… the reservation of farmers’ subsidy will also be opposed like reservation
महंगाई के दौर में ऐसे भाव उपजना स्वाभाविक ही है। चिंता की बात तो यह है कि ऐसा ही वातावरण बनता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आरक्षण के विरोध जितना ही नफरत भरा विरोध किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं का भी होगा। तब कोई वास्तविक स्थिति को देखने, सुनने और समझने को तैयार न होगा।किसानों को मिलने वाली सुविधाओं के बारे में कोई भी राय कायम करने के पहले यह जानना जरूरी है कि कृषि का बजट जरूर बढ़ रहा है मगर किसानों की हालत नहीं सुधर रही। सरकारों को यही लगता है कि बजट बढ़ा देने से कृषि की हालत बदल जाएगी मगर ऐसा होता नहीं है। जरा, इस आंकड़ें पर गौर कीजिए, 2015-16 में कृषि का केन्द्री य बजट तकरीबन 15 हजार करोड़ रुपए का था, जो 2016-17 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर तकरीबन 36 हजार करोड़ रुपए हो गया। 2017-18 में यह बढ़ कर 41 हजार करोड़ रुपए हो गया पर कृषि विकास दर औसत 2.1 फीसदी रह जाने का अनुमान है, जो 1991 के बाद सबसे कम है।
आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 2003-04 के बाद बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों में लगभग 1000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन किसानों को मिलने वाले कर्ज का प्रतिशत कम होता जा रहा है। कृषि कंपनियों के कर्ज बढ़ते जा रहे हैं। छोटे किसान और सीमांत किसानों को अब भी व्यावसायिक बैंकों से कर्ज नहीं मिलता है। वे पैसे के लिए महाजनों, साहूकारों पर ही निर्भर हैं।
राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण कहता है कि किसान परिवारों की आय औसत 6426 रुपए मासिक है। इसमें खेती, पशुपालन, गैर कृषि आय और मजदूरी आदि सब शामिल हैं पर उनका व्यय 6223 रुपए महीना है। यानि उनकी अधिकांश कमाई खाने-पीने, कपड़ों आदि पर ही खर्च हो जाती है और खेती के कार्यों के लिए उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। एसौचेम की एक रिपोर्ट के अनुसार दूध और फल सब्जियों के नष्ट हो जाने से किसानों को सालाना 92 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। इस नुकसान से बचने के लिए कोल्डचेन के बुनियादी ढांचे में भारी निवेश की आवश्यकता है। लेकिन यह व्यवस्था करने की चिंता किसी को भी नहीं है।
कृषि नीतियों के विश्लेषक देविन्दर शर्मा का यह कहना महत्वपूर्ण है कि जब किसान दाम न मिलने के कारण आलू सड़कों पर फेंक रहे थे तब उसी आलू से बनी चिप्स के 50 ग्राम के पैकेट 20 रुपए में बेचे जा रहे थे। यानि किसान से पांच से सात रुपए प्रति किलो में खरीदा गया आलू प्रोसेस करके चिप्स बना कर 400 रुपए प्रति किलो में बिकता है। ऐसा ही कुछ हाल टमाटर का भी है। झाबुआ में दो रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर दिल्ली, मुंबई और चंडीगढ़ में 18-25 रुपए प्रति किग्रा में बिक जाता है। अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन स्टोर पर टोमैटो सॉस की कीमतें देखिए तो एक किलो टोमैटो सॉस की कीमत 399 रुपए होती है। यानि, पूरा खेल बाजार और विपणन असंतुलन का है।
इन सारे आंकड़ों को बहुत गहराई से भी नहीं तो सतही ढंग से समझने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि किसानों को उतनी सुविधाएं नहीं मिल रही जितनी बताई जाती हैं। व्यवस्था में, लाभ लेने के नियमों में, क्रियान्वयन तंत्र में बहुत कमियां हैं। सरकार बजट बढ़ाकर उनकी समस्याओं से आंख फेर लेती है। वह यह भूल जाती है कि कृषि का विकास केवल बजट बढ़ाने से नहीं होगा। अभी भी संभलने का समय है वरना जल्द ही खाली हाथ किसान भी हमारे कोपभाजक बन जाएंगे।
