कैफी आजमी: एक सच्चे तरक़्की-पसंद की जिंदगी और शायरी का किस्सा

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कैफी आजमी अभी नौ-उम्र ही थे और शायर के तौर पर उनकी पहचान अभी उनके चंद दोस्तों तक ही सीमित थी कि वो बहराइच के एक मुशायरे में जा पहुँचे। मुशायरे की सदारत जिगर मुरादाबादी फरमा रहे थे। जिगर ने कुछ अपनी इश्कया गजल-गोई और कुछ मय के खुमार में जदीद नज्म-निगारी और उसके एहतजाजी विषयों की आलोचना शुरू कर दी। जिगर की ये बातें कैफी को बहुत नागवार गुजरीं। कैफी ने बरजस्ता जिगर की मुखालिफत में शेर कहे और बर-सर-ए-आम मुशायरे में पढ़ दिए। शेर ये थे,
तबीअत-ए -जब्र ये तसकीन से घबराई जाती है
हँसू कैसे हंसी कम्बख़्त तो मुरझाई जाती है
मेरे मुतरिब ना दे मुझको दावत-ए-नग़्मा
कहीं साज-ए-गु़लामी पर गजल भी गाई जाती है
जब जिगर ने ये शेर सुने तो जदीद नज्मों पर दिए गई अपनी टिप्पणी पर शर्मिंदा हुए और कैफी आजमी से माफी मांगी।
कैफी शुरूआत से ही रौशन-ख़्याली, एहितजाजी तबीअत और शायरी के दक़्यानूसी विषयों से गहरी नाराजगी के साथ आगे बढ़े थे। वो नहीं चाहते थे कि उर्दू शायरी या कोई भी फन सिर्फ़ सुरुर, दिल-लगी और वक़्त-गुजारी का जरीया बन कर रह जाये। वो शायरी को अपने उन ख़्यालात-ओ-जज्बात के इजहार के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे जो उनके दिल में दबे-कुचले, मज्लूम, शोषण का शिकार, सामाजिक और आर्थिक सतह पर गु़लामी की जिÞंदगी बसर कर रहे लोगों को देखकर पैदा हुए थे।
मजवाँ से लखनऊ तक
कैफी का जन्म आजमगढ़ के एक छोटे से गाँव मजवाँ में 1918 को हुआ था। उनका खानदान पुराने ख़्यालात का जागीरदार खानदान था। जहाँ न शिक्षा थी और न नए ख़्यालात की वो आजादी जिसे लेकर कैफी जन्मे थे। भरे-पुरे खानदान में सिर्फ़ कैफी के पिता ही ऐसे थे जो किसी हद तक तालीम-याफ़्ता थे और चाहते थे कि उनके बच्चे भी गाँव की फिजा से बाहर निकल कर शिक्षा प्राप्त करें।
खानदान की शदीद मुखालिफत के बावजूद कैफी के पिता अपने बच्चों को लेकर लखनऊ आ गए और अवध की रियासत तलहरा में तहसीलदार की नौकरी करने लगे। कैफी आजमी लिखते हैं, अब्बा के इस फैसले से खानदान में कोहराम मच गया कि ये कितना गलत कदम है। अपना राज-पाट छोड़ कर नौकरी कर ली और सारे जमीन-दारों की नाक कट गई।?
कैफी आठ भाई बहनों में सबसे छोटे थे। पिता ने कैफी के तीन बड़े भाईयों को आधुनिक शिक्षा की तरफ लगा दिया था। कैफी की चार बहनें बद-किस्मती से एक खतरनाक बीमारी का शिकार होकर यके-बाद-दीगरे गुजर गईं थीं। जिससे दुखी हो कर कैफी के पिता ने सोचा कि ये मुसीबत हम पर इसलिए न आई है कि हमने सभी बच्चों को दुनियावी शिक्षा में डाल दिया है। सो उनके पिता ने फैसला किया कि कैफी को धार्मिक शिक्षा में लगाएँगे। ताकि मरते वक़्त कोई तो ऐसा हो जो हम पर फातिहा पढ़ सके।

