देश दुनिया का शाब्दिक, अक्षर सफ़र करती है ‘चार देश चालीस कहानियां’

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मनोज कुमार ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं।)

उम्र और अनुभव का रिश्ता गहरा होता है और जब किताब लेखन की बात हो तो इन दोनों बातों को जेहन में रखा जाता है। हालांकि संजीव की किताब इस फलसफे से बाहर हो जाती है क्योंकि उम्र शायद वैसी नहीं है लेकिन अनुभव लंबा है। ‘चार देश, चालीस कहानियां’ पुस्तक पढ़ते हुए इसे आप बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। इस पुस्तक की सबसे खास बात है इसका वीवीआईपी मोह से निरापद होना। आमतौर पर जब बात देश के उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ की गई यात्राओं की हो तो संस्मरण लेखन उनके ही इर्द गिर्द मोह में फंसकर रह जाता है। लेकिन इस पुस्तक के लेखक संजीव शर्मा ने न केवल इससे स्वयं को सुरक्षित रखा है अपितु अपनी यात्रा को एक आम आदमी से जोड़ने की कोशिश की है, जो पूरी तरह से कामयाब दिखती है। अफ्रीकी देश युगांडा-रवांडा का हम सबने नाम सुना है लेकिन उनकी जीवन शैली से संजीव बाबस्ता कराते हैं। ऐसे ही उनकी जापान की यात्रा से कई नए पहलुओं से पाठकों का परिचय होता है।
संजीव देश में की गई यात्राओं के वृतांत प्रस्तुत करते हुए यायावर हो जाते हैं। सड़क किनारे बने ढाबे में बनने वाले व्यंजन से लेकर सड़क पर बिकते स्वाद पर भी चर्चा करते हैं। हम भारतीयों की रुचि खाने में होती है और इस किताब पढ़ते हुए लेखक का चटोरापन भी झलकता है। लज़ीज़ खानपान के साथ साथ यह पुस्तक हमें प्रयागराज के कुंभ और महाकाल लोक की भव्यता से लेकर गुजरात के अनछुए पर्यटन स्थानों से रूबरू कराती है।
‘चार देश चालीस कहानियां’ लिखने के लिए लिखी गई किताब न होकर अनहद नाद है। करीब 164 पेज की यह पुस्तक देश-परदेश की यात्रा कराते हुए हमें देश की अष्टलक्ष्मी यानि पूर्वोत्तर की कुछ ऐसी विशेषताओं से दो चार कराती है जो अब तक हमारी पहुंच से दूर है। मसलन यह हमें असम के सुदूर गांव के एक ऐसे शख्स से मिलवाती है जो रिक्शा चलाकर अब तक आधा दर्जन से ज्यादा स्कूल खोल चुके हैं। इससे हमें अन्नानास की मिठास, विलायती जलेबी के स्वाद,सप्तपर्णी की सुवास और अमलतास के गर्वीले अहसास का भी पता चलता है।

लेखक संजीव शर्मा की बात करें तो मध्य प्रदेश के करेली नाम के छोटे कस्बे से विज्ञान की शिक्षा हासिल करने के बाद वे मीडिया शिक्षा में आ गए और आज से कोई तीन दशक पहले पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा हासिल की। अखबारों में अनुभव हासिल किया। तब टेलीविजन की दुनिया जन्म ले रही थी तो वे रेडियो के साथ हो गए। भारतीय सूचना प्रसारण सेवा में रहते हुए यहां वहां जाने के अवसर मिले तो वे हर जगह से अनुभव को सोशल मीडिया में शब्दों में बांधते रहे । खासतौर पर पूर्वोत्तर में सेवा करते हुए उन्होंने इस क्षेत्र को करीब से जाना, समझा और बेहद रोचक ढंग से लिपिबद्ध भी किया। वैसे ही जैसे उन्होंने खुद को प्रकृति के करीब पाकर बदलते मौसम, पेड़, फल फूल के साथ इश्किया अंदाज में दोस्ती की और इसी अंदाज में पन्नों पर उकेरा भी ।
‘चार देश चालीस कहानियां’ अनोखे ढंग से लिखी, अनोखी किताब है। किताब की भाषा सरल, सहज और आम पाठक की समझ में आने वाली है। इसमें कुछ तस्वीरों का प्रयोग भी अनूठा है क्योंकि इनके जरिए हमें पुस्तक में वर्णित कहानियों को और बेहतर ढंग से समझने का अवसर मिलता है। संजीव को इसलिए भी बधाई कि, किताब छपाई में लगा कागज पर्यावरण का नुकसान नहीं करता बल्कि वे अपनी किताब के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते है । कुल मिलाकर चार देश चालीस कहानियां’ अपने आप में एक ऐसा शाब्दिक सफ़र है जो घर बैठे हमें देश और दुनिया तक ले जाता है…एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक।