किस्सा ए अच्छे ख़ां उर्फ़ तारीफ़ का जंजाल- अच्छे मियां और उनकी चटोरी ज़बान…

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श्रुति कुशवाहा

अच्छे मियां की ज़िंदगी में जीने की कुछ खास वजहों को गिनाया जाए तो बेगम की मुहब्बत के बाद वो उनके हाथ के खाने का ही नाम लेंगे। अच्छे मियां की खुशनसीबी ऐसी कि बेगम की हाथ में जो ज़ायका है जो मियां जी तो क्या, अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार, मिलने-जुलने वाले सभी को मुरीद बना चुका है। जिसने एक बार बेगम के हाथ का खाना खा लिया, तारीफ़ किए बिना नहीं रह पाता। यही वजह है कि ईद पर सबसे ज़्यादा रौनक उन्हीं के घर होती है। लोगबाग बेगम साहिबा के हाथों की बनी सिवैया, शीर खुरमा, फिरनी, बर्फी, गुलाब जामुन और फालूदा खाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। न हो तो बेगम सिवैया को ही चार आठ तरीक़े से इतने मज़े-मज़े का पकाती हैं कि क्या कहने। कभी सिवैया की खीर, कभी किमामी सिवैया, सिवैया की बर्फी, सिवैया की गुझिया..और तो और नमकीन सिवैया तो अच्छे से अच्छे नूडल्स को मात देती है…
बेगम जब बिरयान पकाती तो गली दूर-दूर तक महक उठती..हरी इलायची, लौंग, जायफल, तेजपत्ता, ज़ीरा तो क्या ही स्वाद लायेगा, जो भी स्वाद उतरता वो बेगम के हाथ का ही कमाल होता। कोरमा, पुलाव, हलीम, कोफ्ते की बात छोड़िये जनाब, उनके हाथ की दाल खिचड़ी खा ले कोई तो वाह-वाह कर उट्ठे…
लेकिन यही है असल दिक्क़त..मियांजी से वाह-वाह न करते बनती है। बेगम की ज़िंदगी की सबसे बड़ी शिकायत, रूठने की सबसे ज़्यादा वजह और उनके बीच लंबे-लंबे बेस्वाद अबोले के पीछे कमबख्त ये स्वाद ही है। जहां लोग दूर-दूर से आकर बेगम के खाने की तारीफ़ के कसीदे पढ़ते, वहीं मियां जी के मुंह से एक शब्द न फूटता। जाने क्या बात है कि उन्हें तारीफ़ करते ही न आती। मुंह में कौर रखते ही जैसे रस घुल जाता, मियां जी अंदर ही अंदर स्वाद में पग जाते। जी तो चाहता कि बेगम का हाथ पकड़कर चूम ही ले, खाने का रस आंखों में उतर आता, जहां दो रोटी में पेट भर जाता हो वहां स्वाद के चक्कर में पांचेक तो सूत ही जाते। लेकिन ये सारी बातें अंदर ही अंदर चलती रहती, ज़बान पे कुछ न आता। बेगम की बड़ी हसरत है कि कि अच्छे मियां के मुंह से कभी तो तारीफ़ में कुछ फूटे, लेकिन ये अरमान पूरे होने ही न होने पाते थे। इस बात पे जो कभी बहस छिड़ती तो मियां जी का कहना होता, जो मैं भूख से ज़्यादा चार रोटियां खा लेता हूं उसे ही तारीफ़ मान लिया करो, बेगम किलपती रहती कि इस आदमी को अब खाना ही न दूंगी अगले वक़्त, लेकिन फिर वही स्वाद पकता और वही जिरह शुरू हो जाती…
बेगम जब गोश्त पकाती हैं तो कुछ पड़ोसी तो बहाने-बहाने से खाने के वक्त ही आ टपकते, और बेगम के हाथ की तासीर कुछ ऐसी कि दो जनों के लिये पकने वाली रसोई से छह लोग भी खाकर उठ जाए तो खाना कम न पड़ता। मियां जी मानते हैं कि उनके घर की बरकत बेगम से ही है, नेकबख़्त के हाथों में न सिर्फ स्वाद है बल्कि इतनी शफ़ा भी है कि कभी रसोई बीमार न पड़ती, खाना कम न पड़ता…
तो अच्छे मियां जब भी अकेले में तसव्वुर करते तमाम चीज़ों का, बार-बार सोचते कि अबके तो बेगम की तारीफ़ कर ही देंगे। कसीदे भले न पढ़े, लेकिन चार लफ़्ज़ तो बोल ही सकते हैं। इधर ये बात कल से और ज़ोर पकड़ रही है, कल ही उसके ख़ास दोस्त बब्बन मियां कुतुबुद्दीन होटल में टकरा गए, कबाब-परांठा उड़ा रहे थे वहां खूब मज़े में। अच्छे ख़ां ने टोका कि मियां घर पे खाने को नई मिल रा है क्या, तो फूट पड़े बब्बन मियां। तब बताया उन्होंने कि उनकी बेगम इतना बेस्वाद खाना पकाती है कि गले से नीचे नहीं उतरता, सालों से बेज़ायका खाना खा-खाकर जैसे ज़बान को लकवा पड़ गया है। उसपर ख़ौफ़ के मारे कुछ कह नहीं सकते, तो बस कभी कभार यहीं आके मुंह का ज़ायका बदल लेते हैं। इतना कहकर ही रूके नहीं बब्बन मियां, अब उन्होने छेड़ दी अच्छे मियां के घर के खाने की तारीफ़। बोल रए थे कि ख़ां आपको ज़िंदगी की सबसे बड़ी नेमत मिली है भाभी साहिबा के तौर पर। अब ज़िंदगी भर जो सुबह दोपहर शाम रात खाना हो, वही बेस्वाद रहे तो भला ज़िंदगी में क्या मज़ा होगा। आप खुशकिस्मत हैं कि भाभी जी इत्ते बेहतरीन खाने पकाती हैं। यक़ीन मानिये आपको जीते-जी जन्नत नसीब हो रई है खाने के बहाने…
बस कल से अच्छे मियां सोच रए हैं कि बहुत हुआ, अब तो बेगम के खाने की तारीफ़ कर ही दी जाए। आख़िर जिस चीज़ के लिए उनका घर दूर-दूर तक मशहूर है, जिस वजह से लोग उनके दरवाज़े पर बहाने-बहाने से आते हैं, जिस कारण उनके घर पे रौनकें जमी रहती हैं, उसका शुकराना तो बनता ही है। रोज़-रोज़ न भी कह पाएं तो दो-चार बार तो बेगम के खान की कुछ तारीफ़ कर ही सकते हैं। और जो इससे बेगम के चेहरे पर खुशी चमकेगी, उसका ख़याल ही अच्छे मियां को लट्टू बना रहा है…
मोहल्ले भर में घूम-घामकर, दोस्तों से बतियाकर, बड़े बाज़ार का एक चक्कर लगाकर घर पहुंचे अच्छे मियां। बेगम ने खाना परोस दिया है, आज थाली में लौकी है चने दाल वाली। अच्छे मियां भी पूरी तैयारी से बैठे हैं…मुंह में पहला कौर डाला और बीवी की ओर देखा, नज़रें मिली तो पूरी ताक़त जुटाकर बोल उट्ठे- “सच कहता हूं बेगम, ये जो तुमने दाल-लौकी बनाई है न आज, ये गोश्त को भी मात दे रही है। जो कोई आंख बंद कर खाए तो पता ही न चले कि लौकी सरीखी जाहिल सब्ज़ी खा रहा है..लग रहा है जैसे जन्नत का स्वाद है इसमें..कहां है वो हाथ जिन्होनें लौकी को ये तक़दीर बख़्शी..लाओ ज़रा उन हाथों को चूम लूं”, और अच्छे मियां ने बेगम की नज़रों में दोबारा झांका, इस उम्मीद में कि अब तो पक्का वहां मुहब्बत के लाल डोरे दिक्खेंगे, लेकिन ये क्या..बेगम की आंखें तो गुस्से से लाल हुई पड़ी हैं। ये आंखें, ये चेहरा ख़ूब पहचानते हैं अच्छे मियां..बस लग रहा है कि कोई बम फटने ही वाला है, अच्छे मियां शहीद होने ही वाले हैं, लेकिन माजरा समझ नहीं आ रहा। जिस तारीफ़ के लिये बेगम सालों से तरसती रहीं, उसे सुनके आज मिज़ाज इतना बिगड़ क्यूं है…
बहुत हिम्मत जुटाकर अच्छे मियां ने पूछा- क्या हुआ बेगम…बेगम ने आग नज़रों से देखा और फट पड़ी “हाथ चूमना है न तुम्हें..रूको बुलाती हूं बिन्नी चाची को..ज़िंदगी गुज़र गई तुम्हारे लिए पकाते-पकाते, मरदूद कभी एक लफ़्ज़ न फूटा मुंह से..मेरे कान तरस गए तारीफ़ सुनने को, लेकिन तुम्हारे मुंह में तो ताले जड़े रहे..और आज जो बिन्नी चाची ने ये दाल-लौकी भिजवाई अपने घर से बनाकर तो ये लौकी तुम्हें जन्नत की सैर करा रही है ”…
अच्छे मियां को अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा है..उनके हाथ में कौर है लेकिन हाथ मुंह तक न जा रहा, आंखे ऊपर नहीं उठ रही, ज़बान कांप रही है, दिल दहल चुका है और होश फ़ाख्ता हैं। ये दाल-लौकी नहीं है..ये उनकी शामत है, वो तारीफ़ नहीं थी..उनकी फूटी तक़दीर थी…
अच्छे मियां अकेले बैठे हैं रसोई में, कभी वो दाल-लौकी को, कभी दाल-लौकी उनको देखती है….
श्रुति कुशवाहा जानी मानी लेखिका है