भय्यूजी महाराज: एक विशाल व्यक्तित्व!

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राजीव खण्डेलवाल

‘‘नाथ सम्प्रदाय’’ के परम पूज्य, गुरुजी श्री उदय सिंह देशमुख जो पूरे देश में भय्यूजी महाराज के नाम से प्रख्यात थे, की जयंती (प्रकट दिवस) 29 अप्रैल को आ रही है। निश्चित रूप से ऐसे अवसर पर उनके साथ बिताए कुछ महत्वपूर्ण अनुभव व सुनहरी यादें का दिलों दिमाग और आंखों में तरोताजा हो जाना स्वभाविक ही है।

मुझे याद आता है, मेरी उनसे पहली मुलाकात मेरे पारिवारिक पत्रकार मित्र श्री अनूप दुबौलिया ने 11 वर्ष पूर्व इंदौर में करवाई थी। पहली ही मुलाकात में उनके चेहरे के तेज और आंखों के आकर्षण ने मुझे उनकी ओर आकर्षित कर दिया था। यद्यपि इसके पूर्व मैं कई आध्यात्मिक गुरुओं, संतो, महंतो, महाराजाओं, पंडितों, कथा प्रवचकों व धार्मिक प्रकांड ज्ञाताओं से मिलता रहा हूं। लेकिन मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि, पहली बार मुझे अंदर से यदि किसी आध्यात्मिक संत ने खींचा और आकर्षित किया व अंदर तक प्रेरित किया तो वे भय्यूजी महाराज ही थे।

भैय्यूजी महाराज से मिलने के बाद और लगातार उनके जीवंत संपर्क में रहने से कुछ ऐसा महसूस होने लगा था कि यदि मुझे अपने जीवन में पूर्णता प्रदान करने के लिए किसी को गुरू बनाना ही है, तब इस कसौटी में मैंने भय्यूजी महाराज को ही अपने सबसे निकटतम पाया। उनका मुझ पर इतना आशीर्वाद व प्रेम था कि उन्होंने मुझे अपने ट्रस्ट में एक ट्रस्टी भी नियुक्त किया था।

आध्यात्मिक और सामाजिक क्षेत्र के श्रेष्ठतम गुरुओं को और संतों व श्रेष्ठियों को सुना है और उनसे चर्चा भी होती रही है। लेकिन मुझे इन सब से अलग भय्यूजी महाराज लगे, वह इसलिए कि उनकी संदेशों में, प्रवचनों में, बातों में आध्यात्मिक तत्व लिये हुए सामाजिक संदेश हमेशा रहता था। आध्यात्मिक गुरु सिर्फ आध्यात्म के बारे में बताते हैं, और सामाजिक श्रेष्ठि सामाजिक दृष्टिकोण से अपनी बात रखते हैं। यद्यपि उक्त दोनों तत्व समाज की सेवा ही करते हैं, लेकिन इन दोनों गूढ़ तत्वों का सर्वश्रेष्ठ संयोजन मैंने भय्यूजी महाराज में ही पाया।

उनकी सबसे बड़ी खूबी जो मैंने पाई कि वे मठाधीश समान कोई संत नहीं थे, जिनका बहुत बड़ा लंबा चैड़ा आश्रम हो। उनका कहना था ‘‘प्रत्येक घर एक आश्रम है‘‘। वे स्वयं के सम्मान के लिये एक माला (हार) की बजाए, एक पेड़ लगाकर उसे पूजने के लिये कहते थे। उन्होंने अपने मुख से कभी भी कोई दान की बात नहीं की। उनके शिष्य खासकर महाराष्ट्र व गुजरात से आने वाले, बिना मांगे लाखों रुपया सहायता राशि के रूप में दे जाते थे। एैसे सहयोग से सरकारों के साथ मिलकर संयुक्त योजना के रूप में (पी.पी.माड्ल़ द्वारा) वे विकास कार्य सम्पन्न करवाते थे।

विभिन्न सामाजिक सामूहिक उत्तरदायित्व को भी वे बखूबी निभाते थे। हजारों लोगों की शिक्षा, प्रौढ़शिक्षा, कन्या विवाह, बेटी बचाओं, हरित क्रांति पारधियों का व्यस्थापन, राष्ट्र के प्रति प्रेम सम्मान व उत्तरदायित्व की भावना का प्रसार आदि कार्यो का उन्होनें जिम्मा उठाया। इन सामाजिक व विकास कार्यो के बेहतरीन ढ़ंग सेे पारर्दशिता के साथ क्रियान्वन के लिये उन्होंने सदगुरू धार्मिक एवं परमार्थिक ट्रस्ट की स्थापना की थी। ट्रस्ट के अधीन 23 विभाग थे एवं लगभग 80 योजनाएॅं चलती है।

