माब लिंचिंग आफ लॉ!, भीड़ से कानून की हत्या कराती सियासत…

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बाखबर
राघवेंद्र सिंह

देश एक बार फिर गहरे संकट की तरफ है। कबीरदास जी कह गए है- सुखिया सब संसार, है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह द्वारा मंडल आयोग लागू करने के बाद जो जातिवाद के बादल छाये थे वे एससी/एसटी एक्ट के कारण फिर घनघोर घटाएं बन रहे हैैं। भीड़ को दिशा देने वाली पार्टियां और उनके नाकाबिल नेता अब भीड़ का मूड देखकर काम कर रहे हैैं। शाहबानो प्रकरण से लेकर अब तक दो तीन घटनाओं ने कानून, संविधान को हिला कर रख दिया है और इसमें इस्तेमाल हुए हैैं हमारे कमजोर दल और उनके लुंजपुंज नेता।
The law of killing the law by the crowd, laughing off law …
आंदोलन से पैदा हुई कांर्ग्रेस में महात्मा गांधी जैसे लीडर हुआ करते थे जिन्होंने अहिंसा का नारा दिया और अंग्रेर्जों की गोलियों के सामने निहत्थे लोगों ने अपनी जान दी मगर हिंसा नहीं की। यह है लीडरशिप के सर्वमान्य होने का अप्रतिम उदाहरण। दूसरा उदाहरण अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा पोखरण परमाणु विस्फोट के बाद दुनिया के आर्थिक प्रतिबंध में पूरा देश उनके साथ खड़ा रहा और वाजपेयी ने भी देश में महंगाई को काबू में रखा और विकास की रफ्तार रुकने नहीं दी।

तीसरा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी, जीएसटी लागू करने पर देश का उनके साथ खड़ा रहना। पहले मामले में गांधी जी के पीछे चलकर देश को आजादी मिली। अटल जी के पीछे चलकर देश को प्रतिबंधों के बाद भी तरक्की मिली और दुनिया में सम्मान। ये दोनों नेता और एस्ट्रोसिटी एक्ट के पहले तक पूरा देश नरेंद्र मोदी के पीछे एकजुटता से खड़ा हुआ दिखा। कांर्ग्रेस ने भी आंदोलन नहीं किया और भाजपा ने भी इसे राष्ट्रवाद से जोड़े रखा। मगर एस्ट्रोसिटी एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक वर्ग विशेष के सड़क पर आने के बाद कानून की माब लिंचिंग करने जैसा साबित हुआ। यहीं से कहानी शुरू होती है भीड़ तले घुटती सियासत, दबती सरकारोंऔर उससे कुचलते कानून की।

सत्ता पर काबिज दल और मुख्य विपक्षी दल वोट के चक्कर में कानून के बजाए भीड़ का मूड देखते हैैं। देश के दुर्दिन इन मूर्छित दलों और नेताओं के कारण शुरू हो जाते हैैं। एक जमाना था जब बिहार और उत्तर प्रदेश जाति और वर्ण की राजनीति के कारण बदनाम थे। इन दोनों राज्यों के मतदाताओं ने पिछले दो आम चुनाव के नतीजों से साबित किया है कि वोटर जातिवाद के पक्ष में नहीं है। भले ही राजनेता और पार्टियां हों। उत्तरप्रदेश में यादव बहुल पार्टी सपा को और फिर दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत दिया।

ऐसे ही बिहार में नीतिश कुमार दो बार से मुख्यमंत्री हैैं। लेकिन घटिया नेता और कमजोर दलों के कारण देश फिर एस्ट्रोसिटी एक्ट की आंच के चक्कर में अगड़े-पिछड़े में बंट रहा है। 21वीं सदी में जब उच्च शिक्षा, टेक्नोक्रेटों की भरमार के कारण भारत ज्ञान और तकनीक में अपने युवाओं के साथ सबसे आगे जा रहा है तब सियासी दल उसे जातपात में फंसाने की कोशिश कर रहे हैैं।

65 फीसदी आबादी युवाओं की है और उन्हें जातपात से कोई मतलब नहीं है। उन्हें अच्छी शिक्षा और नौकरी चाहिए। देश में अब दो ही जात बिरादरी हैैं। एक अमीर-गरीब और पढ़े और कम पढ़े की। मगर पिछड़ों की राजनीति करने वालों के आतंक में सहमी राष्ट्रवादी भाजपा और समतावादी कांर्ग्रेस अपने हाथ कानून की हत्या के से रंग रही है।

