नई नस्लों को लोकतंत्र का अर्थ पता तो चले

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राजेश बादल

इन दिनों राजनीति में परिवारवाद को हतोत्साहित करने की प्रथा सी चल पड़ी है । सदियों तक यह देश राजाओं और राजकुमारों को राजा बनते देखता रहा है ।उनके ज़ुल्म ओ सितम भोगते हुए लोग इतने आदी हो गए हैं कि आम जनता आज भी बहुत तकलीफ़ नहीं महसूस करती , जब वह इस परंपरा में लोकतांत्रिक राजाओं के उत्तराधिकारियों को उनकी विरासत संभालते हुए देखती है।वैसे तो इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है । यह राष्ट्र प्रत्येक वयस्क  नागरिक को रोज़गार, कारोबार और मौलिक अधिकारों की छूट देता है।आप सिर्फ़ इस आधार पर उसे राजनीति में जाने से रोक नहीं सकते कि वह किसी विधायक, सांसद ,मंत्री या मुख्यमंत्री का बेटा है। गौर कीजिए कि जब एक सेना अधिकारी की पीढियां देश की सीमाओं की रक्षा करने के काबिल मानी जा सकती हैं, एक डॉक्टर के वंश में कई डॉक्टरों की फसल लहलहाती है तो हम यह कहते हुए मानक तय करते हैं कि वह ख़ानदानी डॉक्टर है, एक वकील के वंशजों को लगातार अदालत में जाते देखते हैं, एक किराना या कपड़ा व्यापारी की पीढियाँ गद्दी संभालती हैं तो हमें परेशानी नहीं होती । यहां तक कि मोची, बढ़ई, दूधवाला या सब्ज़ी वाला बच्चों को अपने कारोबार में अवसर देता है तो हमें बुरा नहीं लगता।बड़े औद्योगिक घरानों का उत्तराधिकार उनके वंशजों के हाथ में चला आता है तो भी समाज उसे आपत्ति जनक नहीं मानता । इसके उलट आपसी चर्चाओं में यह बात कही जाने लगी है कि अमुक परिचित के बेटे ने अपने पिता के स्थापित कारोबार को ही छोड़ दिया ।

यह गलत किया । इस विरोधाभासी मानसिकता पर समाज में सवाल नहीं उठते ,मगर एक लोकतांत्रिक अनुष्ठान में जनसेवा और राष्ट्रहित में काम करने के लिए यदि किसी नेता का पुत्र भी उसी राह पर चल पड़ता है तो हाय तौबा होने लगती है । जनसेवा एक अनुष्ठान की तरह है ,जिसमें प्रत्येक को अपनी हिस्सेदारी निभाना चाहिए। कोई भी बच्चा हो, वह परिवार के संस्कार लेकर आगे बढ़ता है।पारिवारिक पेशे के हुनर भी उसमें शामिल होते हैं।यह उसका बुनियादी प्रशिक्षण होता है।इसीलिए हम पाते हैं कि जो नई नस्लें पूर्वजों के कारोबार को आगे बढ़ाती हैं, ज़्यादातर मामलों में वे कामयाब रहती हैं । कुछ अपवाद हो सकते हैं, जब बेटों से पिता का कारोबार नहीं संभला हो अन्यथा बहुतायत ऐसे पुत्रों की होती है, जो पेशे में मुनाफा बढ़ाना जारी रखते हैं। राजनीतिक मामलों में भी ऐसा ही है ।यह स्थिति तब तक बेहतर थी ,जब राजनीति धंधा नहीं बनी थी ।जैसे ही सियासत के साथ धन बल और बाहु बल का गठजोड़ हुआ तो यह भी एक उद्योग बन गया । आधुनिक नेता अपने बच्चों को विरासत तो सौंपते हैं ,लेकिन उन्हें सेवा भाव के साथ काम करने का प्रशिक्षण नहीं देते । वे उन्हें धंधेबाज राजनेता बना देते हैं । मौजूदा दौर में आप किसी भी राजनेता के बेटे बेटियों से बात कीजिए, उन्हें न भारत की आजादी का इतिहास पता होगा , न ही वे संविधान की विकास गाथा जानते होंगे और न ही निर्वाचित जन प्रतिनिधि के रूप में अपने कर्तव्यों से वे परिचित होंगे । हां उनसे आप चुनाव जीतने की तिकड़में पूछेंगे तो वे तुरंत बता देंगे । वे इस पर भी ज्ञान वर्धन करेंगे कि चुनाव के दिनों में काले धन का इस्तेमाल कैसे किया जाए या नक़द बांटने का तरीक़ा क्या हो या फिर शराब और साड़ियों को मतदाताओं के बीच कैसे पहुंचाया जाए ।

जो मतदाता खुलकर विरोध कर रहे हों , उन्हें अपराधी तत्वों की मदद से कैसे सबक सिखाया जाए।चुनाव जीतने के बाद यह तंत्र अन्य स्तंभों को भी कमज़ोर करने का काम बेशर्मी से करने लगता है ।वह तबादला उद्योग शुरू कर देता है।निलंबन और बहाली की दुकान खोल लेता है।ठेकों और परियोजनाओं में कमीशन की दरें निर्धारित करता है, सांसद और विधायक निधि का हिस्सा अग्रिम धरा लेता है। विरोधियों को निपटाने के लिए पुलिस की मदद से फर्जी मामले दर्ज़ करवाता है और अपने या अपने पिता के मार्ग की सियासी बाधाओं को दूर करता है । लोकतंत्र की इस कुरूपता को स्वीकार करने में इस नए वर्ग को कोई झिझक नहीं होती न ही उनके अभिभावकों को। इस तरह एक गैर ज़िम्मेदार और गंवार पीढ़ी इस लोकतंत्र की कमान संभालने के लिए तैयार हो जाती है । उनका आचरण सामंती होता है और वे नए ज़माने के राजाओं की तरह व्यवहार करते हैं । भारतीय लोकतंत्र को यह दीमक लग चुकी है और इसे ख़त्म करने में किसी की दिलचस्पी नहीं दिखाई देती ।तो यक्ष प्रश्न है कि यह कौन तय करे कि  नई नस्ल को सच्चे और ईमानदार लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जाए ? कहाँ से इसकी शुरुआत हो ? प्रदूषित हो रही राजनीति को साफ सुथरा कैसे बनाया जाए और उसमें आने वाला नौजवान भारत किस तरह अपने संवैधानिक लोकतंत्र को मज़बूत बनाए।इन सवालों का उत्तर स्पष्ट है।संविधान सभा के अध्यक्ष रहे पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि आप कितना ही अच्छा और निर्दोष संविधान बना लें ,अगर उसको अमल में लाने वाले लोग ठीक नहीं हैं तो उस सर्वोत्तम संविधान की कोई उपयोगिता नहीं हैं।इसका सन्देश है कि परिवार परंपरा से निकले सियासत दान लोकतंत्र के विरोधी नहीं माने जाने चाहिए। आवश्यकता उनके परिपक्व प्रशिक्षण की है ,जिसमें वे सामूहिक नेतृत्व की भावना को समझें और सियासी कुटैवों से दूर रहें।  यह काम तो राजनेताओं को अपने घर में ही करना पड़ेगा। यह तनिक पेचीदा और कठिन काम है।