कौशल किशोर चतुर्वेदी
गांधी शब्द पढ़कर बहुत लोगों के मन में बहुत कुछ चलने लगा होगा, ख़ास तौर से देश की दुर्दशा से जोड़कर।दुर्दशा के लिए कोई एक ज़िम्मेदार नहीं होता, सामूहिक ज़िम्मेदारी होती है। पूर्वाग्रहों को दूर करें भाई, दरअसल हम बात कर रहे हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की। कल जब हम बहुत थके हुए थे और कुछ सोचते-सोचते अचानक झपकी लगी तो लाठी टेकने की आवाज आई और गोल-गोल चश्मा लगाए, माथे पर झुर्रियाँ और चिंता का भाव, मानो बेहद पीड़ा हो रही हो … हड्डियों का ढाँचा दिख रहे इकहरा बदन लिए प्रकट हुए बुजुर्ग ने पूछा। पहचाना मुझे… मैं गहरी नींद में मस्त था कि अचानक ध्यान उनकी तरफ़ गया तब तक बेचारे सहमकर खुद ही बोल पड़े। मैं महात्मा हूँ … मैं कुछ बोलूँ …उससे पहले वह खुद ही बोल पड़े … तुम्हारा देश हमें राष्ट्रपिता बुलाता है।
अरे, अरे आपको कौन नहीं जानता कहकर उनके चरणों की तरफ़ बढ़ पाता तब तक उन्होंने लाठी सामने बढ़ाकर कहा दूर, दूर…तुझे मालूम नहीं सब चिल्ला रहे हैं। दो गज दूरी, बहुत है ज़रूरी। दूर से बात करो बेटा। वैसे भी हमारे देश में हमारा जितना तिरस्कार हुआ है, उसके बाद अब पैर छूने, राजघाट पर माथा टेकने, छद्म आदर-सम्मान देने की औपचारिकता ही खत्म कर दें देशवासी…तब भी मेरा आधा दर्द खत्म हो जाए। पर मेरी क़िस्मत में तो बस अपमान ही अपमान लिखा था सो भुगत रहा हूँ…पहले अंग्रेज़ों ने कसर नहीं छोड़ी, फिर कांग्रेसियों ने और फिर गोडसे और अब उनके समर्थक और विरोधी सबने मिलकर तो हमारा बैंड ही बजाकर रख दिया है।
अरे … बड़े दुखी मन से मैंने बापू से पूछने की हिमाक़त कर ली कि बापू जी सुना है कि आपने आजादी के बाद कांग्रेस नाम खत्म करने का सुझाव दिया था। सोच में पड़ते हुए बापू बोले सही ही तो कहा था। कांग्रेस मिशन था अंग्रेज़ों को देश से भगाकर आजादी दिलाने का, नाम बदल गया होता तो कम से कम कांग्रेस को गालियाँ न देते लोग और हम सबकी इज़्ज़त तो बची रहती। लेकिन हमारी बात कोई सुनता तब। अब जब राजनैतिक दल प्रोफ़ेशनल हो गए। आजादी के बाद के इस भारत की कल्पना मैंने नहीं की थी। पर आज तो मेरे नाम के साथ जो खिलवाड़ चल रहा है, उसका दर्द अब मुझसे सहन नहीं होता। अंग्रेज़ों के समय तो जन-जन में दबंगई थी ग़लत का विरोध करने की। आज तो बुज़दिली, चापलूसी, धोखेबाज़ी और अपने ही देश के साथ ग़द्दारी तक से बाज नहीं आ रहे तथाकथित देशभक्त। कभी-कभी तो लगता है कि सबसे ज्यादा खिलवाड़ हमारे नाम और फ़ोटो, स्टैच्यू वगैरह के साथ हो रहा है।
वह कैसे ? मैंने सवाल दाग दिया…
बापू की आँखें नम हो गई…बोले राष्ट्रपिता के नाम पर नोटों पर हमारे फ़ोटो को ही ले लो …। गहरी श्वांस लेकर बापू आँसू पौंछते हुए बोले…। हमारी फ़ोटो वाले नोट ही रिश्वत में दौड़ रहे हैं। गिने-चुने अपवादों को छोड़ दो तो कौन ऐसा कथित राष्ट्रभक्त, जनसेवक है जो इसमें शामिल नहीं है। सबका सीना चौड़ा हो जाता है ब्रीफ़केस संस्कृति से और हर पल मेरा दम घुटता है कि क्या दुर्दशा कर दी हमारी हमारे ही देश में। इनसे अच्छा तो गोडसे था जिसने एक बार में दन दन दन गोलियाँ चलाकर हमारी देहातों चकनाचूर कर दम लिया था। और तो और कभी-कभी तो मैं कपड़ों की जेब में पड़े-पड़े वाशिंग मशीन में खौलते पानी में वाशिंग पाउडर के साथ ऐसा धुलता हूँ कि पूरा चेहरा झुलस जाता है और दिन-रात दर्द के मारे कराहता रहता हूँ। कभी-कभी