किसानों की चिंता हुई ,ठोस काम नहीं हुआ

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राजेश बादल


आंदोलन कर रहे किसानों और सरकार के बीच बातचीत अंततः शुरू हुई। पहले सरकार कहती रही कि किसान बुराड़ी में धरना दें। लेकिन किसान दिल्ली आना चाहते हैं । राजधानी में धरने के अनेक लाभ भी हैं ।एक तो पूरे देश को संदेश चला जाता है।मीडिया हाथों हाथ लेता है और मसला प्रखरता से अवाम के सामने आता है ।सरकार यह नहीं चाहती । ज़ाहिर है उसके तर्कों का कोई नैतिक आधार नहीं है।अन्यथा इस पर बात नहीं उलझती कि किसान कहाँ आंदोलन करें।अगर हुकूमते हिंद वाकई गंभीर है तो कृषि मंत्री किसानों के बीच जाकर उनकी पंचायत में क्यों नहीं बैठ जाते ?
तीन कृषि – क़ानून जिस तरह संसद में मंज़ूर कराए गए,उससे ही संदेह उपजता था कि परदे के पीछे की कहानी कुछ और है।

बानगी के तौर पर सिर्फ़ भंडारण क्षमता बढ़ाने की बात करते हैं।इसे किसानों के पक्ष में बताया जा रहा है। इस देश में सदियों से किसान उपज का भण्डारण नहीं करता। उसके सामने फसलों का ऋतु चक्र होता है। उपज लेने के बाद वह ज़मीन से दूसरी पैदावार की तैयारी में जुट जाता है। इस मुल्क़ में भण्डारण का काम व्यापारी करते रहे हैं अथवा सरकार।व्यापारी बाज़ार में माँग के मद्देनज़र भण्डारण करता है,ताकि वह अनाप शनाप मूल्य वसूल सके।सरकार इसलिए भण्डारण करती है कि मुसीबत में भूखी जनता का पेट भर सके।

इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर किसान की मदद कर सके।लेकिन आज मंडी में समर्थन मूल्य के दाम भी किसान को नहीं मिल रहे हैं। भण्डारण क्षमता बढ़ने से व्यापारी को दोतरफ़ा लाभ है। बाज़ार में कृत्रिम अभाव पैदा करके मँहगा अनाज बेचकर मुनाफ़े की आज़ादी और भरे भंडार दिखाकर किसानों से खरीद कम दाम पर करने की साज़िश भी वे रच सकते हैं। इस तरह किसान पर दोतरफ़ा मार है। उसे अगली फसल,अपने जीवन यापन और शादी ब्याह तथा सामाजिक कार्यों के लिए तुरंत पैसा चाहिए। जब व्यापारी उसे भरे भण्डार दिखाता है तो वह लागत से कम पर भी अनाज बेचने पर विवश हो जाता है।व्यापारी किसान से उपज के दिनों में एक रूपए किलो टमाटर खरीदता है। भण्डारण बढ़ने से किसान उसे एक रूपए में ही बेचता रहेगा क्योंकि व्यापारी के स्टॉक में पहले ही भरा हुआ है। यही टमाटर चालीस से साठ रूपए किलो में हम ख़रीदते हैं। मुनाफ़े की भी हद होती है।शुगर मिलें किसानों को गन्ने का भुगतान दो -तीन साल तक नहीं करतीं और किसान बिजली का एक बिल नहीं भर पाए तो कनेक्शन काट दिया जाता है। यही हमारी अब तक की कृषक नीति का सार है।


इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मौजूदा सरकार ही किसान विरोधी है।हक़ीक़त तो यह है कि ग़ुलामी के दिनों से आज तक हमने खेती को बहुत सतही तौर पर लिया है।हमने संसद और विधानसभाओं में बहुत बहसें कीं ,लेकिन यथार्थ से उनका वास्ता नहीं रहा। हमारे राजनेता भी फ़िक्रमंद रहे , मगर उससे अन्नदाता का भला नहीं हुआ। सरस्वती पत्रिका के 1908 में प्रकाशित एक अंक में गोविंद वल्लभ पंत ने लेख लिखा है – कृषि सुधार।इसमें वे लिखते हैं,” कृषि नीतियों में व्यापक सुधार की ज़रुरत है।सात करोड़ के देश में जब तक किसान खुश नहीं है ,भारतीयों को दो बार भोजन नहीं मिलेगा ।अमेरिका तथा अन्य देशों ने किसानों की संपन्नता के सारे उपाय अपनाए हैं। इसलिए वे खुशहाल हैं।अमेरिका में कृषि अनिवार्य शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल है। हर प्रदेश में बड़ा कृषि संस्थान है।कृषि अध्ययन निःशुल्क है ।कृषि में आए दिन नए अनुसंधान हो रहे हैं और भारत में हम सो रहे हैं।किसानों की वस्तुओं पर टैक्स अत्यंत कम होना चाहिए।ज़िला स्तर पर कृषि केंद्र खोले जाने चाहिए।कृषि शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।कृषि शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को विदेश जाना चाहिए।कृषि पर शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए “।वे आगे लिखते हैं कि अनाज बोने और बेचने के समय किसानों के लिए विशेष परिषदें स्थापित हों ।इंग्लैंड में इस प्रयोग से लाभ हुआ है।जिस ज़मीन से1894 में 50 लाख पौंड उत्पादन हुआ था,परिषदों के बनने के बाद 1903 में डेढ़ करोड़ पौंड फ़सल उपजी।ये परिषदें किसानों को क़र्ज़ मुक्ति के तरीक़े बताती थीं।याने समूची दुनिया में किसानों का क़र्ज़ तब भी बड़ा मसला था और आज भी है ।जाने माने शायर इक़बाल ने यूँ ही नहीं किसानों के लिए लिखा था


जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोटी /
उस ख़ेत के हर ख़ोशा -ए- गुन्दम को जला दो/


सरस्वती के ही मई 1946 में प्रेमचंद मल्होत्रा किसानों का ऋण शीर्षक से लेख में लिखते हैं – भारत में किसानों को ऋण ने मकड़ी के जाले की भाँति जकड़ रखा है।ऋण के बदले ज़मीन गिरवी रखनी पड़ती है ,बेचनी पड़ती है। ऐसे में किसान सिर्फ़ मजदूर रह जाता है।उस देश की तरक़्क़ी नहीं हो सकती,जिसके किसान क़र्ज़ से दबे हों। अब ऐसा भी क़ानून है कि ऋण नहीं चुकाने पर किसान के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती न ही उसे गिरफ़्तार किया जा सकता है। याने ढाक के वही तीन पात।आज किसान गिरफ़्तार नहीं होता ,बल्कि जान देता है। स्थिति बद से बदतर ही हुई है।इसीलिए सत्तर साल पहले लिखा गया था


अब ख़्वाबे -गिराँ से जाग कि हैं तेरे भी दिन फिरने वाले
रंगीन जो तेरे ख़ूँ से हुए अब हैं ,वो महल गिरने वाले

बुनियादी बात यह है कि किसानों के मुद्दों को हम लोग हल्के फुल्के ढंग से लेते हैं।जिस राष्ट्र में खेती किसानी के संस्कारों की जड़ें हज़ारों साल गहरी हों, उस देश में आज की नौजवान पीढ़ी कृषि को करियर नहीं बनना चाहती ।वह ज़मीन से सोना पैदा करने के बजाय ज़मीन बेचकर आराम की ज़िंदगी बसर करना चाहती है ।अध्ययन निष्कर्ष कहते हैं कि तमाम तरह की मंदी और बेरोज़गारी संकट का समाधान खेती के बीजों में छिपा है।पर इसे कितने लोग समझेंगे ?