हम अपना तंत्र क्यों नहीं सुधारना चाहते

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राजेश बादल

दो बरस पहले नवम्बर महीने में पेगसस के ज़रिए भारत में जासूसी पर चिंताएँ प्रकट की गई थीं। याने ठीक उन्ही दिनों हमें पता लग गया था,जब यह असंवैधानिक और आपराधिक कृत्य किया जा रहा था।यही नहीं,संसद में यह मामला उठा था।राज्यसभा में 28 नवम्बर 2019 को कांग्रेस ने इस पर सरकार से सफाई माँगी थी ।तत्कालीन इलेक्ट्रॉनिकी तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सदन में उत्तर दिया था।उस समय भी जासूसी की इन खबरों का आकार विकराल था और आज भी ताज़ा खुलासे के बाद हमारे अपने तंत्र पर सवाल उठ रहे हैं।अंतर इतना है कि उस समय अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव नहीं हुए थे।इज़रायली सॉफ्टवेयर पेगासस बनाने वाली कंपनी एनएसओ कहती है कि उक्त सॉफ्टवेयर सिर्फ़ लोकतांत्रिक मुल्क़ों को उनके राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए मुहैया कराया गया है।इसका मक़सद सिर्फ़ अपराधियों,क़ानून तोड़ने वालों,उग्रवादी संगठनों तथा माफिया गिरोहों से निपटने में किया जाना है।कंपनी के इस मासूम तर्क पर क्या कहा जाए।जिस दिन इस सॉफ्टवेयर का जन्म हुआ होगा,उस दिन से ही स्पष्ट है कि यह नकारात्मक हथियार है और हुकूमतें इसका दुरूपयोग विरोधियों से निपटने में करेंगीं।समीकरण समझने हों तो कहा जा सकता है कि अमेरिका और इज़रायल के रिश्ते छिपे हुए नहीं हैं।सूचनाएँ उस दौर की हैं ,जब डोनाल्ड ट्रंप गद्दी पर विराजमान थे और हिन्दुस्तान के बड़े प्रिय थे।वाशिंगटन पोस्ट,गार्जियन तथा इस ख़ुलासे में शामिल संस्थानों के वे कट्टर आलोचक रहे हैं।इन संस्थानों की उनसे कभी नहीं बनी।ट्रंप अगले चुनाव के लिए अत्यंत गंभीर मुद्रा में नज़र आते हैं तो जो बाइडेन को क्या करना चाहिए ? मैं इसका यह अर्थ लगाने के लिए आज़ाद हूँ कि ट्रंप के प्रिय राष्ट्रों की सरकारें बदनाम और अलोकप्रिय हो जाएँ और फिर अगले चुनाव तक डोनाल्ड ट्रंप को सहायता नहीं दे सकें – यह भी इस ख़ुलासे का एक अपवित्र उद्देश्य हो सकता है।ऐसे में उस दौर की सूचनाएँ उजागर करने का अर्थ यह है कि पेगसस जासूसी प्रसंग का अंतर्राष्ट्रीय फ़लक बहुत विकराल है। हिन्दुस्तान तो उसमें एक छोटा सा हिस्सा भर है।

