छबि चमकाने के तरीक़े कितने अलोकतांत्रिक

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राजेश बादल


दुनिया भर में कोरोना महामारी एक भयावह त्रासदी की शक़्ल में सामने है। डॉक्टरों ,वैज्ञानिकों ,राजनेताओं ,प्रशासकों और कारोबारियों से लेकर आम आदमी तक मौत के इस विकराल हरकारे से थर्रा उठे हैं। लेकिन सियासी जमातों को इससे शायद अधिक अंतर नहीं पड़ता दिखाई देता । वे उसी ढर्रे पर ज़िंदगी जी रहे हैं और इस देश को चला रहे हैं । यहाँ तक कि उनके अपने निजी उत्सवों पर भी कोई शोक या मातम की छाया नहीं दिखाई देती। अवाम के बीच वे अपनी छबि चमकाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं ।लोकतान्त्रिक राजनीति में दबे पाँव दाख़िल हो गई इस सामंती मनोवृति को इरादतन क्रूरता की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए।

हाल ही में एक हिंदी भाषी प्रदेश में जाना हुआ। उस दिन सत्ताधारी पार्टी के एक तीसरी पंक्ति के युवा नेता का जन्मदिन था।पूरी राजधानी बड़े बड़े कट आउट और बैनरों से पटी पड़ी थी। उस नेता के समर्थकों ने शहर भर में अपनी जेब से ख़र्च करके यह आडम्बर किया था। इन बैनरों में लिखा हुआ था कि जन जन के लाड़ले नेता को अमुक की ओर से मुबारक़बाद। इसके बाद ढेर सारी तस्वीरें उस विशाल पोस्टर में दिखाई दे रही थीं।यह एक व्यक्ति को जम्हूरियत का पर्याय बनाने का भौंडा उपक्रम था।उससे भी अधिक बेशर्म प्रदर्शन नेताजी के घर के सामने था। एक ढोल पर चंद नौजवान नाच रहे थे। किसी के चेहरे पर मास्क नहीं। सामाजिक दूरी का पालन नहीं।याने कोरोना से बचाव का कोई बंदोबस्त नहीं। पास में चार -छह पुलिसकर्मी खड़े थे।वह नेता मुस्कुराते हुए डिब्बे में लड्डू लेकर बाहर आया।स्थानीय चैनलों के पेड कैमरामेन और पत्रकार दौड़ पड़े।बाईट ली,फुटेज बनाया ,लड्डू खाए और चल दिए।किसी भी संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रतीक, व्यक्ति अथवा संस्था को उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा।
यह तस्वीर कमोबेश सारी राजनीतिक पार्टियों की है।देखने में बहुत छोटी ,मगर अत्यंत गंभीर। किसी सियासी संगठन में कोई पदाधिकारी बन जाए। नियुक्ति के बाद पहली बार शहर में आए। किसी का जन्मदिन आ जाए और केंद्रीय नेता प्रदेश के दौरे पर आए – इस तरह के बैनर ,पोस्टर ,समर्थक समूहों या फैन्स क्लबों के नारों से सार्वजनिक स्थान पट जाते हैं।शहर की पर्यावरण चिंता पर आँसू बहाने वाले आम के पत्तों और डालियों से स्वागत द्वार बना देते हैं। कई क्विंटल गुलाब और अन्य फूलों का छिड़काव हो जाता है। न केंद्रीय नेता को कुछ एतराज़ होता है और न संगठन की ओर से कोई कार्रवाई होती है। बल्कि कभी कभी तो केंद्रीय नेता ख़ुद ही ऐसा करने के निर्देश देते हैं।ऐसे आयोजनों की इन विद्रूपताओं पर समाज की तरफ से भी कोई नोटिस नहीं लिया जाता।गंभीर सवाल यह है कि जब लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व ही सब कुछ माना जाता है तो किसी एक व्यक्ति को महिमामंडित करने की परंपरा किसी राष्ट्र के लिए कितनी उचित है।क्या हम मध्यकाल की राजा या बादशाह – पूजन की मानसिकता पर फिर लौट रहे हैं,जिसमें महाराजा या सुल्तान को ईश्वर की तरह माना जाता था।उस धारणा के पीछे यही मंशा होती थी कि राजा कभी ग़लत कर नहीं सकता तथा हर मामले में वही अधिनायक निर्णय लेगा।भले ही वह देश के हित में हो या नहीं।इस संक्रमित और दूषित मानसिकता की वापसी भारत के लिए बेहद गंभीर चेतावनी है।
इस मानसिकता की पुनर्स्थापना के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए ? स्वतंत्रता के बाद हिन्दुस्तान पर हुक़ूमत करने वाले लीडर आज़ादी के आंदोलन से निकले खरे खरे नेता थे।चाहे वे पक्ष के रहे हों या प्रतिपक्ष के।लोग उनके आचरण पर भरोसा करते थे।उन नेताओं के चरित्र पर शंका नहीं होती थी।बाद की सियासी पीढ़ियों ने कुछ इस तरह गुलगपाड़ा किया कि राजशाही को संवैधानिक रूप से दफ़नाने के बाद भी भारत की मिट्टी से सामंती अंकुरण निकल आए।नवोदित नेताओं ने अपने महिमामंडन को राज करने की शैली का ही एक हिस्सा मान लिया।वे अपनी छबि चमकाने के लिए फेन्स क्लब बनाने लगे। काली कमाई से प्राप्त धन का इस्तेमाल इस तरह का प्रोपेगंडा करने में होने लगा।जिस देश में गांधी,नेहरू, लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी को सुनने के लिए लोग कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर आया करते थे,उसी देश में रैलियों के लिए एक ही पार्टी के नेता अपने अपने अनुयाइयों को बसों और ट्रैक्टरों में ढोकर ले जाने लगे।भले ही पार्टी एक है ,पर आजकल उसकी रैली में बसों या ट्रैक्टरों पर उस नेता की तस्वीर के साथ बैनर लगे होते हैं ,जो उन्हें भरकर लाता है।उन्हें लंच पैकेट देता है और सौ से पाँच सौ रूपए की दक्षिणा भी देता है।विडंबना है कि यही राजनीतिक दल अपने नेताओं की करतूत का बचाव यह कहते हुए करते हैं कि असल लोकतंत्र तो यही है।पार्टी के भीतर सबको स्थान मिलना चाहिए।कह सकते हैं कि सामंतशाही का युग फिर लौट रहा है।जिस क्षेत्रीय राजा की जितनी बड़ी सेना और समर्थक,उसका उतना ही बड़ा लोकतांत्रिक आधार।इस पर हम गर्व करें या शर्म।
गणतंत्र के ख़ोल में पनपते इन विषाक्त नमूनों को नियंत्रित नहीं किया गया तो दिन दूर नहीं ,जब भारतीय लोकतंत्र किसी अधिनायक के क़ब्ज़े में होगा और फिर हम टुकुर टुकुर देखते रहेंगे। हाथ मलते रहेंगे।यह संघर्ष तो हमारी ज़मीन से निकले सियासतदानों के ख़िलाफ़ होगा। इसके लिए बरतानवी सत्ता को दोषी नहीं ठहरा सकेंगे।फिर ज़हरीली मानसिकता के इस उभार को दबाने का तरीक़ा क्या हो – यह यक्ष प्रश्न है।