इसी तर्ज पर हिन्दुस्तान में झोलाछाप मीडिया भी विकराल आकार लेता जा रहा है मिस्टर मीडिया!

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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार

कुछ दशक पहले तक भारत के चिकित्सा क्षेत्र में विशेषज्ञ या वर्गीकृत सेवाओं का व्यापक विस्तार नहीं था। एक एमबीबीएस डॉक्टर को लोग सारे दुखों की एक दवा समझ लेते थे। गांवों में तो आज भी यह प्रचलन में है। जिस नाम के आगे डॉक्टर लगा हो तो उससे मरीज बुखार की दवा भी ले लेता है और दांत भी दिखा देता है और वही चिकित्सक हड्डी भी जोड़ देता है। उसी डॉक्टर से आंख, कान, नाक की दवा लेने में भी मरीज कोई संकोच नहीं करता। ऐसे में झोलाछाप डॉक्टर्स की चांदी हो जाए तो ताज्जुब क्यों होना चाहिए?

इसी तर्ज पर हिन्दुस्तान में झोलाछाप मीडिया भी विकराल आकार लेता जा रहा है। जैसे-जैसे दुनिया आगे जा रही है, भारत में मानसिक तौर पर मीडिया उल्टे कदम रख रहा है। आधुनिक तकनीक से ही सब कुछ नहीं होता। पन्नों या परदों पर जो सामग्री परोसी जाती है, वह महत्वपूर्ण होती है। इस हिसाब से हम लगातार पिछड़ रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर समाज के तमाम वर्गों के लिए समाचार पत्रों और टेलिविजन चैनलों के परदे पर विशेषज्ञ अथवा वर्गीकृत सामग्री नजर नहीं आती, जबकि भारत का मध्यम वर्ग अभी भी एक परदे या एक अखबार में सब कुछ पाना चाहता है। आर्थिक दबाव में वह इससे अधिक खर्च नहीं कर सकता। ऐसे में नई नस्लों के साथ घोर अन्याय हो रहा है। हमारे अखबार और चैनल अपने कंटेंट में बच्चों के लिए अलग से क्या दे रहे हैं? क्या उन्हें वक्त से पहले वयस्क नहीं बना रहे हैं? बुजुर्गों के लिए खास तौर पर क्या दे रहे हैं? महिलाओं के लिए विशेष क्या दे रहे हैं?

इनकी बात एक बार छोड़ भी दें तो करीब करीब डेढ़ सौ करोड़ की आबादी और इतनी विविधताओं से भरे देश में कितने चैनल प्रकृति,पर्यावरण, सेहत, योग, विज्ञान,    संस्कृति, खेल, शिक्षा, मौसम, पर्यटन, वित्त और सिनेमा केंद्रित हैं? उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। आबादी में हमसे एक चौथाई अमेरिका में देख लीजिए। कितने शालीन तरीके से वे यौन विज्ञान तक के चैनल चलाते हैं। यूरोप के चैनल भी कमोबेश ऐसे ही हैं।

कुछ बरस पहले मुझे अमेरिका के अनेक चैनलों में जाने का अवसर मिला था। मौसम से लेकर अध्यात्म पर उनकी संपादकीय सामग्री का चुनाव अदभुत है। हम तो धर्म के नाम पर पाखंड परोसते हैं। कहीं वशीकरण मंत्र बांटते हैं तो कहीं गंडा-ताबीज की बिक्री होती है। धर्म के तथाकथित जानकार करोड़ों लोगों को बुद्धू बनाते दिखाई देते हैं। हिन्दुस्तान धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु रहा होगा, लेकिन आज तो मजहब के नाम पर अफीम चटाई जा रही है। अंधविश्वास फैलाते ये धार्मिक चैनल वैज्ञानिक और अनुसंधान वाली सामग्री से कोसों दूर हैं।

हम आजादी के सौ साल पूरे करने की ओर बढ़ रहे हैं। शायद तब तक दो सौ करोड़ की आबादी हो जाएगी। दिल पर हाथ रख कर बताइए कि क्या हम वाकई दिमागी तौर पर इसके लिए तैयार हो रहे हैं? शायद नहीं। आबादी को देखते हुए टेलिविजन चैनलों और अखबारों की संख्या बढ़ाने से कुछ नहीं होगा। असल चीज तो कंटेंट है और क्लासिफाइड चैनल तथा अखबार इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इस हकीकत को समझना होगा मिस्टर मीडिया!