भाजपा, कांग्रेस और सरकार सब एक नाव पर सवार…

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राघवेन्द्र सिंह

मध्य प्रदेश का सियासी सीन सर्दी के मौसम की तरह हो गया है। यहां लगता है क्या भाजपा क्या कांग्रेस क्या सरकार सब के फैसले  सियासत की रजाई में दुबके हुए हैं। मध्य प्रदेश भाजपा अपने इतिहास के सबसे उदासीन दौर में गुजर रही है। कह सकते हैं संगठन के लिहाज से सबसे घटिया दौर में। कल 20 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना है लेकिन प्रदेश भाजपा आजतक अपना अध्यक्ष तय नहीं कर पाई।
भाजपा के इतिहास में मध्यप्रदेश में ऐसा पहली बार हो रहा है। हो सकता है भाजपा हाईकमान के लिए प्रदेश का कमजोर संगठन फायदे का सौदा हो लेकिन आने वाले कल में राज्य का संगठन कहीं पार्टी के लिए बोझ ना हो जाए यह आशंकाएं भी यहां खूब चर्चाओं में है। एक दूसरे का कद छोटा करने के चक्कर में यहां पार्टी ही छोटी होती जा रही है। कहीं शिवराज सिंह चौहान लीडर ना बने रहे इसके लिए दूसरा खेमा ताकत लगा रहा है तो कहीं वर्तमान अध्यक्ष राकेश सिंह रिपीट ना हो जाए इसके लिए उनके विरोधी सत्तू बांधकर सक्रिय हैं। कुल मिलाकर प्रदेश भाजपा शिवराज सिंह से लेकर कैलाश विजयवर्गीय प्रह्लाद पटेल, भूपेंद्र सिंह, नरोत्तम मिश्रा, गोपाल भार्गव अरविन्द भदोरिया, विष्णुदत्त शर्मा किसी इर्द-गिर्द घूम रही है।
17 जनवरी को भोपाल में अफवाह फैली कि पार्टी पदाधिकारी और नेतृत्व नए प्रदेश अध्यक्ष के बारे में आम सहमति बनाएगा हालांकि दिसंबर में ही इस पर फैसला हो जाना था मगर ऐसा हो न सका रस्म अदायगी के लिए प्रदेश के 56 संगठनात्मक जिलों में से आधे के चुनाव इसलिए संपन्न करा लिए गए ताकि प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का रास्ता साफ हो सके तकनीकी रूप से तो ऐसा हो गया लेकिन योग्यता और संबंधों के मामले में संगठन के नेता पिछड़ गए शिवराज सिंह से लेकर कैलाश विजयवर्गीय प्रहलाद पटेल जैसे दिग्गज नेताओं के बीच आम सहमति नहीं बनी संगठन मंत्रियों से लेकर दिल्ली दरबार तक की कोशिश सफल नहीं हुई नतीजा सामने है कल राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुना हो जाएगा और उसके बाद हाईकमान प्रदेश अध्यक्ष के बारे में फैसला करेगा। इसका मतलब अब अगला अध्यक्ष राज्य के कार्यकर्ता और नेताओं की मंशा का नहीं  बल्कि हाईकमान का पसंदीदा चेहरा होगा। नेता चयन के मामले में मुद्दा चाहे मुख्यमंत्री का चयन का हो या प्रदेश मैं पार्टी के मुखिया का हाईकमान का फैसला जनता और कार्यकर्ताओं से जुड़ा नहीं आया है अभी तक का अनुभव तो यही बताता है ।
इस मामले में हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और झारखंड में जिन नेताओं को आलाकमान ने मुख्यमंत्री का ताज पहनाया वे पार्टी के लिए सुविधा कम मुसीबत ज्यादा साबित हुए झारखंड में तो मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष तक अपने क्षेत्र में चुनाव हार गए इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है। रहा सवाल मध्यप्रदेश का तो यहां पार्टी में अभी थोड़ा दम बाकी है। एक दो बार और जनता और कार्यकर्ताओं से दूर हटकर फैसले हुए तो यहां भाजपा संगठन की दुर्गति होना तय है हालांकि पुराने भाजपा नेता तो मानते हैं इस संगठन की तो वैसे भी यहां बैंड बज चुकी है।