सुल्तान-उल-मदारिस और मजहब पर फातिहा
पिता के इस फैसले के बाद बारह-तेरह बरस के कैफी को लखनऊ की एक मशहूर धार्मिक दर्सगाह सुलतान-उल-मदारिस में दाखिल करा दिया गया। कैफी की मजहबी तालीम जारी ही थी कि उन्हें मदरसे के कायदे-कानून, वहाँ की वय्वस्था, और मौलवियों की दुनिया से बेजारी पैदा हो गई। उन्होंने छात्रों की एक अन्जुमन बनाई और छात्रों की मांगों और उनकी जरूरतों का एक खाका लेकर इंतेजामिया से भिड़ गए। मदरसे के मौलवियों के बनाए हुए उसूलों और जाबतों के खिलाफ कैफी और उनकी बनाई अंजुमन का एहतिजाज और स्ट्राइक का सिलसिला तकरीबन एक साल तक जारी रहा।
इन दिनों कैफी हर रोज इन्किलाबी नौईयत की एक नज्म कहते और तलबा के जलूस में उसे पढ़ते ताकि विरोध प्रदर्शन में भाग ले रहे छात्रों के इरादों को मजबूत किया जा सके। मदरसे के छात्र-विरोधी कानून के खिलाफ कैफी की इस जद्द-ओ-जहद ने ही उनके दिल में दबी हुई इनकेलाब और एहतिजाज की चिंगारी को एक शक्ल दी और उनकी शायरी को एक मौका दिया।


कैफी लिखते हैं, मेरी शायरी की इब्तिदा एक रिवायती गजल से हुई थी लेकिन इस स्ट्राइक के दौरान गजल-गोई छूट गई और मैं एहितजाजी शायरी करने लगा। रोज एक नज्म लिख कर लड़कों को सुनाता और उनमें जोश पैदा करता
स्ट्राइक के नतीजे में कैफी को मदरसे से निकाल दिया गया और उनके पिता का सपना की कैफी मजहबी आलिम बन कर उनकी आखिरत में काम आएँ गए अधूरा रह गया। आयशा सिद्दीकी लिखती हैं, जो कैफी मदरसे में इस लिए भेजे गए थे कि फातिहा पढ़ना सीख जाएँ वो खुद मजहब पर फातिहा पढ़ कर वहाँ से निकल आए।
मुंबई का सफर और तहरीक से वाबस्तगी
लखनऊ के मदरसे के निजाम के खिलाफ कैफी की स्ट्राइक और उनकी इन्किलाबी नजमों का असर ये हुआ कि वो लखनऊ में मौजूद तरक़्की-पसंद लोगों की नजर में आ गए। अली अब्बास हुसैनी, एहतिशाम हुसैन, अली सरदार जाफरी और सज्जाद जहीर से उनकी मुलाकातें होने लगीं। कैफी की सलाहियतों, उनके इन्किलाबी जोश-ओ-जज्बे को देखकर सरदार जाफरी और सज्जाद जहीर उन्हें मुंबई ले आए। 1943 में कैफी ने मुंबई की राह ली और यहाँ एक शायर-ओ-सहाफी की हैसियत से चालीस रुपए महीना की तनख़्वाह पर काम करने लगे।
इन दिनों मुंबई सियासी और इन्किलाबी तहरीक का मरकज बना हुआ था। कैफी के लिए ये सारा माहौल बहुत साजगार साबित हुआ। उन्हें वो मैदान मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी। राज बहादुर गौड़ लिखते हैं, मुंबई आने के बाद कैफी मजदूरों में रहने लगे उन्हें शेर सुनाते, उनके दुख-दर्द को सुनते, कौमी जंग में लिखते और कौमी जंग को सड़कों पर बेचते फिरते?
मुंबई आने के कुछ महीने बाद ही कैफी का पहला काव्य संग्रह झनकार प्रकाशित हुआ। जिस पर तरक़्की-पसंदों के सालार सज्जाद जहीर ने अपनी राय देते हुए लिखा था,

जदीद उर्दू शायरी के बाग में एक नया फूल खिला है, एक सुर्ख़ फूल
ये सुर्ख़ फूल वक़्त के साथ-साथ और सुर्ख़ होता गया।


मुंबई की कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ने के बाद कैफी को नागपाड़ा इलाके की रीज्नल कमेटी का सिक्रेटरी बना दिया गया था। कैफी ने वहाँ रह कर मजदूरों को इखट्टा करने की कोशिश की और उन्हें उनके हुकूक के लिए जागरुक किया। ये सारे संघर्ष और ये सारी जिद्द-ओ-जहद कैफी आजमी की शयारी के लिए गिजा फराहम कर रही थी। कैफी की शायरी उस तरक़्की-पसंद की शायरी नहीं थी जो ड्राइंग-रूम में आराम से बैठ कर मिस्रे जोड़ रहा हो। कैफी तो इस जद्द-ओ-जहद और संघर्ष का हिस्सा थे जो सड़कों, गलियों और मौहल्लों में किया जा रहा था। कैफी मुंबई के गली-कूचों में जाते, तकरीरें करते, अपनी नज्में सुनाते और कभी-कभी मार भी खाते। उनकी मशहूर नज्म मकान इसी दौर की यादगार है जब वो मदनपूरा के फुट-पाथ पर बैठे अपने दुख-दर्द को मिस्रों में ढाल रहे थे।


आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फुट-पाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी
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नज्म औरत की मकबूलियत
उन्हीं दिनों कैफी ने अपनी मशहूर नज्म औरत लिखी। इस नज्म की मकबूलियत का ये आलम था कि कैफी जहाँ जाते, जिस मजलिस में होते उनसे ये नज्म सुनी जाती। कैफी अभी नौजवानी ही थे लेकिन औरत और उसके वुजूद को देखने का उनका नजरिया बिलकुल मुख़्तलिफ था। वो जिन शदीद लफ़्जों में औरत की आजादी और खुद-मुख़्तारी का तराना गए रहे थे उसने उन्हें अपने वक़्त के शायरों में बहुत मुम्ताज बनाया दिया था।


उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
कल्ब-ए-माहौल में लर्जा शरर-ए-जंग हैं आज
हौसले वक़्त के और जीस्त के यक-रंग हैं आज
आबगीनों में तपाँ वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम-आवाज ओ हम-आहंग हैं आज
जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
पूरी नज्म के लिए क्लिक कीजिए


कैफी की पत्नी शौकत कैफी एक शेरी मजलिस का जिÞक्र करते हुए लिखती हैं, जब एक छोटी सी निजी महफिल में वाई बी चौहान ने ये नज्म सुनी तो बोले, कैफी को सदियों तक जिÞंदा रखने के लिए ये एक नज्म ही काफी है।

शौकत कैफी से मुलाकात, मुहब्बत और शादी

यही वो नज्म थी जिसने शौकत को भी बहुत प्रभावित किया था और कैफी आजमी में उनकी दिलचस्पी को बढ़ावा दिया था। शौकत और कैफी की मुलाकात हैदराबाद में हुई थी। यहाँ कैफी 1947 में एक मुशायरे के लिए पहुँचे थे। उस जमाने में उनकी मकबूलियत का एक दूसरा ही आलम था। शौकत जो उस वक़्त तक शौकत कैफी नहीं बनी थीं, बताती हैं, हैदराबाद के वीमेंस कॉलेज में कैफी की तस्वीरें 25 और 30 रूपयों में बिका करती थीं। कैफी लड़कियों के बहुत महबूब शायर थे?
हैदराबाद में कैफी अपने तरक़्की-पसंद दोस्तों सरदार जाफरी और मजरूह सुलतानपुरी के साथ मुशायरा पढ़ने पहुँचे थे। सुनने वालों में शौकत भी मौजूद थीं। आगे का किस्सा शौकत कैफी खुद सुनाती हैं,
मैं दुबली-पतली सी लड़की सेहर-जदा बैठी थी, इस नौजवान की गरजदार आवाज सुनकर सेहर-जदा हो रही थी। मुशायरा खत्म हुआ, कैफी को लड़कियों ने घेर लिया, आॅटोग्राफ के लिए। मुझे अच्छी तरह याद है कैफी की उस वक़्त की पोजीशन किसी हीरो से कम नहीं थी। जब ये दुबली-पतली लड़की अपनी आॅटोग्राफ बुक लेकर उनके पास पहुँची तो कैफी ने शरारत से एक बे-अर्थ शेर उस पर लिख दिया। उस लड़की की खुद्दारी को बहुत ठेस लगी। जब घर पहुँची तो सीढ़ीयाँ चढ़ते हुए इस लड़की ने शिकायत की, आपने हमारी आॅटोग्राफ बुक पर इतना बुरा शेर क्यों लिखा? कैफी मुस्कुराए और इसी लहजे में बोले, आपने सबसे पहले हम से आॅटोग्राफ क्यों नहीं लिया? दोनों खिलखिला कर हँस पड़े और आँखों ने आँखों से कुछ कहा, कैफी की नज्म के इन मिस्रों की तरह,
दो निगाहों का अचानक वो तसादुम मत पूछ
ठेस लगते ही उड़ा इश्क शरारा बन कर
शौकत आगे बताती हैं कि, उन आँखों के तसादुम ने घर वालों में एक हंगामा-खेज तसादुम बरपा कर दिया था। लेकिन तमाम मुखालिफतों के बावजूद कैफी और शौकत की शादी हो गई।

हुकूमत की ज्यादतियाँ, रूपोशी और कैफी की मुश्किलें
शादी के बाद शौकत और कैफी मुंबई आ गए। अब कैफी अकेले नहीं थे उनके साथ शौकत भी थीं, उनके कामों में सहारा देतीं हुईं। कैफी के काम ही क्या थे, मजदूरों के बीच रहना, उन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना और पार्टी के नजरियात को आम करने में जी-जान से मेहनत करना। शौकत कैफी बताती हैं, ह्वहम कई-कई मील दूर पैदल चल कर जुलूस निकालते, इन्किलाब जिÞंदाबाद, कम्यूनिस्ट पार्टी जिÞंदाबाद, किसान मजदूर की जय हो का नारा लगाते।
एक वक़्त वो आया जब पार्टी हुकूमत की ज्यादतियों का शिकार हुई और उसके लीडरों को जेलों में डाला जाने लगा तो कैफी रुपोश हो गए। अंडर-ग्राउंड रह रहे कैफी से शौकत की मुलाकातें महीनों में होतीं। शौकत कैफी लिखती हैं, एक बार महीनों बाद उनसे अँधेरी के एक घर में मुलाकात हुई तो उन्हें पहचाना ही नहीं। उन्होंने मूँछें रख ली थीं, मैंने कहा, तौबा क्या शक्ल बना ली है, बिल्कुल पुलिस कांस्टेबल लगते हो। कैफी हंसकर बोले, इसी लिए तो जेल जाने से बचा हुआ हूँ। ये दिन कैफी और शौकत के लिए आर्थिक तौर पर बहुत सख़्त थे। पार्टी कामों में लगे रहने से कुछ पैसे मिलते थे लेकिन वो इतने कम थे कि दोनों की मुश्किल से गुजर-बसर होती थी। इसी दौरान शौकत और कैफी के एक बच्चा पैदा हुआ जो चंद महीनों के बाद ही गुर्बत की वजह से एक बीमारी का शिकार हो कर मर गया। बच्चे की मौत ने शौकत और कैफी को हिला कर रख दिया।
इसके बाद शौकत ने एक बेटी को जन्म दिया। जिसका नाम शबाना रखा गया। हमारे आज के समय की प्रसिद्ध अदकारा शबाना आजमी। शबाना की पैदाइश के बाद कैफी ने इरादा कर लिया था कि अपने दूसरे बच्चे को गुर्बत और पैसे की कमी होने की वजह से नहीं मरने दूँगा। शौकत कैफी लिखती हैं, कैफी को ये फिक्र थी पहला बच्चा तो गुर्बत की नजर हो गया। अब इस बच्ची के लिए उन्हें पैसा कमाना चाहिए।

