किसान आंदोलन-दूध की जली सरकार…

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राघवेंद्र सिंह
बाखबर 
देश भर का हैरान परेशान किसान आंदोलित है। वजह है उसके खेत में पैदा फसलें सस्ती और बाजार में उसे सब कुछ महंगा मिल रहा है। खेती को लाभ का धंधा बनाने के नारे से सरकार में आने वाली भाजपा के राज में खेती मुनाफे का नहीं बल्कि मौत का धंधा हो गई है। किसान का 1 जून से शुरू हुआ दस दिनी आंदोलन खेती को मरने का नहीं बल्कि जीने का धंधा बनाने की कोशिश है। चुनावी साल है और अगले वर्ष लोकसभा चुनाव भी हैैं इसलिए पूरे मसले पर सरकार कुछ ज्यादा ही सतर्क हो गई है।
Kisan Movement-The Jal Ki Gali Government …
पिछले साल मंदसौर में जून का किसान आंदोलन जिसमें 7 किसानों को गोली मार दी गई थी उसके पाप से सरकार अभी तक उबर नहीं पाई है। कह सकते हैैं दूध की जली सरकार किसानों के शांतिपूर्ण दस दिन के आंदोलन को भी फूंक फूंक कर पी रही है। आंदोलनकारी किसानों का दावा है कि वे न तो चक्काजाम करेंगे। न रैली निकालेंगे और न ही सभाएं होंगी। जब आंदोलन में यह सब कुछ नहीं होगा तो सरकार को हिंसा का अंदेशा क्यों लग रहा है।

नरसिंहपुर क्षेत्र के टेक्नोक्रेट किसान नेता विनायक परिहार कहते हैैं हम केवल अपनी उपज का लागत मूल्य चाहते हैैं। हर किसी को अधिकार है कि वह अपना उत्पाद किस कीमत पर बेंचे। जब मनरेगा में मजदूरी तय है और आटोमोबाइल मार्केट से लेकर सर्राफा बाजार, कपड़ा बाजार हर जगह दाम तय हैैं तो फिर किसान के गेंहू, चावल, चना, मसूर, सोयाबीन से लेकर आलू, टमाटर, प्यास, लहसुन, दूध, फल के दाम लागत मूल्य में मुनाफा जोड़कर क्यों तय नहीं होना चाहिए।

उनका कहना है कि देश किसानों की मजबूरी को समझे और उसे कृषि उत्पाद की सही कीमत दिलाने में मदद करे। ऐसे ही एक युवा किसान नेता केदार सिरोही कहते हैैं कि फौजी सीमा पर रक्षा कहता है तो देश उसकी चिंता करता है। दूसरी तरफ किसान देश को अन्न देता है तो देश उसके अनाज का लाभ मूल्य क्यों नहीं देना चाहता। किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्का जी कहते हैैं पार्टियां और सरकारें वोट पाने के लिए किसानों के हित की बातें तो बहुत करती हैैं मगर अमल में कुछ नहीं आता। ये तीनों किसान नेता कहते हैैं जब हमारा आंदोलन शांतिपूर्ण है तो सरकार को डर किस बात का है।

इस पूरे मुद्दे पर गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह का कहना है कि पिछला तर्जुबा खासतौर से मंदसौर आंदोलन अच्छा नहीं रहा। वे कहते हैैं कि हम जानते हैैं किसान और वो भी मध्यप्रदेश का शांत और मेहनतकश है। हमें उससे हिंसा का खतरा नहीं है लेकिन किसानों की आड़ में उनके आंदोलन में घुसपैठ कर मंदसौर की तरह फिर कांग्र्रेसी नेता सरकार को बदनाम कराने के लिए उपद्रव न फैलाएं इसके लिये सर्तकता बरती जा रही है। सरकार और पुलिस किसानों की सुरक्षा और उन्हें गुंडा तत्वों की हरकतों से बचाने की है। उनका कहना है कि सरकार और भाजपा कभी कल्पना नहीं कर सकते कि 24 घंटे खेत में काम कर देश की भूख मिटाने वाला अन्नदाता हिंसा कर सकता है।

किसानों के मामले में लगता है भाजपा और शिवराज सरकार का नब्ज से हाथ हट रहा है। किसानों को अब सरकारों से अनुदान और खैरात की दरकार नहीं है। आंदोलन से उपजे स्वरों से जो बात निकलकर आ रही है वह यह है कि किसान लागत मूल्य में कम से कम 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर बाजार मूल्य चाहता है। उसका कहना है कि उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं चाहिए। उदाहरण के तौर पर गेंहू को ही लें। गेहूं की लागत प्रति क्विंटल  लगभग ढाई हजार (शरबती छोड़कर) आती है और उसे मिलता है करीब 1735 रु. प्रति क्विंटल। भला बताइए ऐसा कौन होगा जो करीब 800 रु. प्रति क्विंटल का घाटा उठाकर चौबीस घंटे खेत में काम करे और अपने साथ अपने बच्चों के भी मरने का इंतजाम करे?

