शिवराज-कमलनाथ ने उपचुनाव में झोंकी पूरी ताकत

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शशी कुमार केसवानी



17 साल सरकार चलाने के बाद भी शिवराज को उपचुनावों में दिन-रात एक करना पड़ रहा है, जिसका मुख्य कारण है उम्मीदवारों का लोगों से कमजोर संपर्क। वह स्थानीय मुद्दों पर कुछ न करना यह बहुत बड़ा कारण है। जिसकी वजह से मुख्यमंत्री, प्रदेश के कई मंत्री दिन रात उपचुनाव में जुटे हुए हैं। जिसके कारण प्रदेश में किसी भी प्रकार का दूसरा कोई कार्य नहीं हो पा रहा है। वहीं कांग्रेस के नेता कमलनाथ को लगता है कि जनता के बीच सरकार की नाराजगी व महंगाई के कारण चुनाव वहीं जीतेंगे पर जनता चुनाव में हमेशा अपने बीच नेता को पाकर उसे ही वोट देती है। हालांकि अब युवा वोटर उम्मीदवारों का चाल-चरित्र भी देखने लगे है पर चुनाव आते ही नेता अपना चाल-चरित्र इस तरह से बदल देते है जिससे लगता है कि वे मूलत: स्वभाव से ही बहुत ही सहज और सरल है पर ऐसा होता नहीं है। खंडवा लोकसभा सहित पृथ्वीपुर, जोबट और रैगांव विधानसभा उपचुनाव में जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे प्रचार अब जोर पकड़ने लगा है। आज हम रैगांव सीट की जमीनी हकीकत बताने जा रहे हंै। सतना जिले की रैगांव विधानसभा सीट बीजेपी के लिए साख का सवाल बन गई है। इस सीट पर कब्जा बरकरार रखने के लिए भाजपा जोर लगाती नजर आ रही है। आलम यह है कि राज्य के करीब आधा दर्जन मंत्री इस विधानसभा क्षेत्र में डेरा डाले हैं।

वहीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 7 बार दौरा कर चुके हैं। चुनाव मैदान में बीजेपी से प्रतिमा बागरी और कांग्रेस से कल्पना वर्मा के बीच कांटे की टक्कर का अनुमान जताया जा रहा है। अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व रैगांव सीट पर दलित वोटर्स उम्मीदवारों की जीत-हार में अहम हो सकती है। बीएसपी के चुनाव मैदान में नहीं होने से कांग्रेस में उम्मीद जगी है। कांग्रेस इस सीट पर 35 साल से नहीं जीती। कांग्रेस ने अब तक केवल 1980 और 1985 में यह सीट जीती थी। दोनों ही मुकाबलों में कांग्रेस के रामाश्रय प्रसाद ने बीजेपी के जुगल किशोर बागरी को हराया था। बीएसपी के वोट बैंक में बीजेपी सेंध लगाने की कोशिश में हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और 6 मंत्री किलेबंदी में जुटे हैं। यहां तक कि शिवराज ने दशहरा भी सतना में ही मनाया, जबकि कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री लखन घनघोरिया पिछले 2 महीने से यहां डेरा डाले हैं। कांग्रेस की ओर से अभी तक पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने कई सभाएं की हैं पर उन सभाओं का चुनाव पर कोई बहुत असर पड़ने के आसार नहीं है। अजय सिंह के भाषणों में वो धारदार बातें नहीं होती जो एक पूर्व नेता प्रतिपक्ष में होनी चाहिए।

अजय सिंह का शुरू से स्वभाव ऐसा नहीं रहा कि अपनी बातों को बड़ो जोर-शोर से कही भी रख सके। कांग्रेस-बीजेपी के उम्मीदवारों की बात करें, तो कल्पना जहां बीते विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस से प्रत्याशी रह चुकी हैं, जबकि प्रतिमा को बीजेपी ने पहली बार प्रत्याशी बनाया है। राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़ी प्रतिमा के पिता जयप्रताप बागरी और मां कमलेश बागरी दोनों ही एक ही कार्यकाल में जिला पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए थे। प्रतिमा को अनुभव के मामले में थोड़ा कमजोर माना जा रहा है। उन्हें पार्टी कार्यकर्ता होने के बावजूद पैराशूट कैंडिडेट बताकर प्रचारित किया जा रहा है। भाजपा की अब समस्या यह है कि भाजपा के लोग ही भाजपा को निपटाने में जुट जाते है। जबकि यह परंपरा सालों से कांग्रेस में रही है। साथ ही साथ बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि इस चुनाव में स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ महंगाई का मुद्दा भी हावी होता जा रहा है।

