प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बजट भी मुसीबतों से जूझ रहे मध्यम वर्ग के जख्मों पर मल्हम नहीं लगा पाया। ठेठ भाषा में कहें तो मरते मध्यम वर्ग के मुंह में पानी डालने जैसी बात भी नहीं हुई। हालांकि सरकारें बनाने का काम और सामाजिक सरोकार निभाने का काम सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग ही करता आया है। मगर पिछले 5 सालों में उसे राहत मिलती नजर नहीं आई। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट को लेकर चाहे जो बातें चल रही हैं, उन सब में एक बात साफ है कि मध्यम वर्ग के आंसू पोंछने के प्रावधान नजर नहीं आए। मध्यम वर्ग के लिए बजट न तो निर्मल है न उसमें सीता जैसा मातृत्व है और न ही अर्थव्यवस्था में रमने जैसा कुछ है। कुल मिलाकर मध्यम वर्ग दो पाटन के बीच में फंसा हुआ है। रोजीरोटी और इज्जत बनाए रखने की कोशिश में वह सेंडविच बन रहा है।
आंकड़ों की बाजीगिरी में उलझने की बजाए मोदी सरकार का पहला बजट भाषण और उसमें तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली की एक लाइन को याद करना पड़ेगा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘देश का मध्यम वर्ग याने मिडिल क्लास सरकार के भरोसे नहीं रहे’ की बात कही थी। हमने पहले भी इसका जिक्र किया था और यह भी याद दिलाया था कि जेटली जी ने अपने पूरे कार्यकाल में मध्यम वर्ग को सरकार के बजाए भगवान के भरोसे ही रखा था। हालांकि तब भी बेचारे मिडिल क्लास को ये उम्मीद थी कि जेटली जी ने कुछ भी कहा हो, सरकार तो उनका भी ध्यान रखेगी। लेकिन जेटली जी के बजट में ऐसा नहीं लगा कि मध्यम वर्ग के मुस्कुराने का कोई प्रावधान जोर-शोर से किया गया हो। कल भी मेडम सीतारमण के सबसे लंबे ऐतिहासिक बजट भाषण में मिडिल क्लास अपने कल्याण की घोषणाएं खोजता ही रह गया। भारत कृषि प्रधान देश है और बजट में किसानों के भी बहुत खुश होने जैसी घोषणाएं नहीं दिखीं।
जब देश का मध्यम वर्ग और किसान दुखी रहेगा तो विलायती ज्ञान वाली सरकारों को कौन समझाए कि देश खिलखिलाना तो छोड़िए मुस्कुरा भी नहीं पाएगा। कॉरपोरेट सेक्टर से लेकर ऑटो मोबाइल, बैंकिंग और बीमा के क्षेत्र में भी खुशहाली अगर आई भी तो उसमें सरकार और बजट की भूिमका कम कृषि उपज और बाजार में किसानों के रुपयों से रौनक आएगी। बहुत मामूली सी समझ है कि अगर किसान की जेब में पैसा आएगा तो सराफा बाजार, ऑटो मोबाइल में दुपहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री बढ़ेगी। रयल स्टेट में भी उछाल आएगा। गांव के आसपास के कस्बे और शहरों में किसान अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल-कॉलेजों में दाखिला दिलाएगा और रहने के लिए प्लॉट-मकान भी खरीदेगा। मगर यह मामूली सी समझ विदेशों से ज्ञान लेकर बजट बनाने वाले हुकमरानों और उनकी टीम में नहीं दिखती। मैराथन बजट भाषण में शायद ही एकाध अवसर आया हो, जब देश ने खुशी का इजहार किया हो।
