चुनावी साल में सरकार – दिल से अमीर खजाने में फकीर

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राघवेन्द्र सिंह

मध्यप्रदेश में चुनावी साल है। भाजपा और शिवराज सरकार हमेशा ही चुनाव के मोड पर रहती है। ऐसे में हालत करेला और नीम चढ़े जैसी हो गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किसी को भी निराश और नाराज नहीं करना चाहते। बस ख्वाहिश यह है कि चौथी बार फिर बन जाए भाजपा की सरकार। इसलिए सूबे के हालात कुछ ऐसे हैं कि चोर से कहा जा रहा है कि चोरी करो और साहूकार से कहा जा रहा है जागते रहो। कुल मिलाकर सब कुछ रहें। लूटने वाला भी और लुटने वाला भी। राजधानी भोपाल से लेकर सुदूर दिहाती इलाकों तक मचा हुआ है राम नाम की लूट है…

भोपाल से किस्सों की शुरूआत करते हैं। मिसाल के तौर पर हम सब यहां की बड़ी झील पर इतराते हैं। उसका हाल ये है कि रातों रात उसे लगभग 80 डंपरों से भरने का षड़यंत्र होता है। सोशल मीडिया और अखबारों में हल्ला मचने पर नगर निगम प्रशासन जागने का नाटक करता है और बारह घंटों में खाली करने का अल्टीमेटम दिया जाता है। रस्मी तौर पर कार्यवाही के बाद उसका समतलीकरण कर दिया जाता है। जबकि यहां मुख्यमंत्री से लेकर एनजीटी तक सब हैं। मगर लगता है इन चौकीदारों को छोड़ सब जाग रहे हैं। ऐसे ही भाजपा से जुड़े एक नेता के तार भी इस कांड में दिख रहे हैं।

इसी तरह पुरानी विधानसभा जो कभी मिंटो हाल के नाम से मशहूर थी उसे भी होटल व्यवसाय के लिए कौड़ियों के भाव लीज पर देने की खबरें हवा में तैर रही हैं। राजधानी के ये कुछ उदाहरण हैं जिनसे अनुमान लग सकता है कि चुनावी साल में सरकार में बैठे लोग अपने हित साधने और दूसरों को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे ही कर्मचारियों के मसले हैं। संविदा कर्मियों को नियमित करने का ऐलान एक बड़ा फैसला है। नौकरशाही इस मुद्दे पर अमल के लिए कोई सम्मान जनक रास्ता नहीं खोज पा रही है। अभी यह घोषणा प्रशासन तंत्र के गले की हड्डी बनी हुई थी कि राज्य मंत्रालय में कर्मचारी दो दिन की हड़ताल पर चले गए थे।

उनकी मांगें मानी जाएं तो सरकार पर करीब 560 करोड़ का बोझ आएगा। हड़तालियों से जब ये पूछा गया कि सरकार का खजाना खाली है तब इन मांगों की पूर्ति कैसे होगी। जवाब यह आया कि हड़ताल कराना और दबाव की स्थिति में फैसले लेना सरकार ने ही सिखाया है। वे कहते हैं सिर मुड़वाने वाले संविदा कर्मियों को जब सरकार नियमित करने की घोषणा कर सकती है तो हमारी मांगें एक कमेटी द्वारा अनुशंसित हैं।

अलग बात है कि दो दिन की हड़ताल में राजधानी से लेकर ब्लाक स्तर तक सरकारी कामकाज प्रभावित हुआ। एक अनुमान के मुताबिक दो लाख करोड़ से ज्यादा के बजट वाले अपने राज्य पर डेढ़ लाख करोड़ से अधिक का कर्जा है। ऐसे में विकास कार्यों का नियमित भुगतान तो दूर समय पर साल भर वेतन बटता रहे यही बड़ी बात होगी। कर्ज और खजाना खाली होने के बावजूद सरकार दिल से अमीर है। इसलिए फकीरी में भी बांटने के मामले में कोई कमी नहीं है। करीब पन्द्रह हजार घोषणाओं पर अमल बाकी है औऱ साल चुनावी है इसलिए मान लिया जाए कि हजार दो हजार घोषणाएं आचार संहिता लागू होने के पहले तक होने का अनुमान है।

संविदा शिक्षकों को नियमित होने के साथ ही वेतन का भार बढ़ेगा। इस फैसले से शिक्षा के स्तर में किसी सुधार की उम्मीद नहीं है क्योंकि कल के संविदा कर्मी नियमित होते ही और बेफिक्र हो जाएंगे। हम उनके नियमितीकरण के विरोधी नहीं हैं लेकिन कर्तव्य बोध को लेकर आशंका जरूर गहरी है। अभी लगभग चालीस हजार शिक्षकों की नियुक्ति का सिलसिला भी शुरू होगा। चार हजार से अधिक स्कूल चपरासियों के जिम्मे है और लगभग पन्द्रह हजार स्कूल एक शिक्षक के भरोसे हैं। भला बताइए स्कूल चलो अभियान में बुलाए गए बच्चों को नए भरती के बिना कौन पढ़ाएगा। तो नए शिक्षकों की भर्ती के चलते करोड़ों रुपए का बोझ और सरकार पर आने वाला है। हालांकि शिक्षा सत्र के सामान्य संचालन के लिए भी यह सब जरूरी है।

इन सबसे अलग हटकर सरकार ने उन सैकड़ों अधिकारी कर्मचारियों पर मुकदमे चलाने की अनुमति नहीं दी है जो आर्थिक गड़बड़ी के मामले में लोकायुक्त से लेकर विभागीय जांच में दोषी पाए गए हैं। ऐसे में शिकायत करने वाले भी खतरे में पड़ते हैं। दरअसल भ्रष्टाचारियों को जब छूट मिलती है तब चौकीदार की भूमिका निभाने वाले शिकायतकर्ता और आरटीआई एक्टिविस्ट खतरे में पड़ते हैं। जबकि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टालरेंस की बात करते थकते नहीं हैं। कुल मिलाकर चौकीदार को छोड़ बेईमान चोर डकैत सब जाग रहे हैं।

जितनी देर उतना ज्यादा नुकसान
मध्यप्रदेश भाजपा और कांग्रेस संगठन में निर्णय को लेकर एक सी हालत में हैं। बदलाव को लेकर दोनों जगह अनिर्णय की स्थिति है। कांग्रेस में भले ही यह ज्यादा खास न हो मगर संगठन के मामले में भाजपा के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। भाजपा में कहा जा रहा है नेतृत्व को लेकर अनिश्चितता जितना लंबा चलेगी चुनाव में नुकसान उतना ज्यादा होगा। दिग्विजय सिंह ने जरूर नर्मदा परिक्रमा कर कांग्रेस में जान फूंकने का काम किया है। कहते हैं जब कोई नेतृत्व न दे तो खुद की सक्रियता अपने आप ही लीडरशिप के सूत्र सौंप देती है। कांग्रेस में तो अभी दिग्विजय सिंह इसी हालत में हैं और भाजपा भी उनके अगले कदम का इंतजार कर रही है।

लेखक IND 24 के समूह प्रबंध सम्पादक हैं।)