- गुफ़्तगू…
कंचन झारखण्डे
ये जो कुछ दिनों से तुम
निर्बाध से रहते हो ना
बे-बोल बे-बेबाक से
चुप रहते हो ना…
लफ्ज़ तो खामोश थे ही
पर सच बताना तुम मूक से बैठे
मेरे आचरण से निस्तब्ध कुछ कहते हो ना
जब निकलती हैं सूरज की
अकस्मात किरणें और करती हैं,
उजागर सारा जहाँ…
उस वक़्त तुम प्रिये जो
ठहरते हो न
सच बताना तुम मूक से बैठे
मेरे आचरण से निस्तब्ध कुछ कहते हो ना
जब स्वतंत्र आकाशीय गगन में
मासूम से पक्षी झुण्ड में गुजरते हैं
तुम बालकनी में बैठे अखबार लिए
मन ही मन मुस्काते हो ना
सच बताना तुम मूक से बैठे
मेरे आचरण से निस्तब्ध कुछ कहते हो ना
ये जो कुछ दिनों से तुम
शरमाये से घूमते हो, बात-बात पर कर बहाना
इतराये से रहते हो
जानते हो कि मुझे इश्क हैं तुमसे
फिर भी मेरे अरमानों के प्रत्यक्ष
नासमझ से रहते हो ना
सच बताना तुम मूक से बैठे
मेरे आचरण से निस्तब्ध कुछ कहते हो ना