सत्ता की हवस में औंधे मुंह गिरती भाजपा, क्या ऐसे ही आएंगे अच्छे दिन..?

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राघवेंद्र सिंह

कहा जाता है भूख लगने पर खाना खाओ तो वह भोजन कहलाता है। ज्यादा खाओ तो अजीर्ण हो जाता है और जरूरत से ज्यादा खाने लगो, जरूरत से ज्यादा कमाने लगो, नैतिकता, परंपरा और नियमों को तोड़कर सत्ता हथियाने लगो तो वह हवस कहलाने लगती है। एक समय अटल बिहारी वाजपेयी ने जब 13 दिन की सरकार संसद में बहुमत के अभाव में इस्तीफा दे दिया था तब पूरा देश उनकी भावना के साथ जुड़कर भावुक हो गया था। इस्तीफा अटल जी ने दिया और देश को लगा उनके हाथ से सरकार छूट गई हो। कर्नाटक में यदुरप्पा ने जब अटल जी की तर्ज पर पहले भाषण दिया और फिर इस्तीफा देने की घोषणा की तब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सदन के सीधे प्रसारण पर कर्नाटक की जनता और देश उनकी भावना के साथ जुड़ नहीं पाया। इतना ही नहीं उनके मुख्यमंत्री बनने के मामले में खुद कर्नाटक भाजपा नेतृत्व भी सहमत नहीं था। मगर माइक्रो मैनेजमेंट के खलीफा अमित शाह की इच्छा थी सरकार बनाने की। सो बनी और बाद में बहुमत न जुगाडने के चलते सदन में औैंधेमुंह गिरी भी। यहां यदुरप्पा और अटल जी के किरदार में समानता ढूंढने वाले ऐसी ही भूल कर रहे हैैं। कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली।
Will BJP fall in the wind of power, will it come like good days ..?
मध्यप्रदेश के संदर्भ में भाजपा हाईकमान के कर्नाटक में विफल होने के असर को देखा जाए तो शायद अमित शाह अब आग खाने के बाद अखाड़े में अंगारे उगलने जैसे मिजाज से दूर रहेंगे। उनकी रणनीति है कांग्रेस की सीटाें पर कब्जा कराे चाहे उनके नेताअाें काे ताेड़कर पार्टी में लाअाे, जीत हर हाल में चाहिए। यहीं से सत्ता की भूख हवस में तब्दील हाेती दिखती है। उनको जानने वाले यह कहते हैैं कि चाहे बिहार, दिल्ली और उसके बाद उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के हटने और गोवा में भाजपा के हारने से जैसे कोई फर्क नहीं पड़ा था वैसे ही अब भी कुछ बदलने वाला नहीं है। उनका रथ जमीन से एक बित्ता ऊपर चल रहा है तो वह चलेगा ही। शाह ने साफ संकेत दे दिये हैैं कि विधानसभा चुनाव में उनका डेरा भोपाल में जमेगा और यहीं से छग व राजस्थान के चुनाव का भी संचालन होगा। साथ ही उन्होंने तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक तरह से खारिज करते हुए कहा कि अब यहां किसी के चेहरे पर नहीं संगठन को आगे रखकर चुनाव लड़ा जाएगा। छग और राजस्थान के मुख्यमंत्री के तुलना में शिवराज सिंह ज्यादा सज्जन और अनुशासित हैैं इसलिए हाईकमान उन्हें अपनी कड़क बॉडी लैग्वेज के तेवर दिखाकर दबाव में रखता है। प्रधानमंत्री की यात्राओं में स्वागत कर रहे शिवराज सिंह के साथ बिना मुस्कुराए रूखा चेहरा लिए जो बाडी लैग्वेज मोदी और अमित शाह की होती है वह ऐसा ही कुछ संदेश दे रही है। इसके विपरीत राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे उनकी मर्जी के खिलाफ प्रदेश अध्यक्ष हटाए जाने पर इस तरह अड़ी की कि नए अध्यक्ष की ताजपोशी एक महीने बाद तक नहीं हो पाई है।

