राजेश बादल
नेपाल में संसद भंग हो चुकी है। नए चुनाव चार महीने में हो जाएँगे।समय से दो बरस पहले ये चुनाव होने जा रहे हैं। नेपाल की सियासत में यह तनिक अप्रत्याशित माना जा रहा है। असल में प्रधानमंत्री के पी ओली अपने ही बुने जाल में फँस गए थे और अपने निर्णयों से पार्टी तथा देश में खलनायक जैसी छबि बना बैठे थे ।एक तरफ वे भारत से रिश्ता बिगाड़ कर आम अवाम में अलोकप्रिय हुए तो दूसरी ओर अपने ही वामपंथी सहयोगियों में अलग थलग पड़ गए। किसी विजातीय मुल्क़ की गोदी में बैठने का अब उनको खामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है, जब नेपाल चुनाव में जनादेश सुनाएगा।चीन ने उनका अपने हित में भरपूर इस्तेमाल कर लिया।अब उसने दूध में से मक्खी की तरह उन्हें निकाल फेंका है और उनके विरोधी अब चीन के इशारों पर नाचने के लिए तैयार बैठे हैं।सवाल यह है कि अब तक हिन्दुस्तान से रोटी-बेटी के रिश्ते वाले इस ख़ूबसूरत पहाड़ी देश का भविष्य भारत के लिए कितना मुफ़ीद होगा?
वैसे तो भारत की विदेश नीति में किसी पड़ोसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के लिए कोई स्थान नहीं रहा है।अलबत्ता जब उस देश ने भारतीय हितों को चोट पहुँचाना शुरू कर दिया तो फिर दख़ल भी अनिवार्य हो जाता है। बांग्लादेश का जन्म और पाकिस्तान से जंग कुछ इसी श्रेणी का मामला है।बीते सत्तर साल में अन्य पड़ोसियों के साथ संबंध उतार -चढ़ाव वाले भरे रहे ,मगर वे अंततः पटरी पर लौट आए। म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और मालदीव के साथ रिश्तों का अनुभव यही कहानी कहता है। एक समय श्रीलंका और मालदीव तो एक तरह से चीन के आभामंडल से चौंधियाए नज़र आने लगे थे। पर शीघ्र ही उन्हें भूल का अहसास हो गया। चीन ने श्रीलंका में महिंद्रा राजपक्षे, मालदीव में यामीन और नेपाल में के पी ओली को गुपचुप आर्थिक मदद दी थी। वे इस घूस से उपकृत थे और भारत को आँखें दिखाने लगे थे।इसके उलट भारत ने हरदम देश को सहायता दी। पद पर बैठे राज नेताओं को चोरी छिपे कभी आर्थिक लाभ नहीं पहुँचाया।इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि संबंधित पड़ोसी राष्ट्र के हित में हिन्दुस्तान ने हर संभव क़दम उठाया।चीन की कार्रवाई भारतीय नीति से एकदम अलग थी। उसने सिर्फ़ अपना स्वार्थ देखा और संबंधित देश के शिखर पुरुष को खरीदने का काम किया। नेपाल की विदेश नीति भी इसी का शिकार बनी ।
नेपाल में दोनों वामपंथी पार्टियों ने चुनाव पूर्व गठबंधन के कारण विजय हासिल की थी । बाद में दोनों दलों का विलय हो गया । एक नए दल के अस्तित्व में आने के बाद भी दोनों पुराने दलों के बीच विभाजक रेखा बनी रही ।प्रधानमंत्री ओली अपने प्रभाव और ताक़त को बढ़ाने की जोड़तोड़ में लगे रहे मगर पार्टी में अपने मूल समर्थकों को निराश करते रहे ।दूसरी ओर सह अध्यक्ष पुष्प दहल कमल प्रचंड ख़ामोशी से संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करते रहे । एक दल में दो स्पष्ट धाराएं बहती रहीं । आठ महीने से स्थिति विस्फोटक थी ।ओली ने जिस अध्यादेश के ज़रिए अपना कद बढ़ाने का प्रयास किया, उसे संगठन की स्वीकृति नहीं मिली थी ।यहां तक कि ओली के अपने गुट के वफादार लोग ही इस अध्यादेश से खफा थे । यह देश के लोकतांत्रिक ढांचे को चोट पहुंचाता था तथा अधिनायकवाद का रास्ता खोलता था । इस अध्यादेश के ज़रिए उन्हें अनेक संवेदनशील मामलों और नियुक्तियों में ख़ुद ही निर्णय लेने का हक़ मिल गया था। ज़ाहिर है कि चीन के पिछलग्गू बने ओली का विरोध तो होना ही था ।
दरअसल नेपाल में चुनाव भारत के लिए भी बड़े महत्वपूर्ण हैं । हिमालय की गोद में बैठा नेपाल भारत के लिए सामरिक दृष्टि से हमेशा बेहद महत्वपूर्ण रहा है इसलिए भारत ने भी उसकी परवरिश में कभी लापरवाही नहीं बरती ।हालिया वर्षों में इस मुल्क का झुकाव चीन की ओर हुआ है ।यह हिंदुस्तान को चिंता में डालने वाली स्थिति है क्योंकि नेपाल के लोग भारत में अधिकार से रहते हैं, आते जाते हैं, रोज़गार पाते हैं ।यहां तक कि भारतीय फ़ौज में भी नेपाली मूल के लोग बड़ी संख्या में हैं । इसका अर्थ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत का थल सेनाध्यक्ष नेपाली सेना का भी मानद मुखिया होता है ।नेपाल में चीन का बढ़ता प्रभाव भारतीय हितों के ख़िलाफ़ है ।अप्रैल में होने जा रहे चुनाव में भारत को खुलकर अपनी भूमिका निभानी होगी ।आखि़र वह अपने पड़ोस में भारत विरोधी किसी सरकार को कैसे स्वीकार कर सकता है ? भारत के लिए यही बेहतर है कि वहां नेपाली कांग्रेस की सरकार बने ,जो हमेशा भारत के समर्थन में रही है ।नेपाल की वामपंथी पार्टियों की जड़ें चीन तक फैली हैं ।इस वजह से उनका दोबारा सत्ता में आना भारत के लिए अनुकूल नहीं है ।