1920 में अंग्रेर्जों ने कमजोर वर्ग के लिए जो कानून बनाया था बाद में उसे 1989 में और नया रूप दिया गया। 98 साल बाद भी अगर कानून से कोई फर्क नहीं आया है तो फिर नये कानून के बारे में सोचा जाना चाहिए। मगर वोटों की राजनीति में डूबे दल बदलाव की रौशनी को देखने को राजी नहीं। समाज बंट जाए, दिलों में दरार पड़ जाएं, खून खराबा हो, संपत्तियों का नुकसान हो इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं है। ऐसा करने वाले दल असल में आग से खेलने का काम कर रहे हैैं।

यह तो भला हो भारतवंशियों का जिन्होंने इस आग को भड़कने नहीं दिया। इतनी समझ तो आजादी के बाद देश के सभी वर्गों में आ गई है। इसका उदाहरण बिहार और उत्तरप्रदेश के चुनाव नतीजों से साबित हुआ है। बिहार में जाति नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का राग अलापने वाली भाजपा को लोकसभा में और उत्तरप्रदेश विधानसभा में अकल्पनीय बहुमत के साथ सरकार बनाने दी लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक दल जनता की इस भावना को अनसुना कर सदियों पुराना जाति और वर्णवाद का कर्कश राग अलाप रहे हैैं।

देश में ऐसा हो रहा है जैसे को बच्चा मां बाप से कहे कि उसे स्कूल नहीं जाना है, टॉफी, पिज्जा, बर्गर खाना है, फिल्में देखना है और थोड़ा बड़ा होने पर वह नशाखोरी के अधिकार भी मांगे साथ ही कहे कि बिना पढ़े ही पास होना है और यह सब उसके लिए कर दिया जाए तो कैसा हो? बच्चे को तो नहीं पता कि उसके मांग से क्या बिगड़ने वाला है मां-बाप को तो पता है। लेकिन नौकरियों के बोझ में फंसे माता-पिता यह सब कर जाते हैैं। इसी तरह वोट पाने के बोझ तले दबे राजनीतिक दल और उनके नेता जाति वर्ग के मतदाताओं को सब भी बिना मांगे उनका सगा बनने के लिए देते हैैं।

सिर्फ वोट की खातिर। अलग बात है कि वे बच्चे और वर्ग जातियां फिर सस्ते अनाज से लेकर आरक्षण, पदोन्नति में आरक्षण के चलते देश की ताकत नहीं बल्कि बोझ साबित हो जाते हैैं। कितने लोग हैैं जो डॉक्टरों से इलाज कराते हों, इंजीनियरों से मकान, पुल और सड़क बनवाते हों और अधिकारियों को गुडगवर्नेंस का अगुआ मानते हैैं। इस व्यवस्था के चलते जहां एक वर्ग को मजबूत करने की बात होती है वहीं दूसरी तरफ योग्य और प्रतिभावान युवा नौकरियों से बाहर हो जाते हैैं। एक को न्याय देने के लिये दूसरे के साथ अन्याय, यह न तो पीड़ित के लिए उचित है और न ही आरक्षित वर्ग के लिए कल्याणकारी है।

उन्हें नौकरी तो मिल जाती मगर सब कुछ पाने के बाद भी दिलों में मान-सम्मान नहीं मिल पाता। वह अपने ही वर्ग के डॉक्टर से इलाज शायद ही कराते हों। (थोड़ा कड़वा लग सकता है लेकिन कमजोर वर्ग के प्रति पूरी सदभावना के साथ)भाजपा को राष्ट्रवाद और समरसता की तरफ लौटना होगा जिसके चलते उसे सत्ता हासिल हुई। इसी तरह कांर्ग्रेस को भी आंदोलन की राह पकड होगी जिसकी ताकत से उसने देश को आजादी दिलाई थी। देश के लिए खून बहाने वाली पार्टी को कम से कम पसीना तो बहाना पड़ेगा। इस पूरे मामले में हमारी भूमिका को कुमार विश्वास की दो पक्तियां स्पष्ट करती हैैं- हवा का काम है चलना, दीये का काम है जलना।
वो अपना काम करती मैैं अपना काम करता हूं …।

टॉफी जैसी है आरक्षण की लत…
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन कहती हैैं कि किसी बच्चे को अगर टॉफी देते हैैं और बाद उसे बंद करें तो वह रोएगा भी और गुस्सा भी करेगा। हमारा यहां कहना है अगर टॉफी से बच्चे के दांत सड़ते हैैं, उसको बीमारी होती है और दिमाग के साथ उसकी हड्डियां भी कमजोर होती हैैं तो फिर उसके माता-पिता किसी भी तरह हो टॉफी की लत को छुड़वाते ही हैैं। अगर राजनीतिक दल कमजोर वर्ग के शुभचिंतक हैैं तो उन्हें वोट की तरह नहीं बल्कि अपने सगे बच्चों की तरह देखना होगा।

(लेखक आईएनडी24 समूह के मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के प्रबंध संपादक हैैं)