नहीं तो ठंडे से ही नहा लूंगा…
हाईकमान के कठोर दिखने वाले रुख पर एक किस्सा याद आता है। एक युवक की शादी होती है और उसकी भौजाई समेत जीजा लोग उसे पत्नी को काबू में करने के लिए कई नुस्खे बताते हैैं। इसमें यह भी शामिल था कि पत्नी को बस डराते रहो। जैसे खाने गरम करो नहीं तो… इस पर पत्नी घबरा कर उन्हें खाना गर्म करके देती थी। ऐसे ही सर्दी के दिनों में पति कहता पानी गरम करो नहीं तो… इस पर पत्नी तुरत फुरत में पानी गर्म कर देती थी। परेशान पत्नी ने अपने मायके में ज्ञानी किस्म की बुआ मौसी से इस पर चर्चा की तो अनुभवी बुआओं ने बताया कि अब अगर दमाद साहब कहे पानी गरम कर दो नहीं तो की धमकी दें तो पूछ लेना क्या करोगे? उसने इस नुस्खे को अपनाया और पति की तरफ से बड़ा सहज उत्तर आया नहीं तो मैैं ठंडे से ही नहा लूंगा। हम यह नहीं कहते कि भाजपा हाईकमान भ्रष्ट, नाकाबिल और कागजी नेताओं को ठीक करने में कमजोर है। मगर भाजपा शासित राज्यों में भ्रष्ट और नाकाबिल नेताओं के सत्ता संगठन पर लंबे समय से काबिज रहने वालों के संबंध में क्या माना जाए? प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था मैैं न खाऊंगा न खाने दूंगा। किसी भ्रष्ट नेता को सत्ता और संगठन से मोदी- शाह की जोड़ी ने रुखसत नहीं किया है। अब तो लोग मजाक में कहने लगे हैैं नारा ऐसा होना चाहिए ‘मैैं खाऊंगा भी और खाने भी दूंगा’। चुनाव में अब यह देखना है कि प्रदेश संगठन और राज्य के नेताओं की टिकट वितरण में कितनी सिफारिश स्वीकार की जाती है। अभी तो यही संकेत हैैं कि टिकट शाह और उनकी टीम ही बांटेगी।

बस यही से शुरू होती भाजपा के जनता के बीच चढ़ाव से उतार की कहानी। जोड़-तोड़, मनमानी, खरीद फरोख्त, संवैधानिक संस्थाओं में गिरावट की जिन बातों के लिए कभी कांग्र्रेस को पानी पी- पी कर कोसा जाता था आज वही सब बातें भाजपा के लिए सत्ता में जाने की पगडंडी नहीं बल्कि हाईवे बन रही हैैं। सत्ता की हवस में वे भूल जाते हैैं कि इंदिरा जी और राजीव गांधी की इसीलिए आलोचना की जाती रही है कि उन्होंने सत्ता के लिए राज्यपालों को अपने एजेंटों के रूप में इस्तेमाल किया। कर्नाटक में राज्यपाल ने बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का वक्त यदुरप्पा को देकर एजेंट का रोल अदा किया। वैसे दोनो पार्टी के बीच इसकी लंबी फेहरिस्त है। हम उसमें नहीं पडऩा चाहते लेकिन उत्तराखंड, गोवा और फिर कर्नाटक के राज्यपालों के रवैये की बात करें तो भाजपा ने दो का पहाड़ा हर जगह अपने हिसाब से पढ़ा है। कहीं दो दुनी चार, कहीं दो दूनी पांच तो कहीं दो दूनी आठ भी।

गोवा में कांग्रेस स बड़ा दल था मगर सरकार बनी भाजपा की। इसी साल मार्च में मेघालय में भाजपा के सिर्फ 2 विधायक थे और 34 का समर्थन जुटाकर अब वहां भाजपा की सरकार है। कर्नाटक में जो माननीय भाजपा के बड़े दल होने के कारण सरकार बनाने को उचित ठहरा रहा हैैं वे गोवा, मेघालय,बिहार के बारे में चुप रहते हैैं। बिहार में लालू यादव की पार्टी सबसे बड़ा दल है। इसलिए अटल जी और यदुरप्पा की तुलना करना इतिहास और अटल जी दोनों के साथ अन्याय होगा। अटल जी को राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने बड़ा दल होने के नाते सरकार बनाने का न्यौता दिया था।

उनकी 13 दिन की सरकार जब बहुमत नहीं जुटा पाई तो मतदान के पहले ही उन्होंने संख्या बल के अभाव में इस्तीफा दे दिया था। तब देश को लगा कि अटल जी जैसे भले आदमी और भाजपा जैसी राजनीति में सुचिता और चाल चरित्र चेहरे वाली पार्टी को एक मौका जरूर मिलना चाहिए। उस घटना का सीधा प्रसारण का फैसला अटल जी की सरकार ने किया था और कर्नाटक में सीधा प्रसारण और 28 घंटे में बहुमत साबित करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हुआ। यह एक बड़ा अंतर है। नैतिक बल और जोड़ जुगाड़ के बीच में। यह भाजपा की छोटी – बड़ी खताएं हैैं। इन पर मुजफ्फर रजमी का मशहूर शेर फिट बैठता –
“जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने,
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई”।
भाजपा नेतृत्व ने नैतिकता और राजनीति में शुचिता की बात करते करते गोवा, कर्नाटक, मेघालय आदि राज्यों में जो कुछ किया है वह इतिहास में उसे नायक नहीं बल्कि खलनायक के रूप में याद कराएगा। कहीं उसने कान कटाए तो कहीं नाक।
(लोग अपनी सुविधा के हिसाब से तय कर सकते हैं)भाजपा धर्म आधारित राजनीति करने वाली पार्टी मानी जाती है। रामायण में रावण महाभारत में दुर्योधन और शकुनि भी अपने किए को सही बताते थे। इतिहास गवाह है इन सबका क्या हुआ। भाजपा को धर्म का मर्म समझते हुए स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय से लेकर जीवित अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के आदर्शों पर चलना और जीना सीखना चाहिए।