आग में स्वाहा हो जाता हूँ तो कभी-कभी लोग ग़ुस्से में टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। कभी-कभी अय्याशी में हमारी इज़्ज़त को जिस तरह उछाला जाता है, गांधी की दुर्दशा की इंतहा से दिल टूटकर बिखर जाता है और मैं निर्बल लाचार अहिंसा भूख हड़ताल कर भी तमाशा देखने को मजबूर रहता हूँ। चुनावों में हमारी फ़ज़ीहत किसी से छिपी नहीं है। चौराहों पर कोई कालिख पोतता है, कोई चश्मा तोड़ता है तो कोई धड़ ही अलग कर देता है। अब क्या करूँ मैं…कोई चारा नहीं बचता सिवाय बेचारा बनकर तिल-तिल कर हर पल घुटने के। अब तुम ही बताओ क्या करूँ मैं…।
मेरी आँखें भी नम हो गईं…क्योंकि मेरी ग़लती से भी कई बार गांधी खौलते पानी में वाशिंग पाउडर की धुलाई का शिकार हुए। उनका वह क्षत-विक्षत चेहरा मेरी नज़रों के सामने घूम रहा था। एक दुकानदार ने गांधी का ऐसा चेहरा देखकर नोट को नक़ली क़रार दिया। जब मैंने उसके सामने हक़ीक़त का बखान किया और गांधी जी को हुए कष्ट के लिए क्षमा माँगी तब जाकर उसे भरोसा हुआ और उसने नोट की असलियत स्वीकारी। हो सकता है उसे भी अपने निजी अनुभव याद आ गए होंगे, गांधी के साथ हुई ऐसी अमानवीयता के।
खैर मैंने बात पलटी। धीमे से पूछ लिया कि देश के आर्थिक, सामाजिक हालात, अपराध और नौजवान, किसान, महिलाओं, बुज़ुर्गों, बच्चों को देखकर भी दुख होता है क्या आपको?
बापू मानो बौखला गए। ग़ुस्से से उनका चेहरा लाल हो गया, तमतमा गया। माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। नि:शब्द बापू बेबसी में बस इतना ही बोल पाए…
और कितना रुलाओगे बाबू। वैसे भी हम भाईचारे की बात करते-करते चल बसे और अब तो भाईचारे की भी यही हालत है। लोगों ने तो चारे को भी नहीं बख़्शा।इंसानों को छोड़ो, पशुओं को भी बेचारा बना दिया।
देश की आर्थिक दुर्गति क्या किसी से छिपी है…। अंग्रेज़ों के समय किसान लुटने के बाद भी धनवान था, आज फंदे पर लटककर जान दे रहा है। महिलाओं की हालत पर रोना आता है और मैं रात-रात भर सो नहीं पाता। बलात्कार, गैंगरेप, मर्डर और उसके बाद भी सरकारों का दावा क़ानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से बेहतर है। नौजवान काम को तरस रहा है और मशीनों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। अरे देश की दुर्दशा देखो, शांति की बात कर युद्ध की तैयारियों का हवाला देकर जन-जन का दिवाला निकाला जा रहा है। जहाँ शराब की दुकानें सरकार की सेहत बना रही हों, क्या होगा उस देश का, उस समाज का। क्या यही मेरे अनुयायी और जनसेवक हैं? क्या मेरे सपनों का भारत ऐसा ही था? फिर सामाजिक स्थिति जैसी है, उससे बेहतर और क्या हो सकती है?
मैं कुछ और बोलता इससे पहले ही बापू बोल पड़े…
मत कर बच्चे … दिल का बोझ हल्का करने आया था। तूने तो दिल को सैकड़ों टन बोझ से दबा दिया है।एक ज़ख़्म भरने आया था, तूने तो सारे ज़ख़्म हरे कर दिए।
कहीं तू पत्रकार तो नहीं है। मैं भी कहाँ आ पहुँचा।
अब बस कर और लोकतंत्र में चुनाव का कवरेज कर अपनी भड़ास निकाल। वहाँ तुझे देश की हक़ीक़त सड़कों पर बिखरी मिल जाएगी…।
देखते-देखते बापू चश्मा संभालते लाठी टेकते आसमान की तरफ़ विलीन हो गए…।
मैं हड़बड़ाकर उठा तो कमरे में अंधेरा था और मेरी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे। लाइट जलाई तो टेबल पर रखे नोट पर बापू दर्द से कराहते टकटकी लगाए मेरी तरफ़ ही देख रहे थे…।