भारत के नज़रिए से यह ख़ुलासा वाक़ई चिंता में डालने वाला है।यहाँ के अनगिनत लोगों की ज़िंदगी के राज़ फ़ोन से उजागर होते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है ?आम आदमी इज़रायल के किसी जासूसी सॉफ्टवेयर का निशाना बन जाए तो नागरिकों के पास मुक़ाबले के लिए कोई संसाधन और तकनीकी क़ाबिलियत नहीं है।मान लीजिए अगर वह सक्षम भी हो तो इस अपराध से लड़ाई उसे क्यों लड़ना चाहिए।ख़ास तौर पर उस हाल में,जबकि उसने अपने बेहद ताक़तवर हथियार याने वोट के माध्यम से मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए अपनी सरकार को ही अधिकृत कर दिया हो।गंभीर मसला यह नहीं है कि सरकार उस पत्रकार,राजनेता,विचारक या किसी आलोचक के हक़ की हिफ़ाज़त कर पाएगी या नहीं।महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या भारतीय सरकारी तंत्र भी इस जुर्म में शरीक़ है।यदि ऐसा है तो इसकी क्या गारंटी है कि जिस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल सरकारी तंत्र ने अपने आकाओं के आलोचकों पर शिकंजा कसने के लिए किया है,कल के रोज़ उस सॉफ्टवेयर का निशाना भारतीय सुरक्षा से जुड़ी संवेदनशील सूचनाओं को समंदर पार भारत के शत्रु देशों तक पहुँचाने में नहीं होगा।एक प्रधानमंत्री ,रक्षामंत्री,सेनाप्रमुख और परमाणु कार्यक्रमों से जुड़े विशेषज्ञों की जानकारियाँ भी सुरक्षित नहीं रहेंगीं।यदि ऐसा हुआ तो सभ्य लोकतंत्र में निर्वाचित हुक़ूमत के लिए इससे बड़ी नाक़ामी और कुछ नहीं हो सकती।व्यक्ति के तौर पर एक संपादक अपने मौलिक अधिकारों का कुचला जाना एक बार बर्दाश्त कर सकता है,लेकिन जिस दिन देश कुचला जाएगा,उस दिन कोई हुक़ूमत भी नहीं बचेगी।कहने में हिचक नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन दिनों जो साज़िशें चल रही हैं,उनका मुक़ाबला करने के लिए भारत की तैयारी अभी अत्यंत कच्ची और कमज़ोर है।

यक्ष प्रश्न है कि क्या दुनिया भर की सरकारों की तरह भारत सरकार के इशारे पर यह खुफ़ियागीरी कराई गई है ? भारतीय लोकतंत्र में यह कोई नई और अनूठी बात नहीं है।अतीत में इसकी कुछ मिसालें हैं।एक प्रधानमंत्री तो इस मुद्दे पर अपनी सरकार ही खो चुके हैं।इस तरह की जासूसी को भारतीय समाज ने कभी भी मान्यता नहीं दी है।जिस सरकार या व्यक्ति ने ऐसा किया,उसे इस हरक़त से क्षति पहुँची है।लाभ कुछ नहीं हुआ।भारतीय संविधान इसकी अनुमति नहीं देता कि चुनी हुई सरकार लोगों की जीवन शैली,आस्था,लोक व्यवहार,गुप्त क्रियाओं,धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक उत्सवों की ख़ुफ़िया निगरानी करे।यह निहायत जंगली,अभद्र,अशालीन और अमर्यादित आचरण है।भारतीय समाज इसे जायज़ नहीं मानेगा। दुनिया के तमाम देश इस पर क्या करते हैं, चर्चा बेमानी है।वैसे भारतीय क़ानून इस बात की इजाज़त तो देता है कि वह किसी की जासूसी अथवा फ़ोन की रिकॉर्डिंग कर सकता है।यदि कोई व्यक्ति या संस्था ऐसे अपराधों में लिप्त है,जो भारतीय अखंडता-एकता को नुक़सान पहुँचा सकता है तो उसे उजाग़र करने से कौन रोकना चाहेगा।यदि कोई आतंकवादी षड्यंत्र का भंडाफोड़ होता है तो उस पर किसे एतराज़ हो सकता है।भारत के वित्तीय,सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे को कोई ताक़त क्षतिग्रस्त करना चाहे तो उसके ख़िलाफ़ सारा देश अपनी सरकार का साथ देगा।लेकिन संदेह की सुई उस तंत्र की ओर इशारा कर रही हो,जो हमारे हित संरक्षण के लिए बनाया गया है तो फिर अंजाम की कल्पना की जा सकती है।इसके बावजूद भारत में जासूसी षड्यंत्र के पीछे के इरादों की जानकारी अवाम को पाने का अधिकार है।मुल्क़ इस पर केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण की माँग करता है।ऐसा नहीं करने पर उसे लोगों की जलती निगाहों का सामना करना पड़ेगा।