 प्रदेश भाजपा में संगठन की सक्रियता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं और यह और कोई नहीं बल्कि पार्टी के जिम्मेदार नेता कर रहे हैं पिछले दिनों एक बैठक में पार्टी की सक्रियता पर सवाल किए गए सफाई में अध्यक्ष ने कहा कि हम हर महीने 15 कार्यक्रम कर रहे हैं लेकिन इसके पहले पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से लेकर नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने संगठन को जनता के बीच में सक्रिय करने के संकेत दिए इसके समर्थन में हर नेता ने अपने अनुभव भी बैठक में शेयर किए इससे साबित होता है कि राज्य के जिम्मेदार नेता मानते हैं किस संगठन कार्यकर्ता और जनता के बीच ना तो सक्रिय है और ना ही असरदार। चूंकि प्रदेश अध्यक्ष का चयन अब केंद्रीय नेतृत्व के हाथ में है और अब उसने वर्तमान नेताओं को दोहराने की प्रक्रिया अपनाई तो राज्य इकाई में इसके अच्छे संकेत नहीं मिलेंगे। दूसरी तरफ प्रदेश अध्यक्ष के पद पर राकेश सिंह अपनी ताजपोशी के प्रति आश्वस्त हैं हालांकि इस मामले में हाईकमान के दूत बनकर आए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा सामंजस्य और समन्वय की जो की गई थी वे कामयाब होती नजर नहीं आई।
दूसरी तरफ कांग्रेस में भी पिछले 1 साल से प्रदेश अध्यक्ष की ताजपोशी का इंतजार है असल में मुख्यमंत्री कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व भी सीएम बनने के बाद निभा रहे हैं। नाथ पर दोहरी जिम्मेदारी है। ऐसा करने से सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन लंबे समय तक अनिश्चितता होने से संगठन लकवा ग्रस्त हो जाता है कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस करते हैं संगठन द्वारा जनता के कामों की सिफारिश नजरअंदाज होने लगती है और ऐसे में सत्ता में बैठे नेताओं को भले ही कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन जनता के बीच काम करने वाले नेतागण डिप्रेशन का शिकार होने लगते हैं कांग्रेस के नेता एक तरह से अवसाद में जा रहे हैं पार्टी कार्यालय सिर्फ बड़े नेताओं की जन्मतिथि और दिवंगत नेताओं की पुण्यतिथि मनाने का केंद्र बन रहे हैं पीस में चर्चा थी कि ज्योतिराज  सिंधिया को  प्रदेश कांग्रेस की कमान मिल सकती है  मगर  पार्टी के जानकार इसे  दूर की कौड़ी बताते हैं  प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में  दिग्विजय सिंह से लेकर  सुरेश पचौरी  कांतिलाल भूरिया  और अरुण यादव के नाम  सूची में भले ही ना हो  लेकिन  इनके सामने  कोई नया नाम आया भी तो वह  बड़े नेताओं को  सलाम बजाने से ज्यादा  कुछ नहीं कर पाएगा।
प्रशासन में भी बदलाव की बहुत बातें हो रही है लेकिन अच्छा परफॉर्मेंस नहीं देने वाले अफसरों पर कार्यवाही नहीं की गई तो सरकार की धमक कमजोर होगी। हालांकि मुख्यमंत्री कमलनाथ ब्यूरोक्रेसी में बहुत खामोशी के साथ अपनी पकड़ बनाने में लगे हैं उम्मीद करते हैं आने वाले दिनों में कमलनाथ की कोशिश है असर करती हूं नजर आएंगे। फिलहाल तो जो सीन है वह सर्दी के मौसम में जैसे लोग रजाई में दूर जाते हैं ऐसे ही राजनेताओं के फैसले भी लगता है सर्दी कम होने पर ही बाहर निकलेंगे अभी तो फैसले गरम लिहाफों में आराम फरमा रहे हैं…
लेखक IND24 के प्रबंध संपादक हैं