शायद इसीलिए ही वे आध्यात्मिक कम राजनीतिक,सामाजिक संत ज्यादा माने जाते थे। देश के प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक, ख्कलाकारो, नेताओं चाहे वह किसी भी राजनैतिक विचारधारा के ही हो, के साथ उनके आत्मीय घनिष्ठ संबंध थे। इन्ही संबंध के रहते वे जनहित में अनेक कार्य योजनाएॅं और सुझाव उन नेताओं को देते थे, जिनके निष्पादित होने पर क्षेत्रीय जनता विकास की ओर अग्रेसित होती थी।

इस प्रकार इन आत्मीय संबंधों का उपयोग उन्होंने सैदव सिर्फ सामाजिक न्याय के लिये ही किया। सामाजिक सुधार के वे एक अग्रदूत थे। प्रबुद्ध शिक्षित बुद्धिजीवी वर्गों के बीच उनकी लोकप्रियता शायद इसी कारण से थी। उनको राष्ट्रीय प्रसिद्धि तब मिली, जब उनके द्वारा एक वर्ष पूर्व प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने की घोषणा की गई थी जो बाद में साकार होकर सत्य सिद्व हुई । महाराष्ट्र की राजनीति में उनका गहरा प्रभाव था ।

एक बात और जो भैय्यूजी महाराज को अन्य आध्यात्मिक गुरूओं से थोड़ा अलग करती है वह भैय्यूजी महाराज का व्यवहारिक दृष्टिकोण (एप्र्रोच)। शायद इसीलिए गुरूजी व्यवहारिक गुरू ज्यादा माने जाते थे, जिसका फायदा अंततः समाज को ही मिलता था। क्योंकि यह बात स्पष्ट है कि ज्ञान का भंडार तो असीमित हो सकता है, लेकिन यदि उसका धरातल में उपयोग नहीं हो पा रहा है तो, वह ज्ञान कोई काम का नहीं हैं। गुरूजी लोगों की स्वभाविक व्यवहारिक धरातल पर उतारने व काम करने की कठिनाई को जानते थे। कार्यशैली की यह विशेषता ही भैय्यूजी महाराज को उनके समकक्ष विद्वान, ज्ञानी आघ्यात्मिक व सामाजिक श्रेष्ठीयो के बीच एक अलग विशिष्ट स्थान बनाती है ।

पीछे मुड़कर पू. गुरूजी के पृथ्वी से अपने शरीर को अचानक छोड़कर जाने के दुखद क्षण का याद आना भी स्वाभाविक ही है। मुझे याद आता है, उनके स्वर्गवासी होने के लगभग 3 महीने पूर्व बैतूल में होने वाली मेरी किताब के विमोचन कार्यक्रम के लिए मैं उनसे मिला था और मैंने उनसे विमोचन कार्यक्रम मैं आने के लिए अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने स्वीकार किया था। इसमें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री सुश्री उमा श्री भारती एवं डॉ वेद प्रताप वैदिक भी आए थे। मुझे अभी भी वे क्षण याद है, जब उन्होंनेे गमछा बुलाकर मेरे गले में डाल कर सम्मानित कर मुझे अभीभूत कर दिया था।

उनके द्वारा स्वयं की जीवन लीला समाप्त करने पर कई प्रश्न उठे। लेकिन मैं मानता हूं उनका ‘‘व्यक्तित्व’’ व्यक्तिगत जीवन से कई गुना ऊँचा उठा हुआ था। अभी इस समय हम महाभारत, रामायण सीरियल देख रहे हैं, जिसमें भी महान व्यक्ति भीष्म पितामह, भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण ने भी ऐसे कुछ कार्य कथन किए थे, जो सामान्य जनों की नजर में गलत थे। वे उन महान व्यक्ति के कदमो को स्वीकार नही कर पा रहें थे, लेकिन इससे उन सबका व्यक्तित्व भी गलत हो गया था, ऐसा नहीं था। क्योंकि जिस कार्य को पूरा करने के लिए वे सब (भगवान सहित) पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, उनका अंजाम उन्होंने बखूबी किया था। इसलिए उनके कुछ समझ में न आने वाले कार्य उनके व्यक्तित्व को महान बनाने में आड़े नहीं आए।

ठीक इसी प्रकार भय्यूजी महाराज ने जिन उद्देश्यों के लिए अवतरण लिया था, उसका पूरी तरह से क्रियान्वयन किया। व्यक्तिगत मानवीय कमियां, उनके विशाल कर्म योगी व्यक्तित्व के कार्य करने में आड़े नहीं आई। इस शाश्वत सत्य को तो आपको मानना ही पड़ेगा कि ईश्वर के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति या भगवान भी जो मानव के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुऐ है, वह सम्पूर्ण नहीं हो सकता है, उसमें कुछ न कुछ गुण या दोष की कमी अवश्य होगी ही। अंत में पूज्य गुरु भय्यूजी महाराज की जयंती पर उन्हें सादर नमन ।