सुन रहे हैं अमित शाह… झारखंड के रास्ते पर जाता मध्यप्रदेश

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राघवेनदर

देश की राजनीति में एनआरसी और सीएए का खूब हल्ला हो रहा है। कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी के साथ भारत के नक्शे से एक एक कर राज्यों में सत्ता खो रही भाजपा ध्यान बांटने के लिए अब नेशनल पापुलेशन रजिस्ट्रर(एनपीआर) जनगणना के नाम पर एक और विवाद का मुद्दा उछाल रही है। समय के साथ देश इन तमाम मुद्दों का समाधान भी ढ़ूंढ़ लेगा लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं भाजपा की कमजोर कड़ी या कह सकते हैं उसकी दुखती रग को टटोलने की। मसला महाराष्ट्र और फिर झारखंड से भाजपा के सत्ता से बेआबरू होकर निकलने का है।

इसके पहले छत्तीसगढ,राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश से भी भाजपा हुकूमत से रुखसत हो चुकी है। बीजेपी और संघ परिवार में सिकुड़ती भाजपा को लेकर भले ही स्यापा हो रहा हो लेकिन लगता है सच में परवाह किसी को नहीं है। संघ का सूत्र वाक्य है संघम शक्ति कलयुगे अर्थात आसान शब्दों में कलयुग में संगठित रहना ही शक्ति है। भाजपा कहती है संगठन में ही शक्ति है। भाजपा के लिहाज से  मध्यप्रदेश संगठन में शक्ति के मुद्दे पर सबसे आदर्श उदाहरण है। लेकिन पन्द्रह सालों में भाजपा संगठन का यहां बैंड बाजा जुलूस निकल चुका है।

प्रदेश भाजपा संगठन में अध्यक्ष का चुनाव होना है
इसके पूर्व फ्लेशबैक में जाएं तो नजर आएगा 19 अप्रैल 2018 इस दिन निर्वाचित अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की जगह राकेश सिंह की ताजपोशी की गई। इसके बाद मई 2018 में भोपाल के भेल दशहरा मैदान में एक सभा को ही प्रदेश भाजपा कार्यसमिति मान लिया गया। इस मौके पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी मौजूद थे। हैरत की बात ये है कि इसके बाद कब प्रदेश कार्यसमिति की बैठक हुई यह किसी को याद नहीं है। एक पदाधिकारी ने ऐसा कहकर हमारी बात की पुष्टि भी की है। चौकाने वाला मुद्दा ये है कि कार्यसमिति की बैठक के बिना विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव भी हो गए। आमतौर से बैठक का मकसद पूर्व की कार्यसमिति में लिए गए निर्णयों की रिपोर्टिंग होती है और फिर आगामी कार्यक्रमों पर चर्चा के बाद उन्हें मंजूरी दी जाती है। जब बैठकें होंगी नहीं तो समीक्षा नहीं,भविष्य की कार्ययोजना नहीं,सामूहिक संवाद नहीं तो फिर अच्छे परिणामों की अपेक्षा भी नहीं। सब के सब आत्ममुग्ध किसी को किसी से कोई मतलब नहीं।