किसानों के लिए कुल मिलाकर 2 लाख 83 हजार करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसमें करीब पौने दो लाख करोड़ ग्रामीण क्षेत्र में खेती के लिए दिया गया है। यह राशि पिछले बजट से करीब एक करोड़ रुपए कम ही बैठती है। किसान नेता केदारशंकर सिरोही का कहना है कि मोदी सरकार किसानों को मारकर कॉरपोरेट जगत को पनपाना चाहती है। लेकिन ऐसा संभव नहीं होगा। क्योंकि जब किसान मरेगा तो उद्योगपति कैसे जी पाएगा। सिरोही सरकार की समझ को किसान विरोधी बताते हैं। उनका कहना है िक किसानों की अब सारी उम्मीदें राज्य सरकार के बजट पर टिक गई है। बहुत तल्खी में उनकी टिप्पणी है िक मोदी सरकार को किसानों की हत्यारी सरकार कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बजट को लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बहुत निराशा है। मध्यम वर्ग का फोकस सबसे ज्यादा बच्चों की पढ़ाई पर होता है। ऐसे में सरकारी स्कूलों की संख्या और गुणवत्ता पर बजट में कुछ नहीं कहा गया है। उच्च शिक्षा में भी कॉलेज और विश्वविद्यालय को लेकर कोई उम्मीद जगाने वाला रोडमेप नहीं है। निजी क्षेत्रों में निर्भरता बढ़ रही है। सबको पता है कि शिक्षा में प्रायवेट सेक्टर पढ़ाने का कम, धंधे का काम ज्यादा करता है। सेंट्रल स्कूल और नवोदय विद्यालय की तादाद कितनी बढ़ेगी बजट में साफ नहीं है। उच्च शिक्षा में रिसर्च के लिए भी कोई प्रावधान नजर नहीं आए। कुल मिलाकर मध्यम वर्ग के दिन अभी और बुरे आने वाले हैं। अच्छे दिन आएंगे का जुमला अब बीते दिनों की बात हो गई है।
मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में जो सबसे ज्यादा चौंकाने वाले काम किए उनमें धारा 370 हटाना, 3 तलाक का प्रावधान खत्म करना और सीएए को लागू करना प्रमुख है। इन कामों की आड़ में बजट के खोखलेपन से जो अपयश उसके खाते में जाएगा वो आने वाले दिनों में देश पर भारी पड़ सकता है। पूरे बजट में इंफास्ट्रेक्चर के लिए जो सौ लाख करोड़ का प्रावधान किया है इसमें ही सबसे ज्यादा विकास का ग्राफ टिका हुआ है। सरकार के शुभचिंतक जरूर यह कह सकते हैं कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भले ही मध्यम वर्ग के लिए कुछ नहीं दिख रहा हो, हो सकता है तीसरे-चौथे बजट में मध्यम वर्ग के साथ युवाओं को रोजगार के लिए भी कोई बंपर स्कीम लॉन्च हो लेकिन अभी तो किसानों, आम आदमी, युवा, महिला और बहुत हद तक फौजियों के लिए भी कुछ खास नहीं है। रक्षा बजट के लिए क्या प्रावधान हैं, यह भी साफ नहीं हो पाया है। आयकर में रियायत देने की एक ऐसा पहेली पेश की है जिसमें लोग समझ ही नहीं पा रहे कि इसे छूट मानें या जुबानी जमा खर्च।
कुल मिलाकर बजट को समझने के लए आम आदमी से लेकर विशेषज्ञ भी शीर्षासन करते दिख रहे हैं। आने वाले दिनों में इसका असर ही बताएगा कि विकास दर कितनी बढ़ रही है। लोगों में खुशहाली कितनी घट रही है। नौकरियों की संख्या अभी और कितनी घटेगी। यह सब भविष्य के गर्भ में है। अभी तो दिल्ली विधानसभा का चुनाव सरकार की प्राथमिकता में है उसमें हिन्दू-मुसलमान हो रहा है पाकिस्तान भी बीच में आ गया है। जीवन बीमा में भी निजीकरण की बात कर एलआईसी को भी मजाक बना दिया है। लोग कह रहे हैं कि सबका बीमा करने वाली एलआईसी की बीमा कौन करेगा। इस पूरे खेल में समूचा विपक्ष सरकार की चाल में उलझकर रह गया है।