तालिबान से समझौता अमेरिकी चुनावी स्टंट

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राजेश बादल

तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के बीच क़तर में अब सीधी बातचीत हो रही है । पहली उप बार दोनों पक्ष आमने सामने इस तरह बैठे हैं ।पहली बार से आशय यह है कि मध्यस्थता करने वाले परदे के पीछे हैं । इस बातचीत का आग़ाज़ पाकिस्तान की पहल पर अमेरिका ने किया था l किन्हीं कारणों से उस चर्चा को अभी तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका । उस समय भी यह मसला अमेरिका की प्राथमिकता सूची में था और आज तो डोनाल्ड ट्रंप के लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है । इन दिनों राष्ट्रपति के तौर पर दूसरी पारी खेलने के लिए ट्रंप चुनाव मैदान में हैं ।मगर वे सारे सर्वेक्षणों में प्रतिद्वंद्वी जो बाइडेन से पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं ।अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की अरसे से मौजूदगी से अमेरिकी जनता बेहद खफा है । उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि दूर बसे एक पहाड़ी देश में उनके बच्चे क्यों मर रहे हैं ? अफ़ग़ानिस्तान में जिस तरह से ये सैनिक मारे जा रहे हैं,वे कोई अमेरिका की आज़ादी का युद्ध नहीं लड़ रहे हैं ।फिर उन्हें बेवजह जान क्यों गंवानी चाहिए ।अगर ट्रंप यह समझौता करा देते हैं तो वे जो बाइडेन के साथ अपने मुकाबले को रोमांचक मोड़ पर ला सकते हैं ।

इसीलिए उन्होंने तालिबान से अफ़गानी हुकूमत का समझौता कराने के लिए अपने विदेश मंत्री माइक पोंपियो को सब काम छोड़ कर काबुल पहुंचने का निर्देश दिया है । तालिबान के साथ वहाँ की सरकार का समझौता कैसा होगा ? उसकी शर्तें क्या होंगी ? उन पर अमल होगा अथवा नहीं ,कोई नहीं जानता ।पर यह तय लगता है कि जब माइक पोंपियो वतन लौटेंगे तो उनके हाथ में क़रारनामे की एक कॉपी ज़रूर होगी,जो डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी अभियान को मज़बूत बना सकती है ।हम मान सकते हैं कि यह तथाकथित समझौता विशुद्ध अमेरिकी चुनाव अभियान का एक हथकंडा है,जिसे रिपब्लिकन पार्टी इस्तेमाल में लाना चाहती है । अफ़ग़ानी लोगों को शांतिपूर्ण माहौल प्रदान करने से उसका कोई लेना देना नहीं है ।पाकिस्तान की ज़िद के चलते पिछली समझौता वार्ता से भारत को अलग थलग रखा गया था ,लेकिन इस बार डोनाल्ड ट्रम्प अपने चुनाव में भारतीयों की भूमिका देख चुके हैं।इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तान को भी चर्चा में शामिल होने का न्यौता दिया।इसके बाद ही भारतीय विदेश मंत्री जय शंकर ने अपनी ऑन लाइन आहुति डालने का निर्णय लिया ।

हालाँकि विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे पी सिंह भी दोहा पहुँचे हैं।जयशंकर ने भारत का पक्ष रखते हुए अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की हालत बेहतर बनाए पर ज़ोर दिया है।समझौते के बाद यदि तालिबान सत्ता में शामिल होते हैं तो इन वर्गों की आवाज़ उठाने वाला स्वर मद्धम पड़ जाएगा।भारत को मिल रही इतनी अहमियत पाकिस्तान को नहीं पोसा रही है और उसके प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अभी से अपनी पीठ थपथपाने लगे हैं।नहीं भूलना चाहिए कि क़रीब तीन सप्ताह पहले तालिबान का एक दल पाकिस्तान आया था और वहाँ फौजी अफसरों के अलावा विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से मुलाक़ातें की थीं।इनके बाद अफ़ग़ानिस्तान की सरकार ने पाकिस्तान के रवैए पर निराशा का इज़हार किया था। उसने कहा था कि पाकिस्तान अब तक अपनी सार्थक भूमिका निभाने में नाक़ाम रहा है। उसे व्यवहारिक और सारे पक्षों को मंज़ूर समाधान खोजने के प्रयास में मदद करनी चाहिए। लेकिन इससे पाकिस्तान पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। उसकी घोषित नीति हमेशा कट्टर तालिबान को खुला समर्थन देने की रही है।

यह साफ़ है कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार का तालिबान के साथ कोई भी समझौता तब तक क़ामयाब नहीं हो सकता ,जब तक कि दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए अपने कुछ हित नहीं छोड़ें .यह ऐसी बात है ,जिस पर कोई स्थाई सहमति बननी मुश्किल है। सत्ता का इस्लामीकरण तालिबान की पहली शर्त हो सकती है।वह महिलाओं के अधिकार छीनने पर शायद ही कोई आग्रह मंज़ूर करे। यह दोनों बातें अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और अवाम को पसंद नहीं है। क़रीब एक सप्ताह पहले ही अफ़ग़ानिस्तान की एक लोकप्रिय अभिनेत्री की हत्या कर दी गई थी ।दूसरी ओर सरकार पूरी तरह मुल्क़ में शांति बहाली और हिंसा रोकने की बात कर रही है। तालिबान इसे किसी भी सूरत में नहीं मान सकते और न ही वे ऐसा कोई वादा कर सकते हैं।ज़ाहिर है कि यह सारी क़वायद सिर्फ़ डोनाल्ड ट्रम्प को प्रसन्न करने के लिए हो रही है ताकि उन्हें अमेरिकी अवाम को दिखाने के लिए एक चुनावी झुनझुना मिल जाए। अमेरिका की फ़ौज अफ़ग़ानिस्तान में बीते 19 साल से लड़ रही है।अब उसका मनोबल टूट चुका है।हर हाल में उसके लड़ाके स्वदेश लौटना चाहते हैं। अमेरिका के साथ खड़े सहयोगी मित्र राष्ट्रों के फौजियों की भी वहाँ उपस्थिति है। इन देशों का भी अमेरिका पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि क़तर के दोहा में चल रही वार्ता के बाद समस्या सुलझ ही जाएगी और अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों में कोई शान्ति संगीत गूँजने लगेगा।

भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान का मामला हमेशा ही दुविधा भरा रहा है। वह अपनी रचनात्मक भूमिका तो निभाता रहा है ,पर अब लगता है कि इस तरह काम करने का दौर अब निकल चुका है।भारत को खुलकर अपने स्वार्थों की वक़ालत करनी होगी अन्यथा तालिबान और पाकिस्तान मिलकर उसका सिरदर्द बढ़ाते रहेंगे। अब वहाँ स्कूल बना देने या संसद की इमारत बना देने से बात नहीं बनेगी। इन दिनों अफ़ग़ानिस्तान में 1700 भारतीय काम करते हैं। भारत को वहाँ की सरकार का खुला समर्थन है। भारत वहाँ सत्रह सौ की संख्या बढ़ाकर सत्रह लाख क्यों न करे और अपने लोगों की हिफाज़त के लिए अपने आधुनिकतम सशस्त्र बलों को तैनात करे। विदेश और उद्योग नीति में इस आक्रामक बदलाव के ज़रिए ही भारत वहाँ अपनी रौबदार स्थिति बना सकता है।