यादें, एक बार फिर..: तब तक बचपन को संवारती रहीं ये बाल पत्रिकाएं और कॉमिक्स

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Jaipur se Rajeev Saxena

ग्यारह -बारह की उछलती – कूदती उम्र के दौर में स्कूल के होमवर्क के बाद बचा वक़्त… अधिकतर तो घुटने को छिलवाने… कराहने और मां के हाथों से मलरम पट्टी करवाने… हल्दी मिला ग़र्म दूध पीने में बीतता रहा…
शाम को दफ़्तर से लौटते हुए, सरकारी लायब्रेरी से पिताजी की लाई हुई बाल पत्रिकाएं… बाकी वक़्त को सम्हाल लिया करतीं…

‘चंदामामा’… के लिए घर के सदस्यों में तकरीबन हर बार मीठी सी तकरार का माहौल बनता…
कवर से लेकर भीतर के पन्नों पर… राजा रानियों…पंडित, साधुओं… विक्रम – बैताल… भूत पिशाचों… परियों के दक्षिण भारतीय शैली के केरिकेचेर्स… और मन लुभावन किस्सों कहानियों को हम चार भाई – बहन और मां पिताजी तक सब… एक बार में ही पढ़ डालने की जैसे प्रतिस्पर्धा तक करते…

‘पराग’..और ‘नंदन’ मेरी खास पसंद रहीं…’चम्पक’, ‘लोटपोट’ और ‘मधु मुस्कान’ के अलावा…’इंद्रजाल’ और ‘राजन इक़बाल’ के कॉमिक्स… उस समय के अर्ध बौद्धिक मनोरंजन का हिस्सा बने…

पिताजी की सरकारी नौकरी के चलते तबादलों के क्रम में गृहनगर राजगढ़ से विदिशा..अंबिकापुर होते हुए जबलपुर… आते आते… बाल पत्रिकाओं – कॉमिक्स में गहरी पैठ ने सोलह से सत्रह के बीच ही लिखने का कीड़ा जगा दिया…

टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन की “पराग” में तब संपादक हुआ करते थे कन्हैयालाल नंदन… आधे छपे, आधे उनके हाथ के लिखे दर्ज़नो पोस्टकार्ड्स लम्बे समय मेरे संग्रह में बने रहे..

राजगढ़ में छठी क्लास में पढ़ते हुए अपनी तरह की रूचि वाले मित्रों अवनीश शर्मा.. सुनील शर्मा… पंकज बिरमाल… आशुतोष बिरमाल.. सुनील विजयवर्गीय को लेकर “पराग बाल सभा” बनाई, जिसमें सब अपनी अपनी कविता कहानियाँ पढ़ते और गोष्ठी की रिपोर्ट संपादक जी को भेजते.. हमारे फोटोग्राफ सहित जब रिपोर्ट डाक से मिले पराग के अंक में जब… छपी हुई मिलती तो सच मानिये उस ख़ुशी को यहां बयान करना मुश्किल है.. मैगज़ीन की एक या दो प्रतियाँ.. घर घर घूम कर वापस मेरे हाथ में आती… उसकी हालत पर एक दो आंसू का टपकना स्वाभाविक था.. एक अलग उत्साह.. की ये शुरुआत रही…

याद आ रहा है, वो दिन भी… जब… जबलपुर के अधारताल के शासकीय बँगले में… डाकिये ने चंदामामा की चार प्रतियों का बंडल मेरी बड़ी बहन कुमुद दीदी के हाथों में सौंपा… साथ में पचहत्तर रूपये का मनी आर्डर मेरे नाम से देखकर सत्रह की टीन ऐज में यकायक विश्वास नहीं हुआ… आनन फानन में दीदी के हाथों से बंडल झपट कर खोला और पत्रिका के चार पांच पन्ने पलटे… सामने ” अवंतिका के चरवाहे की सूझ – बूझ ” शीर्षक से अपनी लिखी कहानी को वही जानी पहचानी शैली के चित्रों के साथ छपा देखा…

उत्साह…मिश्रित ख़ुशी में उछलते पूरा घर… सर पर उठाने का मेरा ये पहला और आखिरी मौका था… उस दिन तो घर का हीरो ही साबित हुआ… और… अगले दिन से चाहे अनचाहे… गंभीरता का एक मुखौटा स्वतः ना जाने कहां से चेहरे पर कब्ज़ा जमा गया… बचपन का शायद अनकहा सा अंत…

फिर… ‘पराग’.. ‘नंदन’.. ‘चम्पक’.. ‘मधु मुस्कान’ तक लगातार पहले ही साल में दर्जनों बाल सुलभ कहानियों का प्रकाशन…तब हर दिन स्कूल से आने के बाद निगाहों में पोस्टमैन अंकल की प्रतीक्षा और कल्पनाओं में… पत्रिकाओं में छपी अपनी रचनाएँ… आठवीं… नवमी.. दसवीं तक पिताजी का ध्यान इस नये उपक्रम पर संभवतः तब तक नहीं गया था… जब तक कि सालाना परीक्षा परिणाम प्रथम श्रेणी यथावत रहे…

ग्यारहवीं यानी हायर सेकंडरी की परीक्षा में जैसे ही डिवीज़न… एक पायदान नीचे उतरा.. पिताजी की भंवें तन जाना स्वाभाविक थी… बौद्धिक रूचि पर उनकी नाराज़गी का हल्का सा प्रहार…ये सब बंद करो… साइंस के अलावा कुछ नहीं ध्यान देना है…तब विचलित जरूर कर गया था… पर उनकी ताकीद का असल अर्थ आज समझ में आ रहा है…

सत्रह से सेंतीस तक… देश के हर बड़े अख़बार, पत्रिका.. संडे मेल, सन्डे ऑब्जर्वर, राष्ट्रीय सहारा, फिल्मफेयर हिंदी, नवभारत टाइम्स, कादम्बिनी, सरिता…दिनमान टाइम्स.. से लेकर राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, नई दुनिया, दैनिक जागरण, नवभारत .. तक छपास का जूनून बना रहा…रोजी रोटी की जुगाड़ ने…अख़बार की नौकरी.. रेडियो, टेलीविज़न में अस्तित्व की तलाश की मृगमरीचिका से जो साक्षात्कार करवाया…उसने तमाम खट्टे – मीठे अनुभवों के स्याह अक्षरों से संघर्ष की नई परिभाषा लिखी…

तमाम विडम्बनाओं के बीच, बचपन के बौद्धिक तौर से संवरने का सुखद अहसास अवश्य रहेगा… जो ‘रिक्त बैंक बैलेंस’ के चलते..
‘दिमाग़ी उपलब्धियों के खाते को समृद्ध’ कर जीवन से जूझने का माद्दा पैदा करने में तो कामयाब ही रहा है…

नन्हें हाथों की मासूम अंगुलियों को ‘स्मार्ट फोन’ पर फिसलते देख ‘बौद्धिक’ कम ‘यांत्रिक’ बनते जाने का अंदेशा चिंतित करनेवाला है… ब हर हाल, ‘हर युग के अपने अलग प्रतिमानों’ के लिए शुभकामनायें ही होनी चाहिए..