कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

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कोरी कल्पनाओं के आकाश में बड़ी पतंगें उड़ाते हो,
कभी चंदा से उसकी चांदनी , फूलों से खुशबू चुराते हो,
मुझे पाकर भावनाओं में ,कभी गति लाते हो पतवारों में ,
मुझे सोचते- सोचते डूबने लगते, नदी बीच मझधारों में ।
मैं कल्पना , स्वयंमेव हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

वाहवाही लूटते हो जो तुम,बुद्धिजीवियों के मंच पर,
तालियां पीटते, सुनते हो तुम , खुद अपने प्रपंच पर ,
रोटियों की प्रत्यक्ष चिंता तुम्हें भी खूब सताती है ,
मुफलिसी में भी तुम्हें, बड़ी याद हमारी आती है ।
कभी न भरने वाली जेब हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं ।

तुम कौन हो, क्या हो ? आईने से बेहतर जानती हूँ,
तुम्हारे नस-नस से वाकिफ हूँ, हर जर्रा पहचानती हूँ,
दुनिया की हर चिंता को तुम स्याही में भर लेते हो,
पर हर चिंता को चतुराई से मुट्ठी में कर लेते हो ,
सरस्वती की पाजेब हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

अपनी डायरी को देखकर तुम्हें, जो सुकून मिलता है,
साहित्य के सागर में गोता लगा, जो जूनून खिलता है,
मैं नशा हूँ, तुम्हारे हर सुख-दुःख का हमदम हूँ ,
लिखो, फिर लिखो, जितना लिखो उतना कम हूँ,
न सुधरॆ कभी,वो एब हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

हर अक्षर ब्रह्म है और मैं ब्रह्मों का सम्मिश्रण हूँ,
जो भी कहती, मुँह पर कहती, भावों का मैं चित्रण हूँ,
मैं सभ्यता की परिभाषा,भाषाओं की आँख का पानी हूँ,
मैं हीं हूँ अंधे सूर की लाठी, मैं कबीरा की अमृतवाणी हूँ।
सत्य से लबरेज हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

मुझमें कविता की है प्रकृति या यह प्रकृति ही कविता है,
कभी विचार उत्तुंग शिखर-से कभी कलकल बहती सरिता है,
संस्कृतियों का मापदंड है, ज्ञान का दीप जलाती है ,
बाद सबके मरने के बस कविता हीं अमर रह जाती है।
आखिर शाश्वत परवेज हूँ मैं ।
कविता हूँ मैं , फरेब हूँ मैं।

संतामणि झा