आदमकद अटल जी
भोपाल में पदस्थ एक शानदार मैदानी पुलिस अफसर ने मुख्यमंत्री उमा भारती द्वारा कोई ख्वाहिश पूछे जाने पर कहा था कि वे प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से मिलना चाहेंगे। प्रोटोकाल के तहत वे बतौर सुरक्षा अधिकारी के स्थान पर सफारी के बदले पैन्ट शर्ट पहन पी.ए. बनकर पहुंचते हैैं। उमा जी आग्रह पर अटल जी उन्हें बुलाते हैैं सुबह का वक्त था और नाश्ते की टेबल पर अटल जी बैठे हुए थे। अधिकारी ने श्रृद्धावश पैर छुए। अटल जी ने उन्हें अपने पास की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।

संकोच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अटल जी के आग्रह के सामने कुर्सी पर ही बैठने का फैसला किया और सामने रखे ढोकले खाना शुरू किया इस पर अटल जी की टिप्पणी थी ढोकले पसंद हैैं तो उन्होंने एक और प्लेट में रखे कुछ विशेष किस्म के ढोकले अपने हाथों से उठाए और उसकी प्लेट में रख दिए और कहा ये खाओ ये ज्यादा मजेदार हैैं। इस पूरे घटनाक्रम में अटल जी व्यवहार में न तो कोई प्रधानमंत्री था और न कोई बड़े लीडर का भाव। इस व्यवहार से पुलिस अधिकारी अभिभूत हो गया। उसने बाहर निकल कर सबसे पहले अपनी पत्नी को फोन कहा और लगभग रुंधे गले से कहा आज मेरा जीवन सफल हो गया।

मैैंने अटल जी के रूप में एक महामानव से मुलाकात का पूरा किस्सा बयान किया। यही वो अधिकारी है जो इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री के तौर पर उनके साथ विदिशा यात्रा में शामिल था। बारिश का मौसम था तेज बरसात के बीच अटल जी ने अपनी कार से उतरने के पहले उन्होंने सुरक्षा कर्मी से अपना एक बैग बुलवाया अपनी लेदर की चप्पल उतारी और बैग से बरसाती शूज निकाले। इसके बाद चप्पलों को अखबार में लपेट बैग में जगह बनाते हुए रख दिया। यह है एक बड़े नेता का सहजपन। आज कितने नेताओं में ऐसा दिखता है?

आडवाणी जी आंखें भर आईं
बात 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान मध्यप्रदेश के सागर में एक सभा की है जिसमें लालकृष्ण आडवाणी भी मंच पर बैठे हुए हैैं। उमा भारती अपने भाषण में कहती हैैं आडवाणी जी ने अटल जी की असहमति के बावजूद रामरथ यात्रा निकाली थी जब इस यात्रा का समापन मुंबई के शिवाजी पार्क में हो रहा था तब मंच पर भाजपा संसदीय बोर्ड के लगभग सभी नेता मौजूद थे। खचाखच भरे मैदान में आडवाणी जी अपने उद्बोधन के अंत में कहते हैैं अगर एनडीए को बहुमत मिला तो देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी होंगे। उनकी इस घोषणा से जनता में तालियां बज रही थी और मंच पर बैठे नेताओं में सन्नाटा खिंच गया था।

वजह थी इतने बड़े फैसले जनसभा में नहीं बल्कि भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में लिए जाते हैैं। भाषण समाप्ति पर जब नेताओं ने आडवाणी जी से पूछा कि आपने हम लोगों से चर्चा किए बिना यह ऐलान कैसे कर दिया? इस पर आडवाणी जी ने कहा – मैैंने देश की यात्रा की है और देश चाहता है कि बहुमत मिले तो अटल जी प्रधानमंत्री हों। उमा जी जब यह सब बता रहीं थी तब भावुक आडवाणी की आंखें भींग गई और मुझ समेत सभा मे मौजूद लोगों ने उन्हें चश्में के पीछे आंखों की कोर से बहती हुई भावनाओं को रोकते हुए देखा था। तब मैं दैनिक भास्कर बतौर स्टेट ब्यूरो चीफ उमा भारती की परिवर्तन यात्रा को कवर कर रहा था अब इतना बड़ा दिल कितने नेताओं का है? इसलिए आज भी भाजपा को अटल-आडवाणी के नाम से याद करते हैैं। पता नहीं मोदी और अमित शाह के नाम किस रूप में याद किये जाएंगे? लोगों के दिल में बने रहने के लिए आडवाणी जैसा त्याग, अजातशत्रु अटल जी जैसा बड़प्पन और उपराष्ट्रपति रहे भैरों सिंह शेखावत जैसा समरस होना चाहिए।

( लेखक IND24 न्यूज चैनल समूह के प्रबंध सम्पादक हैं )