1965 में रिलीज हुई यश चोपड़ा की फिल्म ‘वक्त’ में राजकुमार का डायलॉग “चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते…” आज भी लोग नहीं भूले। और ख़ास तौर पर राजनेता तो इस डायलॉग को अपनी ज़ुबान पर ही रखे रहते हैं। पक्ष विपक्ष में कोई भी नोंक झोंक हुई और यह डायलॉग उनके लिए सबसे ज़्यादा कारगर और असरदार साबित होता है।मध्य प्रदेश नहीं बल्कि पूरे देश में अक्सर राजनेताओं के मुँह से यह डायलॉग सुनाई दे जाता है।
या यूँ कहें कि यह डायलॉग ही अपने आप में राजनेता के लिए पूरी ढाल बनकर बचाव का सबसे बड़ा अस्त्र साबित होता है। पिछले 55 साल में हज़ारों बार इस डायलॉग का इस्तेमाल राजनीति में हुआ है।उन राजनेताओं द्वारा किया गया है जो फ़िल्म रिलीज़ होते समय या तो चार-पाँच साल के बच्चे होंगे या फिर 10-15 साल की उम्र के। ख़ूबी यह है कि इस एक ही डायलॉग से सारे आरोप खुद-ब-खुद ख़ारिज हो जाते हैं और विपक्षी दल को आरोपों के कटघरे में खड़ा कर राजनेता खुद को पूरी तरह मुक्त कर लेता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि आज तक राजनीति ने यह ख़ुलासा नहीं किया है कि शीशे के घर आख़िर हैं किसके ? या फिर राजनीति में आने वाले सभी नेताओं के घर कहीं शीशे के ही तो नहीं है? क्योंकि अक्सर सभी दल घोटालों के आरोपों में घिरे रहते हैं और जब भी सत्ताधारी दल पर विपक्षी दल का नेता निशाना साधता है तो सत्ताधारी दल के नेता की ज़ुबान पर यह डायलॉग अक्सर ही आ जाता है।
यह डायलॉग बोलने वाले कई नेता तो दल बदलकर उसी दल का हिस्सा बन गए होंगे जिसके ख़िलाफ़ कभी ये डायलॉग मरहूम अभिनेता राजकुमार से भी शाही अंदाज़ में उनके द्वारा बोला गया होगा।इसका सबसे अच्छा उदाहरण भी फ़िलहाल मध्य प्रदेश की है कि जहाँ थोक में एक दल के 25 नेता अब दूसरे दल का हिस्सा बन चुके हैं। ख़ैर लेख पढ़ने वालों की दिलचस्पी अब यह जानने में नहीं होगी कि राजनीति में जिनके घर शीशे के हैं? अब तो आम मतदाता भी यह समझने लगा है की पूरी राजनीति ही शीशे के घर में क़ैद है।
राज कुमार के ज़्यादातर डायलॉग उस कसौटी पर खरे उतरते हैं, जिन्हें सुनकर विरोधी बेइज्ज़ती से मर जाते थे। कुछ चुनिंदा डायलॉग की बात करें जो वर्तमान परिदृश्य पर पूरी तरह कटाक्ष कर रहे हैं।मसलन बेताज बादशाह (1994) का डॉयलॉग. ‘जिसके दालान में चंदन का ताड़ होगा वहां तो सांपों का आना-जाना लगा ही रहेगा।’
सौदागर (1991) का यह डायलॉग . ‘जानी.. हम तुम्हे मारेंगे, और ज़रूर मारेंगे. लेकिन वो बंदूक भी हमारी होगी,गोली भी हमारी होगी और वक़्त भी हमारा होगा।’.
कोरोना त्रासदी पर यह मरते दम तक (1987) का डायलॉग एक शब्द हटाकर पूरी तरह से फ़िट बैठ रहा है। ‘इस दुनिया में तुम पहले और आखिरी बदनसीब होगे, जिसकी ना तो अर्थी उठेगी और ना किसी कंधे का सहारा. सीधे चिता जलेगी।’
तिरंगा (1992) का यह डायलॉग भी ज़ुबान पर आ जाता है -‘अपना तो उसूल है. पहले मुलाकात, फिर बात, और फिर अगर जरूरत पड़े तो लात।’
यह देखिए पुलिस पब्लिक (1990) का डायलॉग – ‘कौवा ऊंचाई पर बैठने से कबूतर नहीं बन जाता मिनिस्टर साहब! ये क्या हैं और क्या नहीं हैं ये तो वक्त ही दिखलाएगा।
तिरंगा (1992) का यह डायलॉग दिल को छू लेता है – ‘ना तलवार की धार से, ना गोलियों की बौछार से.. बंदा डरता है तो सिर्फ परवर दिगार से।’
और अंत में सूर्या (1989) के इस डायलॉग से राजस्थान को याद करते हुए हम इंजॉय करते हैं। कौन किससे कह रहा है और किस संदर्भ में कह रहा है इसको अपनी सोच के अनुसार फ़िट किया जा सकता है।
‘राजस्थान में हमारी भी ज़मीनात हैं. और तुम्हारी हैसियत के जमींदार,
हर सुबह हमें सलाम करने, हमारी हवेली पर आते रहते हैं।’
सवाल सवाल ही बना हुआ है कि आखिर किनके घर शीशे के हैं…राजनीति तुम बताओ तो ज़रा …।