राजेश बादल
पार्टी कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस के आक्रामक तेवर सकारात्मक माने जा सकते हैं ।लंबे समय से चली आ रही उहापोह की स्थिति पर विराम लगा है । इस बैठक के बहाने पार्टी आलाकमान ने एक तीर से अनेक निशाने कर डाले हैं । यकीनन इसका लाभ मुल्क की इस बुजुर्ग पार्टी को आने वाले विधान सभा चुनावो में मिल सकता है । यदि ऐसा होता है तो हिंदुस्तान में लोकतांत्रिक जड़ें और मज़बूत होंगी । पक्ष या शासन में बैठा दल बेशक ताकतवर और स्पष्ट बहुमत वाला होना चाहिए,लेकिन यदि उसके मुकाबले में प्रतिपक्ष लगातार निर्बल और बारीक होता जाए तो यह अच्छी नहीं मानी जा सकती ।इस लिहाज़ से भारतीय जनता पार्टी के लिए भी यह संतोष की साँस लेने का वक़्त है।इस देश ने वह सियासी दौर भी देखा है ,जब विपक्ष एकदम कमज़ोर होता था तो सत्तारूढ़ दल ही विपक्ष के नेताओं के संसद में पहुँचने की राह आसान बनाता था।अब चूंकि कांग्रेस ने दशकों तक सरकारें चलाई हैं,इसलिए उसका दायित्व अन्य छोटे दलों से बड़ा है।कांग्रेस की सेहत सुधरने का फ़ायदा क्षेत्रीय पार्टियों को भी मिलेगा,जो इन दिनों भारतीय जनता पार्टी के सामने दिनो दिन बौनी और कमज़ोर होती जा रही हैं ।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से नेतृत्व पर उठ रहे कई सवालों का उत्तर मिल गया है। दूसरी पंक्ति के कुछ नेता यह प्रश्न काफी दिनों से उठा रहे थे कि पार्टी को पूर्णकालिक पेशेवर नेतृत्व नहीं मिल रहा है।पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफ़ा देने के बाद वे सोनिया गांधी को इस आधार पर पूर्ण अध्यक्ष नहीं स्वीकार कर पा रहे थे कि वे बाकायदा निर्वाचित नही हुई हैं और अंतरिम अध्यक्ष के रूप में तदर्थ व्यवस्था के तहत काम कर रही हैं।वैसे तो इस समूह का यह सोच मासूमियत से भरा ही था।पार्टी की परंपरा देखें तो गांधी नेहरू परिवार का कोई प्रतिनिधि कामचलाऊ ढंग से काम नहीं करता।अंतरिम व्यवस्था भी अध्यक्ष को संपूर्ण अधिकार ही देती है।ऐसे में असहमत समूह का यह तर्क गले नहीं उतर रहा था।यदि इस समूह का कोई सदस्य ख़ुद अध्यक्ष बनकर पार्टी संचालन की ज़िम्मेदारी लेना चाहता हो तो अलग बात है।कार्यसमिति की बैठक से यह भी साफ हो गया है कि ऐसी महत्वाकांक्षा वाले नेता अगले साल संगठन चुनाव में उतरने के लिए अपनी ज़मीन तैयार कर सकते हैं।पहले भी अध्यक्ष पद पर चुनाव के उदाहरण हैं।इस दृष्टि से नेतृत्व के बारे में उपजे भ्रम के बादल काफी हद तक साफ हो गए हैं।इसके बाद भी वे इस तरह के सवाल उठाना जारी रखते हैं तो उनकी नीयत ही संदेह के घेरे में आ जाएगी ।
इस प्रसंग में कार्य समिति की बैठक का समय भी महत्वपूर्ण है। कुछ समय बाद पांच प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होने हैं।इनमें उत्तरप्रदेश और पंजाब पर सबकी नज़रें लगी हैं।