राजेश बादल
मौजूदा दौर में अवाम खोखले नारों पर भरोसा नहीं करती। वह सपनों के सौदागरों को सत्ता की चाबी सौंपने से बचना चाहती है।समूचा भारतीय उप महाद्वीप कमोबेश इसी मानसिकता से गुज़र रहा है। इस नज़रिए से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान साख़ के गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं।एक तरफ़ आंतरिक मोर्चे पर उनकी नाक़ामी ने नागरिकों को निराश किया है तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मुल्क़ की प्रतिष्ठा लगातार दरक रही है। उन्हें कुरसी पर बिठाने वाले फ़ौजी हुक़्मरान भी अब महसूस करने लगे हैं कि एक खिलंदड़ क्रिकेटर को प्रधानमंत्री बनाने का प्रयोग विफ़ल रहा है। बीते दिनों आईएसआई प्रमुख को बदलने के बाद से सैनिक नेतृत्व के साथ इमरान ख़ान की पटरी नहीं बैठ रही है।उनके लिए यह नाज़ुक वक़्त है और ऐसे अवसर पर ही संयुक्त विपक्ष ने एक बार फिर उनके ख़िलाफ़ आंदोलन तेज़ कर दिया है। अब इमरान ख़ान के सामने दो विकल्प ही बचते हैं – वे आईएसआई और सेना के हाथों की कठपुतली बने रहें या फिर पद छोड़कर नया जनादेश हासिल करने की तैयारी करें। दोनों विकल्प जोखिम भरे हैं।सेना का रबर स्टांप बने रहने से वे किसी तरह कार्यकाल तो पूरा कर लेंगे लेकिन उनका समूचा सियासी सफ़र एक अंधे कुएँ में समा जाएगा।दूसरी ओर नए चुनाव कराने का रास्ता भी काँटों भरा है। उनके खाते में उपलब्धि के नाम पर एक विराट शून्य है,जिसके सहारे वे अपने दल को राजनीतिक वैतरणी पार नहीं करा सकते । याने एक तरफ कुआँ और दूसरी तरफ खाई की विकट स्थिति उनके सामने है।
दरअसल पाकिस्तान जैसे फ़ौज केंद्रित देश में कोई भी सरकार अपना लोकतांत्रिक धर्म नहीं निभा सकती। इस देश में सेना से रार ठानने का खामियाज़ा नवाज़ शरीफ़ और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जैसे कद्दावर राजनेता भुगत चुके हैं। वे तभी तक अपनी गद्दी को सुरक्षित रख पाए,जब तक सेना के इशारों पर नाचते रहे। जैसे ही वे सेना के सामने चुनौती बनने लगे,सेना ने उनके नीचे से जाजम खींच ली।लेकिन भुट्टो और नवाज़ शरीफ तथा इमरान ख़ान के बीच एक बुनियादी फ़र्क़ है।ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ अपनी सीमाओं में रहते हुए भी आम आदमी के लिए भला करते थे और पाकिस्तान की कंगाली पर भी रोक लगा कर रखते थे।वे अवाम को सपने दिखाते थे तो उन्हें साकार करने के प्रयास भी ज़मीन पर साकार होते दिखाई देते थे। उनके कार्यकाल में पाकिस्तान ने अनेक उपलब्धियाँ भी हासिल की हैं। लेकिन इमरान ख़ान की स्थिति इसके बिलकुल उलट है।इमरान ख़ान की छबि एक ग़ैर ज़िम्मेदार ,बार बार यू टर्न लेने वाले और रंगीन मिजाज़ राजनेता की है। वे बड़ी बड़ी बातें करते हैं।अपने से अधिक क़ाबिल लोगों को आगे नहीं आने देते। पाकिस्तान की तरक़्क़ी के वास्ते न उनके पास कोई आधुनिक पेशेवर कार्यक्रम है और न सोच। वे आत्ममुग्ध और किसी भी तरह सत्ता पर चिपके रहने वाले शख़्स हैं।इस कारण प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद वे चुनाव से पहले जनता से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं कर सके। मुल्क़ में मँहगाई चरम पर है। ग़रीबी और बेरोज़गारी विकराल रूप में सामने है। सरकार का ख़ज़ाना खाली है और इमरान ख़ान भिक्षापात्र लिए कभी विश्व बैंक तो कभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तो कभी चीन से गिड़गिड़ाते नज़र आते हैं।
आँकड़ों में न भी जाएँ तो सार यह है कि भारत के इस पड़ोसी का रोम रोम क़र्ज़ से बिंधा हुआ है और इमरान के सत्ता संभालने के बाद से स्थिति लगातार बिगड़ती गई है।औसतन पाकिस्तान के प्रत्येक नागरिक पर लगभग दो लाख रूपए का क़र्ज़ है।चीन ने अपना निवेश कम कर दिया है। उसे आशंका है कि पाकिस्तान अमेरिकी शरण में जा रहा है।काफी हद तक इसमें सचाई है। अमेरिका की निकटता पाने के लिए पाकिस्तान छटपटा रहा है।इस चक्कर में वह चीन का भरोसा खो रहा है।रूस भी बहुत सहायता करने के मूड में नहीं है।सऊदी अरब नाराज़ है और तालिबान के मामले में आतंकवाद को शह देने की इमरान ख़ान की घोषित नीति ने उन्हें विश्व में अलग थलग कर दिया है।फैज़ हमीद की आईएसआई प्रमुख के पद पर नियुक्ति के बाद सेना से इमरान ख़ान के मतभेद का कारण भी यही नीति रही है।अब तक तो परंपरा यही है कि सेना के साथ टकराव मोल लेने वाला अपनी कुर्सी की रक्षा नहीं कर सका है।इमरान ख़ान जनरल बाजवा के सामने तीन बार समर्पण की मुद्रा में आ चुके हैं। देखना होगा कि फौज उन्हें कब तक अभयदान देती है।
अंत में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इमरान ख़ान और सेनाध्यक्ष अपनी अपनी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते भी पाकिस्तान में आम अवाम के बीच बहुत भावनात्मक जुड़ाव महसूस नहीं करते। सेनाध्यक्ष बाजवा अहमदिया समुदाय के हैं। इस समुदाय को पाकिस्तान में मुसलमान ही नहीं माना जाता।वे बहुसंख्यक आबादी में हाशिए पर रहने वाले समुदाय से आते हैं।इसी तरह इमरान ख़ान के पूर्वजों को बांग्लादेश युद्ध में शर्मनाक पराजय के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। इमरान ख़ान का ख़ानदान नियाज़ी है और ढाका में पाकिस्तानी सेना ने जनरल नियाज़ी के नेतृत्व में ही भारत के सामने हथियार डाले थे। इस समर्पण के बाद नियाज़ियों को वहाँ हेय दृष्टि से देखा जाने लगा था। लाखों नियाजियों ने अपनी जाति लिखनी ही छोड़ दी थी। इस तरह दोनों शिखर पुरुष अपने अपने हीनता बोध के साथ मुल्क़ में शासन कर रहे हैं।वे दोनों ही बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
देखा जाए तो पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के बाद पहली बार बिखराव बिंदु के क़रीब पहुँच रहा है। इमरान ख़ान के रहते आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती। कोई चमत्कार ही उसका उद्धार कर सकता है।