राकेश अचल
ज्वार के लहलहाते खेत मुझे बचपन से आकर्षित करते रहे हैं.ज्वार एक तरह की घास है लेकिन इसके बीजों का शुमार मोटे अनाज में किया जाता है .मै मोटे अनाज को ‘ शूद्र ‘अन्न मानता हूँ.एक जमाने में श्रेष्ठ वर्ग ज्वार और बाजरे जैसे मोटे अनाज की ओर देखते तक नहीं थे,या देखते भी थे तो वैद्यों के कहने पर .गरीब-गुरुवों के इस खाद्यान्न को अमीर लोग केवल स्वाद बदलने के लिए इस्तेमाल करते थे .
बात उन दिनों की है जब देश में संकर ज्वार का बीज नया-नया आया था.देशी ज्वार के कद के मुकाबले थोड़ी नाती संकर ज्वार के भुट्टे गठीले और दाने सफेद के साथ कुछ-कुछ बैगनी रंग के होते थे.इनमें रस भी खूब होता था इसलिए शुक प्रजाति के लिए संकर ज्वार की फसल पर हमला करना किसानों के लिए संकट का कारण माना जाता था .सर्दियों में लम्बी छुट्टियां लेकर हम लोग बचपन में अपने ननिहाल में रहा करते थे .ये समय संकर ज्वार में भुट्टे आने और पकने का होता था. खेत के बीचों-बीच एक मचान बनाकर हम बच्चे गुफनिया (पत्थर फेंकने का जूट से बना अस्त्र)से संकर ज्वार की फसल पर हमला करने वाले शुक (तोते)कुटुंब को भगाया करते थे .कभी खाली कनस्टर बजाकर उन्हें उड़ाते तो कभी ‘हरिया-हरिया’की तेज आवाज का सहारा लेते .
ज्वार की फसल काटने से पहले ज्वार के भुट्टों को आग पर भून कर हरी मिर्च और धनिया की चटनी से खाने का चलन था .सुबह हो या शाम अलाव जलते ही बच्चे अपने-अपने भुट्टे लेकर भूनने बैठ जाते थे .फसल आने के बाद नानी ज्वार की महेरी पकाती थीं.खट्टी महेरी, गुड़ से खाने का आनंद बयान नहीं किया जा सकता .पिता की सरकारी नौकरी के सिलसिले में शहर-दर-शहर भटकते हुए भी ज्वार से रिश्ता कभी नहीं टूटा .मेरी माँ ज्वार की पानी लगी रोटी बड़े ही जतन से बनाती थीं.इसे बुंदेलखंड में ‘ पंपातु ‘ रोटी कहा जाता है .इसका अर्थ ये हुआ की ज्वार की रोटी को पानी लगा-लगाकर पाथा जाता था वो भी बिना चकले और बेलन की मदद के सिर्फ हथेलियों पर रखकर .
ज्वार की रोटी के अलावा ज्वार के फूले और गुड़ डालकर बनाये जाने वाले लड्डू हमारे बीच खासे लोकप्रिय हुआ करते थे. हमारे समय में ज्वार के फूले ही ‘ पॉपकार्न ‘ हुआ करते थे क्योंकि मक्का हमारे यहां की फसलों में शामिल न थी .ज्वार की रोटी का घी-गुड़ का मलीदा खाकर हम सब जाड़े से बचने की कोशिश करते थे .हमारे ननिहाल में ज्वार को कभी शूद्र अन्न नहीं माना गया ,क्योंकि ननिहाल पुराने जागीरदारों की होते हुए भी सम्पन्न न थी .हमारे गांव में ज्वार के बजाय बाजरा प्रचलन में था.
किशोरावस्था में ज्वार संघर्ष का औजार बनी तब इसके प्रति सम्मान बहुत बढ़ गया. मेरे पिताश्री राजपत्रित राजस्व अधिकारी थे,अभाव कभी देखे नहीं थे लेकिन अचानक दिन बदले पिता से द्रोह मोल ले लिया और सारी सुख-सुविधाएं अभाव में बदल गयीं. ट्यूशन,कम्पाउन्ड्री और छाता फैक्ट्री में काम के बावजूद आमदनी इतनी कम थी कि चार सदस्यों के परिवार के लिए गेहूं खरीद कर खाना कठिन था. उन दिनों ज्वार काम आयी गेहूं से आधे दामों पर मिलती थी ,यानि शायद तीन -चार रूपये में पांच किलो .ज्वार की रोटी के साथ बेंगन का भरता और हरी धनिया की चटनी ने पूरे एक साल साथ निभाया . लेकिन संकट के इन दिनों में न किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ा और न किसी को अपने अभावों को लेकर रोना, रोना पड़ा .
