तो अब तुम भी चल दिए पुष्पेंद्र

0
135


TIO BHOPAL

अभी तो मिले थे ।हरीश पाठक आए थे। उसी शाम पलाश में ही देर तक गपशप हुई थी ।देर से आए थे तुम और देर तक ठहरे भी थे । लेकिन तुम्हारा फ़ोन उस दरम्यान भी बजता ही रहा । बहुत हो गया तो मैंने तनिक खीझ कर कहा ,भाई ! बहुत हो गया । दफ़्तर का तनाव मित्रों की महफ़िल में क्यों लेकर आते हो । सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है । तुम अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ बोले ,” माध्यम का कुछ अर्जेंट काम चल रहा है । देर रात तक चलेगा ” । मैने पूछा ऐसा महीने में कितने दिन होता है ? तुमने फिर हँसते हुए कहा ,”भाई साब ! कुछ ठिकाना नहीं ।महीने भर ही चलता रहता है” । मैने कहा ,”भाई ।कुछ सेहत का ध्यान रखो । कोविड के बाद से कुछ ठिकाना नहीं ।इसलिए थोड़ी सावधानी ज़रूरी है “। तुम फिर मुस्कुराए । कहा कुछ नही । हमने फिर विषय बदल दिया । पुष्पेंद्र से यही मेरी अंतिम मुलाक़ात थी ।
पहली बार मेरी भेंट शायद सागर में हुई थी । सन 1990 या एकाध साल पहले । दादा भुवन भूषण देवलिया जी के साथ । छतरपुर से भोपाल जाते समय दादा से मिलना चाहता था । उनके पास पहुंचा तो उन्होंने पुष्पेंद्र को भी बुला लिया । नौजवान पुष्पेंद्र समाजवादी सोच का झंडा उठाए ।एकदम सहज और शिष्ट । मैं उन दिनों जयपुर नव भारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक था । जब छुट्टियों में छतरपुर आता तो कभी कभी भोपाल होते हुए लौटता था । पुष्पेंद्र मुझसे क़रीब पांच साल छोटे थे । इसलिए मेरे लिए वे पुष्पेंद्र और उनके लिए मैं भाई साब बना रहा ।पीपी कभी ज़बान पर आया ही नहीं ।


दूसरी मुलाक़ात भी याद आ रही है । मैं भोपाल आ चुका था और 1991 में नई दुनिया के समाचार संपादक पद से इस्तीफ़ा देकर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा था । पुष्पेंद्र सागर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के शिक्षक थे । प्रदीप कृष्णात्रे विभाग अध्यक्ष थे और उप्पल मैडम भी वहीं थीं। अहा ! क्या टीम थी वह ! पत्रकारिता के मूल्यों और सरोकारों को समर्पित ।अपने छात्रों को भी इस टीम ने अपनी तरह ही गढ़ने की कोशिश की थी । उन्हीं दिनों पुष्पेंद्र सागर से प्रदीप कृष्णात्रे जी का एक औपचारिक पत्र लेकर आए थे ।शायद 1992 का साल था । वे चाहते थे कि मैं कम से कम एक सप्ताह के लिए सागर आऊं और पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाऊं । पुष्पेंद्र के अनुरोध में आग्रह कम,अधिकार अधिक था ।मुझे वह अधिकार अच्छा लगा और मैंने हां कर दी ।एक सप्ताह शानदार बीता । विश्वविद्यालय के विश्रामगृह में ठहरा था । रोज़ रोज़ वहां का एक जैसा भोजन बोर करने लगा।पुष्पेंद्र को इसका अहसास हो गया ।इसके बाद तो फिर शाम का घर जैसा भोजन अक्सर पुष्पेंद्र के साथ ही मिलता था । उस दौरान देश की राजनीति, आर्थिक चुनौतियां और विदेश नीति पर मंडराते काले बादल चर्चाओं का विषय हुआ करते थे ।इनमें मैडम उप्पल और प्रदीप कृष्णात्रे जी भी साथ हुआ करते थे। कभी कभी उनके छात्र भी शामिल हो जाते थे। इस तिकड़ी ने अनेक अच्छे पत्रकार गढ़े।अमिताभ श्रीवास्तव, मणि कांत सोनी,दीपक तिवारी और संदीप सोनवलकर के नाम तो मैं एकदम याद कर सकता हूँ। तीनों ही आज अपने शिखर पर हैं। यह अध्यापन कार्यशाला मेरे पत्रकारिता के 35 साल के अध्यापकीय अनुभव के नज़रिए से आज तक की सर्वश्रेष्ठ कार्यशाला है। उसमें मैंने पुष्पेंद्र का आदर्श शिक्षक वाला रूप देखा।


