पंकज शुक्ला
मप्र के प्रशासनिक जगत में बीते हफ्ते वरिष्ठ आईएएस विवेक अग्रवाल और उनसे जूनियर आईएएस स्वाति मीणा नायक का विवाद चर्चा में रहा। नगरीय प्रशासन और विकास विभाग के प्रमुख सचिव अग्रवाल 1994 बैच के आईएएस हैं और मुख्यमंत्री सचिवालय में भी पदस्थ हैं। उनके विभाग के अंतर्गत आने वाले नगर तथा ग्राम निवेश की संचालक स्वाति मीणा नायक 2007 बैच की आईएएस है और उनसे काफी जूनियर है। दोनों अधिकारियों के बीच काम करने के तरीके को लेकर विवाद हुआ और विवाद के कुछ ही घंटों बाद मीणा के आग्रह पर मुख्य सचिव ने उनका तबादला कर दिया।
IAS Vivek Agarwal and Swati Meena Dispute: The question of the purity of the means and means
अग्रवाल को शिकायत है कि मीणा के दफ्तर में फाइलें बहुत अटकती थी जबकि मीणा का कहना है कि वे नियमानुसार काम कर रही थीं। असल में, यह दो आईएएस के बीच हुआ यह विवाद उस चावल की तरह है जिसे देख हांडी के पूरे भात का आकलन किया जा सकता है। गुटबाजी, क्षेत्रवाद, बौद्धिक ठसक जैसे तमाम वर्गीकरण के समानांतर पूरी ब्यूरोक्रेसी काम करने के अंदाज के कारण भी दो भागों में बंटी है। एक वर्ग वह जो हर हाल में रिजल्ट लाना चाहता है और दूसरा वह जो साध्य के साथ साधन की पवित्रता पर भी ध्यान देता है। यह विवाद ऐसे ही विभाजन की बानगी है।
मप्र में शिवराज सरकार चुनाव मोड में आ चुकी है। इस वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनाव होना है 2003 से मप्र में सत्ता में काबिज भाजपा को जनता के बीच परिणामों के साथ जाना है। मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को 13 सालों से प्रदेश मुखिया हैं और उनका मुकाबला अपने ही कामों से है। वे जब जनता के बीच जाएंगे तो 15 साल पुरानी कांग्रेस सरकार को कोसने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें अपनी उपलब्धियों से ही सहारा मिलेगा। यही कारण है कि स्वयं चौहान और उनकी विश्वस्त टीम हर लक्ष्य को तेजी से पूरा करने में जुटी है। वरिष्ठ आईएएस अग्रवाल मुख्यमंत्री की कोर टीम का हिस्सा हैं। वे स्वयं को मिले हर लक्ष्य को पूरा करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी काम करने की एक रफ्तार है, जिसके साथ कई कर्मचारी—अधिकारी तालमेल नहीं बैठा पाते।
अग्रवाल की तरह मुख्यमंत्री की कोर टीम के अन्य अधिकारी भी इस तनाव में हैं कि कैसे मुख्यमंत्री की घोषणाओं को पूरा किया जाए तथा यह संदेश दिया जाए कि मप्र का वास्तविक विकास शिवराज सरकार के दौरान ही हुआ है। ये अधिकारी अधूरे कामों को तेजी से पूरा करवाने में जुटे हुए हैं ताकि चुनाव प्रचार के दौरान सरकार की उपलब्धियों की सूची काफी बड़ी हो। इन अधिकारियों को अपने दिए निर्देश तथा काम में जरा दखल या आनाकानी नागवार गुजरती। फिर भले यह देरी नियमों की अड़चनों के कारण हो या वैधानिक बाध्यता के कारण।
वरिष्ठों को इंकार सुनना अच्छा नहीं लगता। मीणा तो सीधी भर्ती की आईएएस और अपनी बात पूरी ताकत से रख सकती हैं मगर प्रमोटी अफसरों तथा अधीनस्थ स्टॉफ के संकट की कल्पना की जा सकती है जो साध्य के साथ साधनों की पवित्रता के भी पक्षधर हैं। इनके लिए अपने वरिष्ठ के निर्देश को न मानना गुस्ताखी मानी जाती है और कई बार आदेश का पालन करने का अर्थ होता है नियमों से हटना। नियमों पर अडिग रहें या अधिकारी के निर्देश को मानें, नीचे से लेकर ऊपर तक समूची ब्यूरोक्रेसी इसी धर्मसंकट में बंटी हुई है।
परिणाम ही सबकुछ है, विचार को मानने वाला धड़ा अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए नियमों को अपने अनुसार बनाता, समझता, तोड़ता और परिभाषित करता है। यह वह वर्ग है जो मानता है कि नियम कार्य करने के लिए बनाए जाते हैं, कार्य रोकने के लिए नहीं लेकिन इस छूट में साधनों की पवित्रता अकसर दांव पर लगती है। व्यवस्था बिगड़ती है। तंत्र भ्रष्ट होता है और यह संदेश जाता है कि बलवान के सारे काम बिना बाधा होंगे। लक्ष्य पूरा करने की तेजी में अगर ऐसा संदेश जाता है तो यह बहुत खतरनाक संदेश है।