कुलमिलाकर हर लीडर वन मैन आर्मी की तरह ईवेंट मैनेजरों को लेकर काम कर रहा है। परिणाम मध्यप्रदेश से लेकर झारखंड तक एक जैसे हैं। मोदी के नाम पर केन्द्र में सरकार बन गई बस अब क्या चाहिए ? तीन दिन पहले 26 दिसंबर की एक घटना याद आ रही है प्रदेश कार्यालय में एनआरसी और सीएए को लेकर विधायक सांसदों जिला अध्यक्षों और मोर्चा पदाधिकारियों की एक बैठक रखी गई थी। तय समय के डेढ़ घंटे बाद भी जब आमंत्रित माननीय अतिथिगण नहीं आए तो फोन पर सूचना देकर जल्दी में हाल भरने के लिए लोगों को बुलाया गया। भाजपा में पहले ऐसा होता था याद नहीं आ रहा। मगर अब लगता है यह सब होने लगा है। इस बैठक में प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे से लेकर केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह,संगठन महामंत्री सुहास भगत मौजूद थे। जब पदाधिकारी ही बैठकों में नहीं आएंगे तो पार्टी के संदेश जनता के बीच कौन लेकर जाएगा ? एक तरफ अमित शाह मीडिया से बात कर सरकार का पक्ष जनता तक पहुंचा रहे हैं इस काम में पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर शिवराज सिंह चौहान को भी कुछ राज्यों में भेज रही है। मगर मामला मध्यप्रदेश का है यहां तो सारे प्रयास ढांक के तीन पांत साबित हो रहे हैं। संगठन में शक्ति का नारा यहां बेअसर दिख रहा है। नया इंडिया सरकार और संगठन की खामियों को मौके मौके पर उजागर भी करता रहा है। लापरवाही की वजह से बीजेपी प्रदेश में सत्ता के दरवाजे पर आकर ठिठक गई है। मजे की बात ये है कि अभी भी नेताओं के रथ जमीन पर नहीं टिक पा रहे हैं।

इसमें खास ये है कि अमित शाह जैसे संगठन के जानकार भी यहां की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। झारखंड में गैर आदिवासी और हरियाणा में गैर जाट और महाराष्ट्र में गैर मराठा मुख्यमंत्रियों का प्रयोग बुरी तरह असफल रहा। खासबात ये है कि मध्यप्रदेश समेत जिन राज्यों में पराजित मिली वहां आंख कान बने प्रभारियों ने भी हाईकमान को सच नहीं बताया। और धारणा ये है कि बताया भी तो अहंकार के चलते उसे नजरअंदाज कर दिया गया। अटलजी की कविता की दो लाईनें यहां के नेताओं पर फिट बैठती हैं- छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता और टूटे तन से कोई खड़ा नहीं होता। नेता छोटे हैं और कुर्सियां बड़ीं। वे कद बढ़ाने के बजाए दूसरों के पैर काट अपने पैरों में जोड़कर बड़े बन रहे हैं। कुलमिलाकर राज्यों में अभी भी हालात अच्छे नहीं हैं।

हनी के शौकीनों को बचा रही है सरकार…
प्रदेश में अय्याशियों के मामले में लगता है सरकार हनी के शौकीनों पर मेहरबान है। खासतौर से भाजपा सरकार में फले फूले इस गोरख धंधे के पूर्व मंत्री विधायक सांसदों का नाम पुलिस की फेहरिस्त में नहीं आया। कमलनाथ सरकार के दो मंत्रियों से जुड़े ओएसडी जरूर बेनकाब हुए हैं। लेकिन दलाल पत्रकारिता से जुड़े केवल दो ही नाम उजागर हुए हैं। महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि यह काला कारोबार भाजपा सरकार के कार्यकाल में परवान चढ़ा था। तब पत्रकारिता की जगह दलाली करने वाले मंत्री और अफसरों के मूंछ और पूंछ के बाल बने हुए थे। कांग्रेस सरकार में ऐसे सिर्फ दो तीन नाम ही सामने आए हैं। जबकि हनी में लिपटे डेढ़ सौ लोगों की चार हजार से ज्यादा रिकार्डिंग पुलिस के पास होने की बात की जा रही है। उसमें से मात्र कुछ लोगों के नाम सामने आने पर सरकार और जांच ऐजेंसी की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकार कांग्रेस की बचाए जा रहे हैं भाजपा के सफेदपोश और दलाली करने वाले मीडिया वाले। लोगों को प्रतीक्षा है दूध का दूध और पानी का पानी होने की। इस मामले में कमलनाथ सरकार की प्रतिष्ठा दांव पर है।
लेखक IND24 के प्रबंध संपादक हैं