अथ श्री पीएचडी कथा…

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ब्रजेश राजपूत की ग्राउंड रिपोर्ट

मध्यप्रदेश की विधानसभा के मानसरोवर सभागार में दीक्षांत समारोह का मंच सजा था। उपराष्ट्रपति मुख्यमंत्री और कुलपति सरीखे गणमान्य लोग मंच पर मौजूद थे। पीएचडी की उपाधि पाये छात्रों को डिग्री बांटी जा रही थी। मंच पर बुलाये जाने से पहले छात्रों की कतार लगी थी जिसमें खडा मैं सोच रहा था ये तो कभी सोचा ही नहीं था कि टेलीविजन रिपोर्टिंग की इस भागदौड वाली नौकरी के साथ पीएचडी हो जायेगी और फिर इस तरह सम्मानीय लोगों की मौजूदगी में मंच पर बुलाकर डिग्री भी पा जायेंगे दरअसल ये सब कुछ इतना आसान तो नहीं था। वहां लोग डिग्री पाने के लिये मंच पर जा रहे थे मगर मेरा मन उल्टी दिशा में जाकर फ्लेशबेक देखने की जिद कर रहा था।
Athri Ph.D. story …
सागर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता स्नातक करने के बाद ही नौकरी की गाडी चल पडी थी। बेहतर ये था कि अपने पत्रकारिता के शिक्षक प्रोफेसर प्रदीप कृप्णात्रे से संपर्क बना हुआ था। उनका ही सुझाव था कि महोदय नौकरी के साथ पढाई लिखाई भी जारी रखो। क्यों ना आप पत्रकारिता में स्नातकोत्तर करो और बाद में रिसर्च भी। मगर मेरा तर्क था कि पत्रकारिता में पीजी का क्या फायदा। नौकरी के लिये पत्रकारिता स्नातक की डिग्री ली थी तो अब नौकरी मिल गयी है क्यों पढाई की जाये बेवजह। मगर प्रदीप सर इतनी आसानी से मानते नहीं थे तो उनकी जिद के कारण सागर विवि से ही एमजे भी कर लिया।

ये क्या सर फिर दबाव बनाने लगे महोदय अब पीएचडी भी कर ही डालिये क्योंकि आपका टैंपरामेंट एक अच्छे शोध विद्यार्थी वाला है यकीन मानिये आप कर लेगे पीएचडी भी। मगर टीवी रिपोर्टिंग की इस रोजमर्रा की मारामारी रिपोर्टिंग वाली नौकरी से इतर किसी भी दूसरी व्यस्तता में मैं नहीं उलझना चाहता था।

वैसे भी पचास साल पुरानी राग दरबारी का एक वाक्य मन में बहुत पहले से जमा हुआ था जिसमें रंगनाथ ट्रक वाले के जबाव में कहते है कि हम घास खोदते हैं। अंग्घारेजी में घास खोदने को ही रिसर्च करना कहते हैं। सो अपना मन इस घास खोदने का नहीं था। मगर प्रदीप सर का दबाव काम आया जो अक्सर कहते थे कि क्या आप जिंदगी भर रिपोर्टिंग ही करते रहोगे। आने वाले दिनों में कुछ और भी करियेगा। इसके लिये जरूरी है कि रिसर्च की जाये इसलिये संयोग से भोपाल में आफिस से चार कदम दूर माखनलाल चतुवेर्दी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में ही पीएचडी के रजिस्ट्रेशन के लिये आवेदन कर दिया।

