पंकज शुक्ला
जब देश में थी दीवाली/ वो खेल रहे थे होली/ जब हम बैठे थे घरों में/ वो झेल रहे थे गोली/ थे धन्य जवान वो अपने/ थी धन्य वो उनकी जवानी…
कवि प्रदीप के गीत की इन पंक्तियों को सुन कर भला किसके शरीर में सिहरन पैदा न होगी। मगर,अफसोस हमारा देशभक्ति का जज्बा भी ऐसे गीतों को सुन कर चुनिंदा मौकों पर ही उफान पर होता है बाकी के समय तो हम मुंह ढंक कर सोने की मुद्रा जैसे ही लापरवाह होते हैं। सीमा पर, आतंकी से लड़ते हुए या नक्सलियों के हमले का शिकार हुए जवानों की शहादत कुछ पलों के लिए हमारे भीतर सैनिकों के प्रति सम्मान का भाव लाती है। उसके बाद हमारे बीच रह रहे शहीदों के परिजनों का हाल जानने की सुध हमें नहीं रहती। जैसे हम हैं, वैसी ही हमारी सरकारें भी हैं। तिरंगे में लिपट कर आई शहीद की पार्थिव देह के सामने हजार वादे और बाद में उनके परिजन उन वादों को पूरा करवाने के लिए यहां-वहां भटकते हैं।
Rani Lakshmi Bai’s martyrdom day celebrating the political stunts to some side …
देश में हर जगह आम हो गई इन आदतों में बदलाव करने के लिए मप्र की शिवराज सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं। मसलन, पुलिस विभाग के जवानों की ड्यूटी के दौरान हुई मृत्यु पर उन्हें शहीद माने जाने और उनके परिजनों को एक करोड़ रुपए की सम्मान राशि देने का निर्णय लिया जा चुका है। अक्टूबर 2016 में शौर्य स्मारक के उद्घाटन अवसर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शहीदों के माता-पिता को आजीवन पाँच हजार रुपए प्रतिमाह सम्मान निधि देने की घोषणा की।
साथ ही नेशनल डिफेंस अकादमी और नेशनल मिलिटरी अकादमी में प्रवेश के लिये राज्य के युवाओं को विशेष प्रशिक्षण देने घोषणा की थी। अब मप्र के सरकारी स्कूलों में 18 जून को महारानी लक्ष्मी बाई का शहादत दिवस मनाया जा रहा है। स्कूल प्रबंधन से कहा गया है कि वे गांव के शहीद परिवार को इस कार्यक्रम में आमंत्रित करें। इसके पहले स्कूल की हाजरी के समय यस सर की जगह जय हिंद कहने की परंपरा शुरू करवाई जा चुकी है।
अभी ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऊंचे पैकेज के फेर में सेना की ओर युवाओं का रूझान कम हुआ है। खुद केन्द्रीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने बीते संसदीय सत्र में राज्यसभा को बताया था कि तीनों सशस्त्र बलों यानि थल, नभ और जल सेना में कुल 52,741 कर्मियों की कमी है। सेना में भर्ती की रूचि कम होने का कारण समाज में सेना के प्रति घटता सम्मान भाव भी है। शहीदों की पार्थिव देह गांव आने पर अंतिम यात्रा में भीड़ जुटती जरूर है मगर उसके बाद सरकार, प्रशासन और जनता सब शहीद परिवार के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व भाव को भूल जाते हैं। यह कथन शहीद परिवारों की पीड़ा की ही अभिव्यक्ति है, जो अकसर ही सार्वजनिक और व्यक्तिगत चर्चा में प्रकट होती रहती है।
ऐसे में 18 जून को स्कूलों में महारानी लक्ष्मी बाई का शहीद दिवस मनाना बच्चों को आजादी के संघर्ष की गाथा से परिचित करवाने का महत्वपूर्ण आयाम हो सकता है। मगर, यह कार्य राजनीतिक स्टंट न हो तो ही बेहतर। ऐसा इसीलिए कि मप्र में इस वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव है। कांग्रेस की ओर से सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा के लिए चुनौती बने हुए हैं। ऐसे में रानी लक्ष्मीबाई की शहादत को याद करना सिंधिया परिवार पर उंगली उठाने के मौके की तरह है।
सवाल यह है कि शहादत दिवस मनाना है तो केवल रानी लक्ष्मी बाई ही क्यों स्कूलों में हर शहीद को उनके शहादत दिवस पर याद किया जाना चाहिए। भले ही सामूहिक प्रार्थना के समय या कक्षा में चंद मिनट उनके बारे में बता कर याद किया जाए। शहीद दिवस या अन्य प्रसंग पर स्कूलों में प्रतियोगिताओं के आयोजन से लेकर सूचना बोर्ड पर शहीद के जीवन के बारे में प्रेरक प्रसंग लिखे जा सकते हैं। शहीद के परिजनों को स्कूलों में आमंत्रित कर बच्चों से संवाद करवाया जा सकता है। मप्र के स्कूल शिक्षा मंत्री विजय शाह ने स्कूलों के नाम उस क्षेत्र के शहीद के नाम पर रखने के आदेश जारी करने की बात कही है। देखा जाना चाहिए कि इस आदेश का पालन हुआ भी है या नहीं। ऐसे कई कदम हैं जिन्हें बिना कर्मकांड बनाए लागू किया जाना चाहिए तो ही शहीद दिवस मनाना सार्थक हो सकेगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है