रैगांव विधानसभा 1977 से अस्तित्व में आई। पहला चुनाव 1977 में विश्वेश्वर प्रसाद जनता पार्टी से जीते थे। इसके बाद लगातार दो बार कांग्रेस प्रत्याशी रामाश्रय प्रसाद ने जीत हासिल की। 1990 में जनता दल के उम्मीदवार धीरज सिंह धीरू ने चुनाव जीता था, लेकिन यहां बड़ा परिवर्तन 1993 देखने को मिला, जब पिछले 3 बार से चुनाव हार रहे जुगल किशोर बागरी बीजेपी से विधायक चुने गए।1998 से 2003, 2008 तक जुगल किशोर बागरी चुनाव जीतते रहे, लेकिन 2013 में उनकी जगह उनके बड़े बेटे पुष्पराज बागरी को टिकट दे दिया गया। बसपा की उषा चौधरी से पुष्पराज चुनाव हार गए। यह सीट बसपा के कब्जे में चली गई। 2018 एक बार फिर से जुगल किशोर बागरी पर जनता ने विश्वास जताया। फिर से यह सीट बीजेपी के कब्जे में आ गई। 2021 में कोविड की चपेट में आकर विधायक जुगल किशोर बागरी का निधन हो गया। यह सीट रिक्त हो गई।

बीते चुनाव 2018 में रैगांव सीट में कुल 45% वोट पड़ थे। इसमें बीजेपी के जुगल किशोर बागरी को 65,910 वोट मिले थे। वह विजयी हुए थे, जबकि कांग्रेस उम्मीदवार कल्पना वर्मा को 48,489 वोट से द्वितीय स्थान पर थीं। इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी की प्रत्याशी ऊषा चौधरी ने भी 12 हजार से ज्यादा वोट पाकर तीसरे पायदान पर जगह बनाई थी। रैगांव सीट पर अनुसूचित जाति और ओबीसी वर्ग के मतदाता यहां प्रमुख भूमिका में होते हैं, जबकि सवर्ण वोटर्स पर भी दोनों दलों की नजर हैं। यहां अनुसूचित जाति वर्ग में चौधरी, कोरी और बागरी समुदाय के सबसे ज्यादा वोटर हैं। वहीं, ओबीसी वर्ग से कुशवाहा और पटेल समुदाय के मतदाता अहम माने जाते हैं। यही वजह है कि बीजेपी-कांग्रेस हो या बसपा ये तीनों दल संगठनात्मक रुप से इन वर्गों के बीच सक्रिय हो चुके हैं। साथ ही साथ स्थानीय उद्योगों और समस्याओं को लेकर उम्मीदवार से उम्मीद की जाती है कि उन समस्याओं को भलीभांति जानता हो और उन्हें निराकरण करने की क्षमता भी रखता हो। उपचुनाव अधिकतर उम्मीदवार के बल पर ही जीते जाते है। हालांकि पार्टी और नेता का भी रोल रहता है पर स्थानीय लोग उम्मीदवार से हमेशा यह उम्मीद करते हैं कि उनकी छोटी-छोटी समस्या तथा सुख-दुख में उनके साथ जुड़ा रहे। पर आजकल नेता चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र में दौरे भी कम करते हंै और जनता से भी कम मिलते हैं। इसी कारण से उन्हें चुनाव में बहुत मेहनत करनी पड़ती है तथा कई बार नतीजे भी उम्मीदों के विपरीत आ जाते है। इस बार देखते है जनता की उम्मीदों पर कौन खरा उतरता है।
जय हो…