राघवेंद्र सिंह
भारतीय जनता पार्टी खासतौर से मध्यप्रदेश में कुछ अच्छा और नया करने के प्रयास हो रहे है। इस नवाचार के क्या नफा नुकसान होंगे ये तो समय ही बताएगा। लेकिन राजनीति की चौसर पर पड़ने वाले पांसों की जो आहट सुनाई दे रही है उसमें शुभाशुभ की आशंका अधिक है। बात शुरू होती है पिछले दिनों पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष की भोपाल प्रवास से। छह माह पहले प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थकों के असंतोष से घिरी कांग्रेस की नाथ सरकार का तखता पलट गया था। अब वही अंसतोष भाजपा में स्थानन्तरित हो गया है। विधान सभा की 27 सीटों पर उप चुनाव होने है। कल तक कांग्रेस को परेशान करने वाला असंतोष भाजपा की नाक में दम किए दे रहा है। पार्टी का डेमेज कंट्रोल सिस्टम दांव पर लगा हुआ है। कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खण्डेलवाल का तराशा हुआ संगठन फिर कसौटी पर है। सबने पिछले आम चुनाव में इसे असफल होते हुए देखा भी है। कमजोर लगने वाली कांग्रेस ने हर फ्रंट पर शिकस्त दी थी। हालात अभी भी बदले नही हैं बल्कि पहले से ज्यादा बिगड़े लगते हैं।
प्रदेश में शिवराज सरकार और भाजपा संगठन सहजता के साथ पूरी लय में काम नही कर पा रहे हैं। संगठन महामंत्री श्री संतोष ने भी सरकार और संगठन में खालीपन और असंतोष को महसूस किया । उन्होंने नेताओ को समन्वय बनाकर काम करने की रस्मी तौर पर नसीहत दी । असल मे असंतुष्ट से न तो उन्होंने ने भेंट की और न ही इस संबंध मे कोई नुस्खा बता पाए । प्रदेश में सत्ताईस उपचुनाव होने है और उसपर भाजपा की सरकार का भविष्य टिका हुआ है। कुशाभाऊ ठाकरे-प्यारेलाल खंडेलवाल और प्रदेश प्रभारी रहे सुंदर सिंह भंडारी के समय बड़े से लेकर छोटे छोटे कार्यकर्ताओं से बात की जाती थी। उनकी राय के साथ शिकायतों का समाधान भी होता था। अब इस भाव का अभाव महसूस किया जाता है।
ठाकरे जनसंघ से लेकर जनता पार्टी और फिर भाजपा प्रभारी और राष्ट्रीय अध्यक्ष तक रहे। संवाद उनके संगठन शास्त्र का मूल मंत्र था। युवा मोर्चा के एक कार्यकर्ता जो राज्यसभा सदस्य भी हैं नापसन्द करने के बावजूद एक नेता को बालाघाट से चुनाव लड़ाने के मामले में उनसे चर्चा की। दूसरे दिन उन्हें बुलाकर समझाया और सन्तुष्ट कर चुनाव के काम मे लगाया। इसके बाद भाजपा चुनाव जीती। ये तो एक उदाहरण है। आज वे नेताजी केंद्र सरकार में मंत्री हैं और एतराज जताने वाले नेता राज्यसभा में। ऐसे ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान संगठन की लाइन के विपरीत प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के लिए विक्रम वर्मा के खिलाफ ठाकरे जी की मर्जी के खिलाफ चुनाव लड़ते थे। संवाद और समन्वय के चलते सब ठीक हुआ और शिवराज सिंह चौथी बार मुख्यमंत्री बने।
ताजा हालात में भाजपा में ठाकरे – खण्डेलवाल की कार्यशैली बहुत याद की जाती है। वे कार्यकर्ताओं को जोड़ने के साथ पुराने नेताओं – कार्यकर्ताओं की चिंता भी करते थे। यदि ऐसा भाजपा में होता तो पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की सरकार बनती और आने वाले उप चुनाव में भंवर सिंह शेखावत, अनूप मिश्रा, जयभान सिंह पवैया, डॉ गौरीशंकर शेजवार से लेकर अजय विश्नोई जैसे खांटी नेताओं को बुलाकर संगठन महामंत्री संतोष बात करते। असल में यह काम स्थानीय नेतृत्व या केंद्रीय नेतृत्व को फीडबैक देने वाली टीम का होता है। इस मुद्दे पर संगठन को मजबूत करने वाले फ्रंट कमजोर रहे।
