फर्जी नाम से अकाउंट न बनाया जाए। विशिष्ट या अतिविशिष्ट व्यक्तियों की ड्यूटी में लगे अफसर खतरा उत्पन्न करने वाले ब्यौरे या फोटो पोस्ट न करें। समूहों में अतिउत्साह में आ कर टिप्पणी न करें, बल्कि समुचित विवेक परिचय दें।

ऐसे समय में जब बीते एक साल में कार्य में लापरवाही पर 200 से अधिक पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त किया गया हो, ऐसे समय में जब पुलिस अधिकारियों ने सोशल मीडिया पर अपने आक्रोश को हद से आगे जा कर व्यक्त कर शासन-प्रशासन को मुश्किल में डाला हो डीजीपी की इस पहल की सराहना की जानी चाहिए। यह आदेश इसलिए भी आवश्यक था कि अपराध घटित होने के बाद से ही उसका मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है। पुलिस अपनी थ्योरी के साथ मीडिया ट्रायल से भी प्रभावित होती है। टीवी पर दिखने की उम्मीद में अफसर तो ठीक अदना सा सिपाही भी जाने-अनजाने में मीडिया को वो जानकारी दे देता जो उस केस की लीड बन सकती थी।

मप्र में ऐसे प्रकरण भी हुए हैं जब किसी विवाद के बाद हटाए गए पुलिस अधिकारियों ने सोशल मीडिया पर भड़ास निकाली और समूचा विभाग संदेह से घिर गया। मसलन, करीब पौने दो साल पहले झाबुआ में हुए उपद्रव के बाद राजनीतिक दबाव में हटाए गए एसडीओपी राकेश व्यास ने फेसबुक पोस्ट में तंज करते हुए लिख दिया था कि ‘सब जानते हैं कि दंगे कौन कराते हैं, हड़ताल कौन कराते हैं, उत्पात कौन कराते हैं, बाजार कौन जलाते हैं। यह सीधा-सीध पुलिस और राजनेताओं में टकराव की तरह था। इसलिए, कर्मचारियों को सिविल सेवा आचरण याद दिलाने आवश्यक हैं।

मगर, डीजीपी को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। डीजीपी से लेकर एसपी के दरबार तक में पुलिसकर्मी अपनी शिकायतें लेकर दीनहीन से खड़े रहते हैं। शिकायतें दूर होना तो दूर ये ‘दरबार’ भी नियमित नहीं लगते। जब परस्पर संवाद नहीं रहता तो बाहर की बातें सोशल मीडिया के जरिए बाहर आती है। दूसरी तरफ, मीडिया भी अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पड़ताल भी करती है और पुलिस के कार्यों की आलोचना व प्रशंसा भी।

बेहतर होगा कि डीजीपी शुक्ला विभाग में आंतरिक तौर पर और पुलिस व मीडिया के बीच आपसी संवाद की पुख्ता व्यवस्था बनाएं। जैसे दिल्ली पुलिस ने किया है। दिल्ली पुलिस में एक शाखा हैं जहां मीडिया के सवालों के उत्तर तथा जानकारियां देने के लिए कोई अधिकारी हमेशा उपलब्ध होता है। ऐसा होने से गलत जानकारियों प्रसारित होने का अंदेशा नहीं होता तथा अपुष्ट सूचनाओं को पंख नहीं लगते। ऐसा हो सके तो ही डीजीपी की पहल का कोई लाभ होगा, अन्यथा ऐसे आदेश तो अकसर ही निकला करते हैं।