रिसर्च का गाइड बनाया प्रदीप कृप्णात्रे सर को ही और विषय लिया वही जो उन दिनों बहुत चर्चा का कारण था कि न्यूज टेलीविजन चैनल भूत प्रेत क्यों दिखाते हैं। सोचा क्यों ना ही इस विवादित सवाल का हल तलाशा जाये कि लोग चैनलों में ज्योतिष, धर्म, अपराध, भूत प्रेत, फिल्म और सनसनी क्यों पसंद करते हैं। मगर सब कुछ इतना आसान नहीं होता। शुरूआत में कुछ व्यवस्थागत परेशानियां आयीं। एक दो बार शोध प्रस्ताव खारिज हुआ। कुछ संशोधन सुझाये गये। विश्वविद्यालय से खतो किताबत करते करते ही कुछ साल निकल गये। जब रिसर्च शुरू हुयी तो लगा कि ये रिसर्च का काम अपने बस का जरा भी नहीं है।

फील्ड में घूमने वाले हम रिपोर्टर कहां लाइब्रेरी में बैठें फिर विषय संबंधी किताबें तलाशे फिर उनको पढो नोटस बनाओ और फिर उसका निचोड लिखो। जिसे आपका गाइड जांचेगा उनमें संशोधन बतायेगा। बडा सवाल आता था अपनी भाषा को लेकर पत्रकारिता में आम फहम सीधा सरल लिखने की जो आदत इतने सालों में पडी थी वो छूटती ही नहीं। हमारे गाइड प्रदीप सर, को गाइड श्रीकांत सिंह सर और रिसर्च में मदद करने वाली मेरी बहन प्रो माधवी लता दुबे को मेरी सीधी सपाट भाषा बहुत खटकती थी। शोध लिखने की भाषा अलग होती है। लाइब्रेरी की झंझट से बचने के लिये ढेर सारी किताबें खरीद ली मगर उनको पढने का वक्त निकालना आसान ना था। किताब खोलकर बैठे हैं और किसी स्टिंगर का फोन आता है सर वाटसअप चैक कर लीजिये बडी खबर है।

और उसके बाद अक्सर किताब खुली ही रह जाती थी।दरअसल टेलीविजन की मारामारी आज अभी इसी वक्त की होती है इसलिये छोटी बडी खबर की तुरंत पडताल करो काम की है तो आगे बढाओ। इसके साथ ही टीवी में आपको खबर रोज ही करनी पडती है कल क्या करना है वो एक दिन पहले ही बताना होता है यानिकी टेलीविजन रोज व्यस्त रखता है आपको। ऐसे में रिसर्च लिखने के लिये समय निकालना उफ। मेरी परेशानी उन दिनों और बढ गयी जब रिसर्च जमा करने की डेडलाइन करीब आ गयी थी और उस प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव फैलने लगा था।

मुझे अपना शोध प्रबंध पिछले साल 19 जनवरी को जमा करना था और 12 जनवरी के आसपास बजरंग दल और विहिप ने शौर्य यात्राएं निकालीं जिनके बाद मालवा के छोटे छोटे गांवों में तनाव फैलने लगा। हमारा चैनल ऐेसे मौकों पर रिपोर्टर की उपस्थिति जरूरी समझता है ऐसे में रोज सोते समय मैं भगवान को मनाता था कि कल कहीं हिंसा ना भडके और मुझे भागना ना पडे मगर राम राम करके वो दिन भी गुजरे।

और जमा करने की आखिरी तारीख के आखिरी घंटे में मैंने अपना शोध प्रबंध विश्वविद्यालय में जमा भी कर दिया वो उन्नीस जनवरी का दिन था मेरा जन्मदिन था दिन भर बधाई शुभकामनाओं के फोन बजे और मैंने दफतर के अलावा एक फोन भी नहीं उठाया जब तक कि रिसर्च जमा नहीं कर दी। मगर पिक्चर अभी बाकी थी। शोध जमा करने के सात महीने बाद साक्षात्कार हुआ। जिसमें फिर कुछ उंच नीच हुयी और आखिर में दिवाली के धनतेरस के दिन मुझे विश्वविद्यालय से पीएचडी अवार्ड होने का मेल मिला तब जाकर मैंने गंगा नहायी। और ये क्या मेरा नाम पुकारा जा रहा है मंच से डिग्री लेने के लिये,,मैं जाता हूं

 

 

 

 

एबीपी न्यूज, भोपाल..