पहले सियासत सेवा , फिर सत्ता और अब भ्रष्टाचार के लिए

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राघवेंद्र सिंह

चुनावी सियासत कभी समाज और देश की सेवा करने का जरिया थी। लेकिन अब यह सत्ता के रास्ते भ्रष्टाचार का गोरखधंधा बन गई है।  पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक की राजनीति करने वाले सेवा करने की बात करते हैं। मगर पंचायत से लेकर लोकसभा और राज्यसभा तक चुनाव लड़ने और जीतने वाले अरबों में खेलते हैं और बिना किसी धंधे के करोड़ों रुपये की संपत्ति बना लेते हैं। इसलिए बठिंडा के पास फ्लाई ओवर पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का काफिला आक्रामक प्रदर्शनकारियों से घिरता है तो जो प्रतिक्रियाएं आती हैं उसे देख और सुनकर दुख – पीड़ा के साथ घिन भी आती है। तर्क और कुतर्कों के ढेर लग जाते हैं। कोई पंजाब सरकार के पक्ष में खड़ा है तो कोई पीएम मोदी के। लेकिन सब मिलाकर देश के खिलाफ खड़े लगते हैं। यहीं से शुरू होता है सेवा की सियासत करने वाले दलों को अपशब्द कहने का मन। दरअसल पैसा कमाते कमाते सत्ता की राजनीति करने वाले बहुत माफी के साथ दल और नेता लोकतंत्र की आड़ में गर्रा गए हैं।

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पिछले दिनों मध्य प्रदेश के दो सांसद बहुत सुर्खियों में रहे इनमें एक सांसद जनार्दन मिश्रा कहते हैं कि ग्राम पंचायत के सरपंच यदि 15 लाख रुपए तक का भ्रष्टाचार करते हैं तो कोई गुनाह नहीं है इसके पीछे भी वह बकायदा तर्क भी देते हैं उनका कहना है सरपंच को चुनाव लड़ने और जीतने में लगभग700000 खर्च करना पड़ता है ऐसे में वह पहले अपने सात रूपए निकालेगा और उसके बाद अगला चुनाव जीतने के लिए कम से कम सात लाख रुपए की व्यवस्था करेगा। इसलिए पन्द्रह लाख रुपए तक का भ्रष्टाचार जायज है। इसके अलावा रतलाम झाबुआ एक दूसरे सांसद है भाजपा के गुमान सिंह डामोर। यह पहले विधायक थे। उसके पहले पीएचई विभाग में इंजीनियर इन चीफ के पद पर रह चुके इन महाशय पर अपने कार्यकाल में 600 करोड़ के भ्रष्टाचार का आरोप है। पुलिस ने शिकायत पर जब सीधे मुकदमा दर्ज नहीं किया तो फरियादी ने सबूतों के साथ अदालत में गुहार लगाई। लंबी सुनवाई के बाद फैसला दिया कि सबूतों को देखते हुए डामोर पर भ्रष्टाचार करने के मुकदमे दर्ज किए जाए। तब कहीं श्री डामोर पर मुकदमा दर्ज किया गया। यह दो बानगी है बताती हैं कि जो सियासत कभी सेवा का माध्यम हुआ करती थी अब बारास्ते सत्ता भ्रष्टाचार करने का जरिया बन गई है। यही वजह है कि किसी भी कीमत पर मिले बस सत्ता चाहिए। फिर कुर्सी पंचायत की हो या पार्लियामेंट की। इसलिए पीएम का काफिले का अचानक बदला गया रूट लीक हो जाता है और पाकिस्तान सीमा से लगे आतंकवाद से ग्रस्त रहे बठिंडा के फ्लाईओवर पर भारी जद्दोजहद के बीच प्रदर्शनकारियों द्वारा घेरकर 20 मिनट तक रोक लिया जाता है। यह नेता और पार्टियों के लिए चिंता का विषय कम राजनीति करने और वोट काटने का ज्यादा लगता है।