पंजाब में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक उथल पुथल ने मतदाताओं में उत्सुकता जगा दी है । पंजाब में कैप्टन अमरिंदर और नवजोत सिंह सिद्धू के द्वंद्व का खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ सकता है तो उत्तरप्रदेश में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे की लखीमपुर खीरी कांड में भूमिका ने बीजेपी को रक्षात्मक होने पर मजबूर किया है । मुख्यमंत्री योगी पार्टी के अंदर जिस तरह मोर्चेबंदी का शिकार हैं,उसे देखकर भी सत्तारूढ़ पार्टी को राहत नहीं मिलने वाली है । इस तरह दोनों ही शिखर पार्टियां इन राज्यों में जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। अलबत्ता एक दूसरे के राज्य में जनाधार बढ़ाने के अवसर तो देख ही रही हैं । लखीमपुर खीरी के हादसे के बाद कांग्रेस ने जिस तरह बेहद आक्रामक रवैया दिखाया है ,वह बिहार के बेलछी कांड की याद दिलाता है,जब 1977 के चुनाव के बाद एकदम अकेली पड़ीं इंदिरा गांधी ने वापसी की और नई पार्टी उनके साथ ही बन गई ।इस पार्टी ने तीन साल के भीतर ही फिर सत्ता हासिल कर ली थी । लखीमपुर कांड में महासचिव प्रियंका गांधी ने हल्ला बोल शैली में प्रचार का आग़ाज़ कर दिया है।प्रियंका ने बीते दो वर्ष में ख़ामोशी से इस राज्य में संगठन की धमनियों और शिराओं को मज़बूत किया है।पच्चीस साल में उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का ढांचा निर्बल होता रहा है।इस अवधि में पहली बार यह दल बिखरे हुए तंत्र को एकजुट करता दिखाई देता है।उनके प्रदर्शन में निरंतरता है।इसका लाभ उसे मिलेगा ।बसपा सुसुप्तावस्था में है और समाजवादी पार्टी भी अपने आप में उलझी हुई है ।दोनों पार्टियां कांग्रेस जनाधार की कोख से निकली हुई हैं और प्रदेश में भरपूर हुकूमत कर चुकी हैं।इस महादेश जैसे प्रदेश में सपा,बसपा और भाजपा को शासन का भरपूर मौका मिला है। उनके अंतर्विरोधों से कांग्रेस लाभ उठा सकती है बशर्ते चुनाव तक वह कोई रणनीतिक भूलें न करे ।
पंजाब में कांग्रेस को अपने प्रदेश अध्यक्ष के अस्थिर चित्त का वक्त रहते इलाज खोजना ज़रूरी है । कैप्टन अमरिंदर लगातार तीसरी बार कांग्रेस को विजय दिलाते नहीं दिख रहे थे । उन्हें हटाकर नया मुख्यमंत्री बनाने का प्रयोग कारगर हो सकता है मगर उससे पहले नवजोत सिंह सिद्धू पर सख्ती से नियंत्रण बनाए रखना गंभीर चुनौती है । पंजाब में कांग्रेस के लिए अनुकूल यही है कि अकाली दल ,बीजेपी और आम आदमी पार्टी अभी अपने अपने दम पर बहुमत प्राप्त करने का दावा नही कर सकते । लेकिन यदि कांग्रेस अपनी अंतर्कलह पर काबू नहीं पा सकी तो उसके लिए भी बहुमत का आंकड़ा दूर की कौड़ी हो जाएगा । कुछ दिनों से यह सवाल तैर रहे थे कि अमरिंदर को हटाना और सिद्धू को लाना वास्तव में किसका फ़ैसला था , सोनिया ,राहुल या फिर प्रियंका ने यह निर्णय लिया था । दरअसल इससे भ्रम की स्थिति बनी थी । कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद यह भ्रम दूर हो गया है कि सारे निर्णय राहुल या प्रियंका के दिमाग़ की उपज हैं । कांग्रेस के अपने नज़रिए से देखा जाए तो इस शिखर बैठक से एक बात और साफ हो गई है कि यूपीए और कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी स्वस्थ्य हैं। उनकी बीमारी के बारे में कुछ समय से अनेक कहानियां सामने आ रही थीं । इससे स्थानीय स्तर पर कार्य कर्ताओं के बीच हताशा बनने लगी थी । कार्यसमिति में सोनिया गांधी के तेवरों ने पार्टी में छाया कुहासा दूर कर दिया है ।