इसके बाद पुष्पेंद्र और मैडम उप्पल माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय आ गए। कमल दीक्षित भी जयपुर से आ चुके थे । यहाँ इन लोगों ने शानदार पारी खेली और अच्छे पत्रकारों की फसल तैयार की । तब तक पुष्पेंद्र छात्रों के चहेते पी पी सर बन चुके थे । क़रीब पंद्रह साल तक विश्वविद्यालय की प्रत्येक शैक्षणिक गतिविधि में मेरी भूमिका रही और इसके पीछे पुष्पेंद्र ,मैडम उप्पल और कमल दीक्षित केंद्र में थे। अफ़सोस ! हमने तीनों को खो दिया। मैं आजतक चैनल का संपादक था तो पुष्पेंद्र लगभग हर बैच के चुनिंदा छात्रों को इंटर्नशिप के लिए भेजते थे। वे खुद उन बच्चों को लेकर आते थे और मैं उनसे कहता था कि आप पुष्पेंद्र जी के छात्र हैं। इंटर्नशिप के बाद आपको भोपाल नहीं लौटना है और न ही घर जाना है। आपको इतनी मेहनत करनी है कि वहीं नौकरी मिल जाए। मुझे याद है कि एक छात्र रजनीकांत को लेकर वे आए थे। वह छात्र वाकई मेधावी था। मैंने उसे भी कहा था कि रजनीकांत ! पुष्पेंद्र सर की इज्ज़त का ख्याल रखना। मैं तुमको भेज रहा हूँ। बाद में वही रजनीकांत स्टार न्यूज़ चैनल में एक शिखर पद पर पहुँचा। यह पुष्पेंद्र का जादुई व्यक्तित्व था कि उनके सामने कोई भी छात्र हो ,पैर छूकर जाता था चाहे वह कितने ही गुस्से में आया हो। जब मैं 2005 में दिल्ली गया तो लगभग हर साल पुष्पेंद्र मुझे चुनिंदा छात्रों को इंटर्नशिप के लिए भेजते रहे। मैं जिन चैनलों का प्रमुख रहा ,वहाँ उन छात्रों ने पुष्पेंद्र के नाम पर इंटर्नशिप ही नहीं ,नौकरी भी पाई।


क़रीब एक दशक पहले की बात है। एक दिन पुष्पेंद्र का फ़ोन आया।दिल्ली आए थे।आवाज़ में तनाव था। मैंने उन्हें शाम के भोजन पर आमंत्रित किया। वे विश्वविद्यालय में वैचारिक प्रपंचों से दुखी थे और नौकरी छोड़ने के मूड में आ गए थे। मैं तब राज्य सभा टीवी का कार्यकारी निदेशक था। मैंने उन्हें तुरंत सम्मानजनक पद और वेतन का ऑफर दिया। लेकिन ,मेरी राय थी कि ऐसे मौके पर आपका त्यागपत्र पलायन कहा जाएगा। आप जब तंत्र से लड़ते हैं तो आप छात्रों के लिए मिसाल बन जाते हैं। पुष्पेंद्र सहमत थे ।वे लौट गए।लेकिन रोज़ ही एक बार फोन पर बात हो जाती । बाद में एक दिन सुबह सुबह फ़ोन आया कि जनसम्पर्क और माध्यम के लिए कोई नई ज़िम्मेदारी ले ली है। यूनिवर्सिटी में उनके लिए काफ़ी दिक़्क़तें आ रही थीं। मैंने उस दिन भी कहा कि पुष्पेंद्र यह काम भी तुम्हारी रूचि का नहीं है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के चलते स्वीकार कर रहे हो, लेकिन मेरा तुमको स्थायी निमंत्रण है। जब चाहो,मेरे चैनल में ज्वाइन कर सकते हो।उसके बाद पुष्पेंद्र ने स्वयं को बदली भूमिका के हिसाब से तैयार कर लिया। सच कहूँ तो अंदर से नई जिम्मेदारी पुष्पेंद्र को कभी खुश नहीं रख सकी । पत्नी के नही रहने का झटका भी था । बड़ी मुश्किल से संभले थे । अब बेटी की चिंता रहती थी ।
बीते दिनों दुष्यंत संग्रहालय में मुझे पुष्पेंद्र को सम्मानित करने का अवसर मिला था ।उस दिन वे तनिक भावुक थे । देर तक हम दोनों पुराने दिनों की पत्रकारिता और कुछ निजी सुख दुख की बातें करते रहे । बाद में बोले , बरसों बाद आपसे इस तरह बात हुई । मन हल्का है ।


लेकिन आज मेरा मन हल्का नही है ।अभी तुम अपना सर्वश्रेष्ठ नही दे पाए थे । बहुत काम छोड़ गए हो हम लोगों के लिए पुष्पेंद्र । तुमको न भूल पाएंगे । फांस चुभती रहेगी कि तुम्हें अंतिम विदाई देने नही आ सका ।
अलविदा ।एक चित्र हम लोगों का कमल दीक्षित जी की शोकसभा ,दूसरे में उनका सम्मान करते हुए और तीसरा हमारी आख़िरी मुलाक़ात हरीश पाठक तथा अन्य मित्रों के साथ