प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त दत्त शर्मा युवा हैं और प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत बहुत सज्जन हैं। यदि राष्ट्रीय संगठन महामंत्री की भोपाल यात्रा के समय उप चुनाव में दुख देने वाले असन्तुष्ट की टीम को बुलाकर सन्तोष जी से मुलाकात करा दी जाती तो संगठन से लेकर शिवराज – सिंधिया की आधी चिंता दूर हो जाती। लेकिन पार्टी के प्रबन्धकों से यहां चूक हो गई। इसके चलते सिंधिया समर्थक विधायक और मंत्री की नैया उपचुनाव की वैतरणी में डगमग होती दिखेंगी। सांवेर में तुलसी सिलावट से लेकर सांची में डॉ प्रभुराम चौधरी और सुरखी में गोविंद सिंह को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। पुराने खासकर 2003 से पहले के कार्यकर्ताओं की भूमिका चुनाव में अहम होने वाली है। प्लस 50-60 के कार्यकर्ता एक चुनाव के बाद ओवरएज होने वाले हैं। उन्हें न तो टिकट मिलने के ज्यादा अवसर होंगे और न तो संगठन में जगह। ठाकरे- खण्डेलवाल की संगठन शैली के चलते ही प्रदेश के कार्यकर्ता को देव दुर्लभ का तमगा मिला था। मगर अब यह बीते दिनों की बातें हैं बल्कि अब यह उपाधि हंसीमजाक का विषय भी बनने लगी है। पार्टी में अब कायकर्ता कम प्रबन्धकों की जरूरत ज्यादा है जो सभा- रैली में ठेके पर भीड़ और थोक में वोट डलवाने का काम करते हैं। ठाकरे- खंडेलवाल के शिष्यों ने भी ये कमोबेश ये कारपोरेट कल्चर स्वीकार कर लिया है।
संगठन का सिर तो है…
सरकार में तो विस्तार के बाद मंत्रियों का कोटा पूरा हो गया है, लेकिन संगठन अभी आधा अधूरा ही है। अध्यक्ष और संगठन महामंत्री के साथ पांच महामंत्रियो की बमुश्किल हुई नियुक्ति से नेतृत्व की लाचारी दिखाई देती है। मेरी पैतीस साल की पत्रकारिता में भाजपा में ऐसा पहली बार होता देख रहा हूं। एक तरह से संगठन का सिर तो है लेकिन धड़ नही है। बड़ा निणर्य महामंत्री तय करने का होता है। जब महामंत्री घोषित कर दिए तो फिर उपाध्यक्ष को लेकर ज्यादा मारामारी नही होती। दस दस उपाध्यक्ष- मंत्री में से दो चार उपाध्यक्ष और मंत्री भी लगे हाथ तय कर दिए जाते। प्रदेश संगठन बिना कार्यकारणी के चुनाव लड़ेंगे। जिले और मंडल स्तर पर भी पूरी तरह से टीम नही बनी है। सन्तोष जी इस तरफ भी ध्यान देते तो शायद संगठन की सेहत के लिए अच्छा होता। अभी तो संगठन के अंगों में मोर्चा व प्रकोष्ठ टप्प पड़े हैं। सिर सक्रिय है और धड़ का पता नही है। बुरा लग सकता है लेकिन सच तो यही है…
कांग्रेस के बुजुर्गों से परेशान हैं…
मध्यप्रदेश कांग्रेस आम चुनाव की भांति कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे टेस्टेड नेताओं पर ही दांव लगाए गए है। ये दो नेता ही टू मेन आर्मी की तरह काम कर रहे हैं। फील्ड में दिग्विजय सिंह काम कर रहे हैं और प्रबंधन के मामले में कमलनाथ जुटे हुए हैं। उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर भाजपा को उनके असन्तुष्ट के जरिए मत देने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। कमजोर मानी जाने वाली कांग्रेस के ये दोनों बुजुर्गों ने शिवराज- नरेंद्र तोमर और सिंधिया की त्रिमूर्ति को चिंता में डाल दिया है। कांग्रेस को वैसे भी खोने के लिए कुछ नही है ऐसे में उनके नेता- कार्यकर्ता ज्यादा सुकून से चुनाव में लगे हैं। लम्बे समय से एक चर्चा यह भी है इस दौर में जयवर्धन सिंह और नकुलनाथ के लिए कांग्रेस में खाली मैदान है। दोनों नेता पुत्र अपने को आसानी से स्थापित कर सकते हैं। दिग्विजय सिंह के कांग्रेस कार्य समिति में आने से वे प्रदेश के साथ केंद्रीय राजनीति में और मजबूत हुए हैं।