फिल्मों से वाबस्तगी
शबाना की परवरिश और घर की जरूरतों को पूरा करने की जिÞम्मेदारी का यही एहसास था कि कैफी गाने लिखने के लिए फिल्मी दुनिया की तरफ चले गए। वर्ना उनके लिए पार्टी, पार्टी के नजरियात और उनकी तशहीर और गरीब अवाम के बीच होना सबसे बुनियादी काम था। वो फिल्मों में लिखने के साथ अपने इन कामों को भी वैसे ही करते रहे।
कैफी ने फिल्मों के लिए गाने के इलावा मुकालमे, मंजरनामे और कहानियाँ भी लिखीं। जिसके लिए उन्हें फिल्म फेयर के कई अवार्ड से भी नवाजा गया। कागज के फूल, हकीकत, हीर राँझा, गर्म हवा वगैरा उनकी अहम फिल्में हैं।

शबाना के लिए तोहफा
शौकत कैफी आर्थिक बदहाली के इन्हीं दिनों का एक और किस्सा सुनाती हैं। बताती हैं, शबाना छोटी थी और उसे आम बहुत पसंद थे। घर में ज्यादा पैसे होते नहीं थे इसलिए आम कम ही खरीदे जाते थे। एक बार शबाना अपनी दोस्त पर्ना के घर से दो दर्जन आम ले आई और खुश हो कर मुझे बताने लगी, मम्मी पर्ना के गाँव से आम आए थे तो उन्होंने इतने सारे आम मुझे भी दे दिए शौकत आगे लिखती हैं, कैफी के दिल में ये बात तीर की तरह चुभ गई। बोले कुछ नहीं?
बीमारी के बाद जब उन्हें अपने गाँव में रहने का ख़्याल आया तो पहला काम कैफी ने ये किया कि मलीहाबाद से आम के सैकड़ों पेड़ गाँव ले गए और जब पाँच साल बाद बाग में आम आए तो सबसे पहले कई सौ आम शबाना के लिए ले कर मुम्बई आ गए।

1973 के बाद के कैफी
1973 को कैफी फालिज का शिकार हुए। ये वक़्त ना सिर्फ़ कैफी बल्कि उनके घर के लोगों और उनके चाहने वालों, सभी के लिए मुश्किल का वक़्त था। लेकिन लंबे ईलाज के बाद वो सेहतयाब हो गए।
कैफी अब मुंबई की जिÞंदगी से उकता गए थे। न अब मुंबई वो मुंबई रह गया था जो उस वक़्त था जब कैफी वहाँ पहुँचे थे। उनके सारे तरक़्की-पसंद दोस्त बिखर गए थे। तहरीक के कामों में भी वो शिद्दत न रही थी जिसके कैफी आदी थे। कैफी ने जिÞंदगी के बाकी बरस अपने गाँव मजवां में गुजारने का फैसला किया। कैफी जब मजवां पहुँचे तो उन्हें इस इलाके की बदहाली को देख बहुत दुख हुआ। कैफी की इन्किलाबी तबियत ने फिर सँभाल लिया और वो इस इलाके की तरक़्की और फलाह-ओ-बहबूद में लग गए। बहुत कम समय में कैफी ने मजवां की तस्वीर बदल कर रख दी। कैफी को गाँव में रहना अच्छा लगता था। वो कहते थे, मैं किसान हूँ, मुझे जमीन से प्यार है और मुझे जमीन पर रहना अच्छा लगता है।

सच्चा तरक़्की-पसंद
कैफी की जिÞंदगी, उनकी फिक्र और उनके कामों को देखा जाए तो समझ में आता है वो एक सच्चे तरक़्की-पसंद के तौर पर अपना जीवन जी रहे थे। उन्होंने मजदूरों, गरीबों और मजलूमों की हिमायत में सिर्फ़ शायरी ही नहीं बल्कि सड़कों पर आकर उनके लिए आवाज उठाई, नारे लगाए, लाठीयाँ खाईं और अपना जीवन हर तरह से उनके करीब रह कर गुजारा। जिÞंदगी की इस सरगर्मी से हासिल होने वाले तजुर्बे को शायरी का रूप दिया। सज्जाद जहीर कैफी की शायरी के बारे में लिखते हैं,
कैफी की शायरी कदीम-ओ-जदीद किस्म की अदबी गलाजतों से पाक है। इस में सच्ची तरक़्की-पसंदी की झलक नजर आती है। यही सच्ची तरक़्की-पसंदी की झलक है जो आज भी कैफी की शायरी को जिÞंदा और बा-मानी बनाए हुए है।