आज जब वानप्रस्थ की उम्र है तब भी जहाँ कहीं ज्वार के खेत देखता हूँ तो मन झूम उठता है. ये तस्वीरें भी मेरे घर के समीप एक खेत में खड़ी ज्वार की फसल की है .ज्वार दुनिया के अनेक देशों में पैदा होती है और सभी जगह ये गरीबों के बीच लोकप्रिय है. भारत में ही कोई चार करोड़ एकड़ से ज्यादा जमीन पर ज्वार पैदा की जाती है. पौष्टिक इतनी है की चाहे जानवर खाये चाहे इंसान, दोनों को शक्ति मिलती है ज्वार से .ज्वार के भुट्टे खाने के काम आते हैं और शेष डंठल जिसे ‘ करब’ या चरी कहा जाता है पशुओं के चारे के काम आते हैं. खासकर गर्मियों में जब हरी घास नहीं मिलती तब इसी ज्वार के सूखे डंठलों को काटकर भूसे के साथ मिलकर पालतू पशुओं को खिलाया जाता है .
भारत, चीन, अरब, अफ्रीका, अमेरिका आदि में इसकी खेती होती है। ज्वार सूखे स्थानों में अधिक होती है, सीड़ लिए हुए स्थानों में उतनी नहीं हो सकती। भारत में राजस्थान, पंजाब आदि में इसका ब्यवहार बहुत अधिक होता है। बंगाल, मद्रास, बर्मा आदि में ज्वार बहुत कम बोई जाती है। यदि बोई भी जाती है तो दाने अच्छे नहीं पडते। इसका पौधा नरकट की तरह एक डंठल के रूप में सीधा 5 -6 हाथ ऊँचा जाता है। डंठल में सात सात आठ आठ अंगुल पर गाँठें होती हैं जिनसे हाथ डेढ़ हाथ लंबे तलवार के आकार के पत्ते दोनों ओर निकलते हैं।ये इतने धारदार होते हैं की कभी-कभी इनसे हथेली तक कट जाती है .
वैज्ञानिक कहते हैं की ज्वार कहने को मोटा अन्न है किन्तु इसमें गुणों की भरमार है. ज्वार में फाइबर की अच्छी मात्रा होती है, जो पाचन में सुधार करता है. साथ ही पेट की समस्याओं से भी बचाता है. ज्वार में मिनरल, प्रोटीन, और विटमिन बी कॉम्प्लेक्स जैसे कई पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं इसके अलावा ज्वार में काफी मात्रा में पोटेशियम, फॉस्फोरस, कैल्शियम और आयरन भी होता है.अगर आप वज़न घटाना चाह रहे हैं, या सेहतमंद रहने के लिए डाइट में बदलाव करना चाहते हैं, तो आपको ज्वार ज़रूर शामिल करना चाहिए. ये मैदा या गेहूं के आटे का एक उत्कृष्ट विकल्प है.
ज्वार के बारे में मेरी दादी अक्सर कहती थीं की ज्वार खाने के लिए जिगर चाहिए,यानि ज्वार पचाना आसान काम नहीं .ज्वार सर्दियों में खाएं और उतनी ही खाएं जितनी पचा सकें .मै तो आज भी ज्वार की तीन-चार रोटियां हजम करने का माद्दा रखता हूँ,लेकिन आप मेरी नकल न करें .पहली बार ज्वार खाएं तो एक-दो रोटी से ज्यादा न खाएं .ज्वार के पॉपकार्न खाएं तो गर्म-गर्म खाएं या उनमें गुड़ मिलाकर खाएं ,ज्वार का मलीदा भी सौ ग्राम से अधिक न खाएं .लेकिन खाएं जरूर .ज्वार खाने से आपकी जाति बदलने वाली नहीं है.