राजेश बादल
राजनीति का अपना एक धर्म तो होता है, लेकिन राजनीति में धर्म की घुसपैठ शायद ही कोई पसंद करेगा।भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनि और साधू संत समाज और देश को आध्यात्मिक तथा धार्मिक नेतृत्व प्रदान करते आए हैं।इस कारण भारत की ऋषि परंपरा समंदर पार ख्याति पाती रही है।अतीत में राजे महाराजे अपने राजकुमारों को ऋषि मुनियों के पास नैतिक और आध्यात्मिक आचरण की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजते थे।लेकिन अपने इस विशेष प्रभाव और दरबार संपर्क का किसी भी संत ने कभी सियासी इस्तेमाल नहीं किया और न ही किसी राजा ने उन्हें ऐसा करने की इजाज़त दी।मगर हालिया दौर में साधू संतों ने जिस तरह सियासत में दखलंदाज़ी बढ़ाई है,उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छबि को धक्का लगा है।इसके अलावा सरकार के बारे में भी धारणा बनती है कि वह आंतरिक मामलों और मसलों को कूटनीतिक – प्रशासनिक तरीक़े से निपटने में कमज़ोर साबित हो रही है और उज्जवल छबि के लिए संत समाज का सहारा ले रही है।
एकबारगी इसे स्वीकार भी कर लिया जाए कि संतों की राय से कोई राष्ट्रीय नुकसान नहीं होता और वे अपने पांडित्य से राष्ट्र की प्रत्येक समस्या का समाधान खोज सकते हैं तो निवेदन यह है कि साधू संत सीधे सीधे चुनाव मैदान में उतरकर सियासी शतरंज खेलें,संत होने का स्वांग न करें और अपने को राजनीति के काबिल बनाएं।बीते दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को सार्वजनिक मंच से अपमानित करने और उनके हत्यारे को महिमामंडित करने वाले कथित संत की इन दिनों निंदा हो रही है।यह संत आठवीं कक्षा तक शिक्षित है।उसके खिलाफ़ महाराष्ट्र में मामले दर्ज़ हैं।पार्षद के चुनाव में नाकाम रहने पर उसने धर्म का चोला पहन लिया। महात्मा गांधी के समूची विश्व मानवता के लिए योगदान को किसी अज्ञानी संत के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है । नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी उनके आलोचक रहे ,लेकिन सबसे पहले महात्मा कह कर उन्होंने ही गांधी जी को संबोधित किया था ।जिस महापुरुष के निधन पर करीब डेढ़ सौ देशों ने शोक मनाया,उसी के अपने मुल्क में नासमझ लोग ऐसी टिप्पणियों से भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपहास का केंद्र बना रहे हैं। यह और भी खेदजनक है कि महात्मा गांधी अपने अपमान का उत्तर देने के लिए इस लोक में नही हैं।कोई भी संस्कृति अपने स्वर्गीय पूर्वजों की इस तरह निंदा का हक़ नहीं देती ।इन कथित संतों के ऐसे व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं।मध्यप्रदेश में एक व्यक्ति ने एक राजनीतिक पार्टी से चुनाव का टिकट मांगा।उनका आपराधिक रिकॉर्ड था।इसलिए उनका आवेदन निरस्त हो गया।
इसके बाद कुछ साल वे गायब रहे।जब प्रकट हुए तो संत बन चुके थे।अब करोड़ों में खेल रहे हैं।उनकी सिफ़ारिश पर सियासी पार्टियां चुनाव में टिकट देती हैं।जिसे मिलता है, उसके लिए ये संतजी अपील करते हैं और उनका उम्मीदवार जीत जाता है।विडंबना यह है कि इन संतों को स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की कोई जानकारी नहीं होती और न ही समकालीन इतिहास तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ होती है।वे संसार में प्रचलित तमाम राजनीतिक विचारधाराओं से भी अपरिचित होते हैं। यहां तक कि भारतीय संस्कृति पर उनकी जानकारी और धार्मिक पौराणिक ज्ञान भी सवालों के घेरे में होता है।फिर भी हज़ारों लोग उनके अनुयाई बन जाते हैं और उनके टोटकों पर अंधा भरोसा करने लगते हैं।अपने अज्ञान से रोज़गार हासिल करने का यह अदभुत उदाहरण भारत में ही मिल सकता है।
हिंदुस्तान की संत परंपरा को कभी समूचे विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त थी।स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविंद,रामकृष्ण परमहंस और महर्षि महेश योगी से लेकर अनेक संत हैं,जिन्होंने भारत का सम्मान विदेशों में बढ़ाया है ।पर आज के भारत में कई तथाकथित संत इन दिनों गंभीर आरोपों में कारागार की शोभा बढ़ा रहे हैं ।यह प्रमाण है कि भारतीय समाज अपने आध्यात्मिक नेतृत्व में आई नैतिक और शैक्षणिक गिरावट को कितने हल्के फुल्के ढंग से ले रहा है।करोड़ों श्रद्धालुओं को आस्था के नाम पर ग़लत जानकारी देना जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। भारतीय संस्कृति में अभी भी शंकराचार्य जैसी शिखर पदवी आसानी से हासिल नहीं होती और न ही उनकी योग्यता पर कभी कोई प्रश्नचिह्न खड़ा किया गया।मगर निचले स्तरों पर ऐसे तत्वों की भरमार है ,जो धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करते हैं और हर पार्टी के राजनेता भी वोट हासिल करने के लिए उनका दुरूपयोग करते हैं। गाँव गाँव में उनका नेटवर्क है।कभी कोई कंप्यूटर बाबा बन जाता है तो कभी कोई मिर्ची वाला बाबा। आग्रह है कि आधुनिक हिन्दुस्तान में जब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रोफेशनल सेवाओं का महत्त्व बढ़ गया है तो धर्म भी उससे अलग नहीं रहा है।यदि एक डॉक्टर ,वक़ील, इंजीनियर,आईएएस ,चार्टर्ड अकाउंटेंट और शिक्षक तक के लिए प्रवेश परीक्षाओं और पेशेवर प्रशिक्षण ज़रूरी है तो धर्म का क्षेत्र कैसे अछूता रह सकता है।वह तो औसत भारतीय को सबसे आसानी से प्रभावित करता है।इसलिए हर किसी को साधू महात्मा बना देने पर सख्त पाबंदी क्यों नहीं होना चाहिए ? जब यह पूर्ण कारोबार की शक़्ल ले चुका है तो उसके लिए बाक़ायदा प्रवेश परीक्षा और प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम की व्यवस्था शैक्षणिक संस्थानों में होनी चाहिए। कोई भी गेरुआ वस्त्र धारण करके संन्यासी न बन सके ,यह सरकार और समाज को सुनिश्चित करना होगा।अन्यथा इस मुल्क को मज़हब के नाम पर अराजकता भरा झुंड बनने में देर नहीं लगेगी।