इसी तरह सड़कों पर टमाटर, प्याज, लहसुन के फेंके जाने की घटनाएं भी सबको पता है। किसान कहता है कि उसकी फसल उसे अपने बच्चों की तरह प्रिय होती है। चार महीने में एक फसल को वह पालपोस कर बड़ा करता है और जब उसे तुड़वाना भी महंगा पड़ जाए तो मजबूरी में किसान या तो उन्हें जानवरों को चरा देता है या सड़कों पर फेंकने को मजबूर हो जाता है। लोगों को लग सकता है कि ये किसान कि नासमझी है लेकिन किसान ऐसा करने के लिए विवश है।

बातचीत में किसान कहते हैैं कि क्या कोई कल्पना भी कर सकता है कि अपने बच्चों को पाले और बाद में खुद ही उनकी जान ले ले। मगर किसान इस दौर से गुजर रहा है। उसका दुख यह है कि किसान की मजबूरी न तो सरकार दूर कर रही है और न देश की जनता उसे समझ पा रही है। जो शहरी लोग हैैं उन्हें लगता है खूब अनाज पैदा हो रहा है तो किसान परेशान क्यों है? जबकि मेहनत और साधन के चलते उत्पादन तो बढ़ा मगर लागत मूल्य भी न मिलने से किसान ज्यादा पैदा करने के बाद भी मरने की कगार पर चला गया है।

हिंसा, कालाबाजारी और महंगाई की आशंका…
किसान का आंदोलन मजबूरी में हो रहा है मगर कुछ ऐसे तत्व भी हैैं जो इसमें भी चारों उंगलियां घी में और सिर में कढ़ाई में डालेंगे। सबसे पहले तो कालाबाजारी और व्यापारियों की बात कर लें। आंदोलन की आड़ में दूध, फल, सब्जी से लेकर जरूरी कृषि उत्पाद का लोग स्टाक कर महंगे दामों पर बेचेंगे। सरकार ऐसे लोगों पर अंकुश भी नहीं लगा पाएगी क्योंकि कानूनी कार्यवाही की तो शायद स्टाकिस्ट माल बाहर ही न निकालें।

दूसरी तरफ व्यापारी वर्ग तर्क देगा कि उसका धंधा ही डिमांड एंड सप्लाई पर निर्भर करता है। मांग ज्यादा और आपूर्ति कम तो बाजार ऊपर जाएगा। ऐसे में फिर लोग व्यवस्था को दोष देने के बजाए हो सकता है किसानों को ही कोसें। पूरा आंदोलन लागत मूल्य और उसमें पचास प्रतिशत मुनाफा जोड़कर बाजार मूल्य तय करने के संघर्ष का है। जब तक बाजार मूल्य नहीं मिलेगा कर्ज में डूबा किसान आत्महत्या करेगा और उसके बच्चे कभी भी खेती की तरफ रुख नहीं करेंगे।

अन्नदाता नहीं सरकार निर्माता कहिए…
मध्यप्रदेश की आधी आबादी खेती पर निर्भर है। यहां करीब एक करोड़ किसान खेती करता है और उसके परिवार में चार सदस्य भी मान लिए जाएं तो यह आंकड़ा किसी भी दल के लिए लालच और डर दोनों का सबब बना हुआ है जो सरकार में है उन्हें डर है किसान अगर नाराज हुआ तो बोरिया बिस्तर बंध गए समझो दूसरी तरफ प्रतिपक्ष सोचता है अगर किसान को किसी तरह बहला फुसला कर झांसे में ले लिया तो फिर सरकार बनना तय है। पहले ऐसा ही हुआ है।

शिव राज खेती लाभ का धंधा बनते बनते मौत का धंधा बनने लगी है। बहुत कोशिश करने पर भी जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हुए तो उन्होंने खुद ही सुरक्षात्मक रास्ता चुना। वे कहने लगे किसान पुत्रों कब तक खेती करोगे अब उद्योग धंधों की तरफ आओ लेकिन धंधा बदले में पीढिय़ां गुजर जाती हैैं जिसे खेती के अलावा कुछ न आए कोई बताए तो वे क्या करें? केंद्र की मोदी सरकार भी किसानों के लिए बाजार मूल्य नहीं दिला पा रही है।

ऐसे में किसानों की नाराजगी राज्य और केंद्र दोनों की तरफ है। कांग्र्रेस इस बहती गंगा में हाथ धोने की जुगाड़ में है। मंदसौर में राहुल गांधी के आने का फैसला इसी तरफ इशारा करता है। कुल मिलाकर पूरे मसले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अकेले पड़ते दिख रहे हैैं। मदद के तौर पर भाजपा संगठन भी प्रभावी तौर पर नजर नहीं आ रहा है।

लेखक IND 24 के समूह प्रबंध सम्पादक हैं।)