राकेश अचल
1857 का गदर, भारतीय इतिहास का पहला आजादी का आंदोलन कहा जाता है। हालांकि मेरी राय हमेशा से इससे अलग रही है। खैर, मेरी राय से फर्क भी क्या पड़ता है। आज तो बात हम ‘गद्दार’ की कर रहे हैं। पत्रकारिता की दुनिया के भीष्म Rakesh Achal जी ने एक ऐसी किताब लिखने की गुस्ताखी की है, जिसमें वो किसी भी पक्ष के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं। हालांकि सबसे महत्वपूर्ण यही है कि किताब नाम से उतना ही मेल खाती है, जितना कि अचल जी अपने नाम से। वो हमेशा चलायमान ही रहते हैं, जबकि नाम पर अचल जोड़कर रखते हैं।
खैर, किताब 1857 के गदर पर है और सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता के तथ्यों को उकेरती है। उत्तर प्रदेश बोर्ड से पढ़ा हूं तो इस कविता में एक लाइन भी पढ़ी थी…’अंग्रेजों के मित्र सिंधिया’। इस बात को पूरे इतिहास पटल पर ऐसे प्रचारित किया गया कि पूरा गदर सिर्फ सिंधिया परिवार की वजह से विफल रहा। यह बात और है कि इतिहास इससे अलग कहता और बोलता है। उसी इतिहास की कुछ बातों पर प्रकाश डालने का प्रयास इस किताब में नजर आता है। उस दौर के घटनाक्रम को एक कथानक के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है। बताया गया है कि कैसे अंग्रेजों के साथ संधि और अपने राज्य के हालातों के दबाब में तत्कालीन सिंधिया शासक जयाजीराव वो नहीं कर सके, जो वह करना चाहते थे।
यह बात सही है कि सिंधिया रियासत उस दौर में निजामों के बाद सबसे बड़ी रियासत थी, लेकिन उस वक्त की सच्चाई भी यही है कि वह अंग्रेजों के रहम पर ही थी। अगर सिंधिया ने तात्कालिक घटनाक्रमों को मद्देनजर अंग्रेजों से संधि और मित्रता नहीं की होती तो शायद ग्वालियर का अस्तित्व वैसा शेष नहीं रहता, जैसा आज बचा है। अंग्रेजों से उनके पनिहार युद्ध की कुछ घटनाओं पर यह किताब प्रकाश डालती है। दूसरी बात यह भी है कि जिस तरीके से सिंधिया से मदद मांगी गई थी, उस तरीके से सिंधिया ने हमेशा विद्रोहियों की मदद की।
फिर जब रानी खुद अपनी रियासत बचाने की लड़ाई लड़ रही थीं। बहादुरशाह जफर खुद अपनी बादशाहत को बचाने के लिए बेमन से बागियों के नेता बने थे। ऐसे में कौन बिना परिणाम के युद्ध में कूद जाता। मैं सिंधिया परिवार के उस समय के घटनाक्रम को आज के वक्त में सफाई के तौर पर नहीं देख रहा हूं। लेकिन अगर उस समय के तात्कालिक घटनाक्रमों को जोड़कर देखें तो शायद उस खानदान ने वही किया जो ग्वालियर को जरूरत थी।
दूसरों की लड़ाई में अपना घर फूंक देना ठीक वैसा ही कहा जाएगा कि रूस और यूक्रेन की लड़ाई में भारत जबरन का एक पक्ष बनकर खड़ा हो जाए। आज रूस भी भारत का मित्र है और अमरीका भी भारत के साथ है। ऐसे में भारत कौन सा पक्ष चुनेगा। संभव है कि भारत खामोशी का रास्ता अख्तियार करेगा और अपने करीबी दोस्त की खामोशी से मदद करेगा। ‘अंग्रेजों के मित्र’ होने के बाद भी सिंधिया ने विद्रोहियों के लिए वो सब कुछ किया।
हमेशा हार का ठीकरा फोड़ने के लिए कोई बहाना चाहिए होता है, वही हुआ। झांसी की रानी पर सवार होकर यह गदर शुरू हुआ और पेशवाओं की बेवकूफी के साथ खत्म भी हो गया। अपनी गलतियों का ठीकरा ग्वालियर रियासत पर थोप दिया। इतिहास को करीब से जाकर देखो तो कुछ यही कहता है। राकेश अचल की किताब भी कुछ इन्हीं तथ्यों के साथ आगे बढ़ती है और इस धुंधलके से पर्दा हटाती है।
किताब का कथानक उन लोगों के लिए हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है, जो इतिहास को करीब से देखना और समझना चाहते हैं। भाषा तो खैर आपको एक बार में ही किताब पढ़ने के लिए उत्तेजित करेगी। हां, एक बात की शिकायत जरूर रही कि कई मौकों पर किताब इतनी तेजी से कथानक को छोड़कर गुजरी है कि वहां पर लगा कि कहानी का थोड़ा सा ठहराव और विस्तार यहां पर होना चाहिए था। कुल मिलाकर एक बेहतरीन कहानी।
खैर, वो इस किताब को बिलकुल न पढ़ें, जो अपनी राय बनाकर बैठे हैं। बेहतर यही होता है कि इतिहास को कभी एक नजरिए से देखने की कोशिश कभी न करें। दोनों पक्ष देखें और फिर खुद बेहतर तरीके से समझें।