पंकज शुक्ला
मॉब लिंचिंग यानि भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या आज के समय में सर्वाधिक चर्चित शब्दों में से एक है। यह हमारे समय की चिंता है कि भीड़, जिनमें अधिकांश युवा हैं, के हाथों में पत्थर है। वह जिसे समस्या मानती है उसका गला दबाना जानती है। मगर, इन युवाओं के बरअक्स कुछ ऐसे युवा भी हैं जो हवाओं का रूख मोड़ने निकले हैं। मॉब लिंचिंग के शोर में भोपाल के ये युवा जोश और जुनून लिए बच्चों को असमय मौत से बचाने मॉस अवेयरनेस के लिए निकले हैं। अपने संदेश को जनता तक पहुंचाने तथा उसे आपसी चर्चा का विषय बनाने के लिए इन युवाओं ने लगातार 23 घंटे 77 स्थानों पर 77 नुक्कड़ नाटक किए। शायद यही वे युवा हैं जिनके लिए कभी जमील मजहरी ने लिखा था जलाने वाले जलाते ही हैं चराग आखिर/ये क्या कहा कि हवा तेज है जमाने की।
बीता सप्ताह मप्र के भोपाल में इतिहास बदलने का मौका था। अंश हैप्पीनेस सोसायटी के 16 कलाकारों, 16 सदस्यों की प्रबंधन टीम तथा करीब दो दर्जन स्वयं सेवी युवाओं की टीम ने शिशु मृत्यु दर का इतिहास बदलने के लिए एक इतिहास रचा। इन युवाओं ने नुक्कड़ मैराथन में जिन्दगी का तमाशा नामक नाटक को भोपाल शहर के 77 जगहों पर प्रस्तुत किया। सोसायटी ने यूनीसेफ के साथ मिल कर इस नुक्कड़ मैराथन की थीम जन्म के बाद बच्चे के प्रथम 1000 दिन रखी थी।
नाटक को सामोमोय देवनाथ और साहिल खान ने निर्देशित किया। 23 घंटे लगातार बिना सोये, अनवरत प्रस्तुतियां और एक ही फिक्र की जनता हमारी बातों को सुने, समझे और पालन करे। नाटक सवाल उठाता है कि क्यों आज भी सभी बच्चों को जन्म के तुरंत बाद तथा छह माह की उम्र तक केवल मां का दूध नसीब नहीं होता क्यों हम बच्चों को मां के दूध के बदले शहद व पानी सहित अन्य पेय देकर मृत्यु की ओर धकेलते हैं
यदि आप यह सोचते हैं कि यह समस्या गांवों और अपढ़ समाज की होगी तो आप बहुत गलत हैं। शहरी और पढ़े लिखे समाज में ही बच्चों को मां का वह पहला दूध समय पर नहीं मिल पाता जिसे बच्चे के लिए अमृत कहा जाता है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-4 (2015-16) के अनुसान जन्म के एक घंटे के अंदर मां का दूध पाने वाले तीन वर्ष की उम्र तक के शहरी बच्चों का प्रतिशत 31.3 है तो ग्रामीण बच्चों का प्रतिशत 35.5 है।
छह माह तक केवल मां का दूध पीने वाले शहरी बच्चों की संख्या 54.2 प्रतिशत ही जबकि ग्रामीण बच्चों की संख्या 59.6 प्रतिशत है। आंकड़ों के अनुसार शहरों में अस्पताल में होने वाले प्रसव 93.8 प्रतिशत हैं जबकि ग्रामीण इलाकों में यह दर 76.4 प्रतिशत है। विडंबना यह है कि अस्पतालों में प्रसव होने के बाद भी स्तनपान करने वाले बच्चों की संख्या में मनचाही वृद्धि न हो पा रही। जितने अधिक सिजेरियन आॅपरेशन हो रहे हैं, बच्चों के जन्म के एक घंटे के अंदर मां का दूध पीने की संभावना न्यून हो रही है।
जबकि मां का पहला गाढ़ा दूध बच्चे के लिये ूमन वैक्सीन है। अंश के सदस्यों ने यह संदेश फैलाने के पहले स्वयं अपने घरों में जा कर पड़ताल की तो पाया कि उन्हीं में से कई को छह माह की उम्र तक केवल मां का दूध पीने न मिला। किसी को शहद पिलाया गया तो किसी को पानी दिया गया। अपने शहरी समाज में बच्चे, किशोरियां और महिलाएं आयरन और कैल्शियम की गोलियों से अनजान हैं।
यही कारण था कि वे नाटक में अपनी बात अधिक ताकत से रख पाए और यह प्रयास कर गए कि बच्चों की सेहत की चिंता अस्पताल के गलियारों से बाहर निकल कर हमारे समाज की फिक्रों में शामिल हो। टीकाकरण, मां और बच्चों के पोषण आहार की बातें सुने केवल विज्ञापनों तक ही सीमित न हो बल्कि समुदाय जागृत हो तथा मौका आने पर उस पर अमल करे। ऐसे युवा प्रयास ही हमें रूढ़ियों और कुप्रथाओं से बाहर आने की राह दिखा सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है