पंकज शुक्ला
राजनीति में उम्र की सीमा को लेकर भाजपा एक बार फिर चर्चा में है। पहले 70 साल से अधिक उम्र के दो मंत्रियों से त्यागपत्र लेकर पार्टी सुर्खियों में रही थी अब संगठन चुनाव में 35 वर्ष से अधिक उम्र के नेता के मंडल अध्यक्ष बनने को लेकर पाबंदी ध्यान खींच रही है। टिकट वितरण से लेकर पदों की प्राप्ति तक जोड़-तोड़ राजनीति के औजार हैं मगर भाजपा अब अपने मठाधीश बन गए नेताओं की किलेबंदी को तोड़ना चाहती है। बड़े नेताओं की अनुशंसा पर पद मिलने की व्यवस्था संगठन को ताकतवर नहीं रहने देती है। स्थापित नेताओं के परिवारवाद, छाया नेतृत्व और पिछलग्गू समर्थकों की भीड़ भाजपा के चिंता का सबब बन गया है। प्रदेश भाजपा में भीतर ही भीतर खदबदा रहा कार्यकर्ताओं का गुस्सा क्या इस एक नियम से शांत होगा? इस प्रश्न का उत्तर ही प्रदेश की राजनीति की दिशा तय करने वाला है।
मप्र भाजपा को पार्टी में देश का सर्वश्रेष्ठ संगठन कहा जाता है। इस बार भी अपनी छवि के अनुरूप संगठन चुनाव में 59 हजार बूथ कमेटियों के चुनाव करवा कर प्रदेश भाजपा ने देश में पहला स्थान हासिल किया है। इसके लिए संगठन को शाबाशी भी मिली है। संगठन की ये खूबियां सतह पर जरूर दिखाई दे रही है मगर भीतर झांकने पर ढोल में पोल दिखाई देती है। सत्ता में रहने के बाद भी जिस पार्टी के कार्यकर्ता मैदान में दिखने से गुरेज नहीं करते थे, वे इनदिनों पार्टी की गतिविधियों से दूरी बना रहे हैं। पार्टी नेतृत्व के स्तर पर भी कई गुटों में बँटी दिखाई देती है। बड़े नेताओं में तालमेल का अभाव साफ पढ़ा जा सकता है। एक ही समस्या पर अलग-अलग आंदोलन, बयानों में विरोधाभास जैसे बीसियों उदाहरण हैं। टिकट वितरण तथा युवा मोर्चा की एक समिति में नेता पुत्रों को मिली तवज्जो से नीचे तक नकारात्मक संदेश पहुंचा और कार्यकर्ता निष्क्रिय होते गए।
बीते 15 सालों के दौरान विधायक चुने जाने के बाद सत्ता का अंग हुए नेताओं ने संगठन को प्राथमिकता नहीं दी। मंत्री और विधायकों ने अपने क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज ही किया। विधायकों की सिफारिश पर संगठन में पद बांटे जाने के कारण कई स्थानों पर विधायक के गुट में शामिल न हुए समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी हुई। कांग्रेस को कमजोर करने के लिए दल बदलू नेताओं को तवज्जो मिलने से भी कार्यकर्ता निराश हुए। फिर बड़े नेताओं ने जब परिवारवाद और पट्ठावाद को पोषित किया तो मैदानी कार्यकर्ता नाराज होते गए। भाजपा भले ही विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अच्छे वोट पाने में कामयाब हुई लेकिन इस राजनीतिक जीत के कई अन्य कारक है। संगठन के स्तर पर तो उसे हानि ही हुई है।
ऐसे में ‘मठों’ को गिरा कर युवाओं को राजनीति से जोड़ने के लिए भाजपा हाईकमान ने तय किया है कि किसी भी सूरत में 35 साल से अधिक के नेताओं को मंडल अध्यक्ष की कमान न सौंपी जाए। मप्र में पार्टी यदि इस फैसले को शब्दश: लागू करती है तो संगठन में नए आयाम जुड़ पाएंगे। यदि 70 वर्ष वाले फार्मूले की तरह इसे भी अपनी राजनीति साधने का साधन बना कर दांव-पेंच आजमाए गए तो समर्पित कार्यकर्ता फिर झंडे ही उठाएंगे और मलाई किसी और के हिस्से में आएगी। भाजपा के भीतर का यही बदलाव प्रदेश में राजनीति के तौर तरीकों को तय करेगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है