इस बीच पंजाब उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों की घोषणा हो गई है और यहीं से चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को शिक्षा, स्वास्थ्य  और सुरक्षा को छोड़ मुफ्त में राशन पानी बिजली मोबाइल लैपटॉप और स्कूटी देने जैसी तमाम घोषणा करने वाले दलों पर स्वतः संज्ञान लेकर रोक लगाने के क्रांतिकारी कदम उठाने के तरफ सोचना चाहिए। सबको पता है इस तरह की रोक लगाने के निर्णय का राजनैतिक दल विरोध करेंगे मगर इसे सियासत को भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकालने की तरफ महत्वपूर्ण कदम माना जाएगा। एक तरह से यह लोकतंत्र में भले मानुषों को आगे लाने में मददगार साबित होगा। अभी तक ईमानदार कर्मठ और देश की तस्वीर और तकदीर बदलने वाले युवा राजनीति में आना पसंद नही करते। एक बड़ा वर्ग भ्रष्ट हुई राजनीति से दूर होता चला गया। इसीलिए राज्यसभा तक मे बदमिजाजी और बदतमीज़ी के किस्से आम हो गए हैं। देश हित के मुद्दे पंचायतों से लेकर पार्लियामेंट तक मे गायब होने लगे हैं। भाषा की शालीनता और आचरण की मर्यादा नैतिकता की बातें अब सिर्फ बोलने तक सीमित हैं। राष्ट्रहित और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर वैचारिक विरोध को ताक पे रख व्यक्तिगत विरोध की घटनाएं भी आम हो गई हैं। सत्ता पाने के लालच में पहले विचार फिर पार्टी और अब मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक से निजी दुश्मनी रखने जैसे वक्तव्य आने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी को पिछले दिनों पंजाब में किसान प्रदर्शनकारियों के घेरे जाने के मुद्दे पर ऐसा लग जैसे मोदी देश के नही भाजपा के प्रधानमंत्री हैं। मामला गंभीर है इसलिए घटना की जांच हो रही है और उसके बाद जो निकलकर आएगा उसपर कठोर कार्यवाही की अपेक्षा की जानी चाहिए। भारत के प्रधानमंत्री की महत्ता के वैसे तो कई किस्से होंगे लेकिन 1980 की एक घटना का ज़िक्र करूंगा जिसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जे एन यू जाने का विरोध किया। छात्रों ने नारेबाजी के साथ काले झंडे भी दिखाए।

नतीजतन उन्हें लौटना पड़ा। इसके बाद रात को सुरक्षा बल ने जे एन यू कैंपस और छात्रावास में कार्यवाही करते हुए छात्रों को गिरफ्तार किया। होस्टल खाली करा लिए गए और विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया। एक प्रधानमंत्री के खिलाफ प्रदर्शन करने पर इस तरह की कार्यवाही की गई थी। विश्वविद्यालय प्रबंधन में भी बड़ा बदलाव कर दिया गया था। बाद में छात्रों ने माफी मांगी और उसके बाद ही जे एन यू में ताले खोले गए। संवैधानिक पदों की प्रतिष्ठा और मर्यादा को लेकर अनर्गल बातें नही होती थी। नेता और दल मुद्दों पर विरोध करते थे। पहले विचारों और भाषा की गरीबी नेताओं की वाणी में नही होती थी। अब तो जितना घटिया आप कहोगे उतना ज्यादा चर्चाओं में रहोगे। सत्ता बदलने के लिए दुश्मन देश से भी सहायता मांगने के भी निर्लज्ज उदाहरण देखने को मिलते हैं। चुनाव जीतने के लिए जाती धर्म और संप्रदाय की बाते तो बहुत आम हो चुकी हैं। काम से कम पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग को पार्टियों के घोषणा पत्र में मतदाताओं से वोट पाने के लिए रिश्वत देने जैसे वादे करने से रोक लगाने का कोई रास्ता ढूंढना चाहिए।


सब बेईमान हो रहे हैं…
शहरों में कॉलेज के चुनाव और नगर पंचायत से लेकर नगर निगम तक के चुनाव सेवा करने की पाठशाला हुआ करते थे। इसलिए लट्ठे के कपड़ों से लेकर झकाझक कलफ की हुई सफेद खादी पहने नेताओं की बहुत इज़्ज़त हुआ करती थी। ऐसी ही कुछ प्रतिष्ठा आज़ादी के पहले और नब्बे के दशक तक मिशन आधारित पत्रकारिता की हुआ करती थी। लेकिन अब वो दिन हवा हुए। सत्ता के लिए पार्टियां और उम्मीदवार बेहिसाब खर्च करते हैं और उनसे विज्ञापन पाने वाले मीडिया हाउस आंखे बंद किए रहते हैं। सियासत को वैसे भी ईमानदार मीडिया स्वीकार नही है इसलिए चौतरफा विज्ञापन ले देकर मुंह मे दही जमाए रखने का काम चल रहा है।