मप्र : नेताओं के ताने-बाने में उलझी कांग्रेस की बुनावट, कार्यकर्ता पार्टी नहीं, नेताओं के झंडाबरदार

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पंकज शुक्ला

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की राजनीति की एक स्टाइल है जिसे कांग्रेस संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यह पार्टी खेमों से ताकतवर होती है तथा नेताओं का संघर्ष कार्यकतार्ओं का भाग्य बन जाता है। यहां पार्टी के लिए समर्पित कार्यकतार्ओं को कोई ठौर नहीं मिलता और बरगद हुए क्षत्रपों की छत्र छाया में नेताओं की पौध तैयार होती है।
MP: The texture of the Congress engaging in the fabrication of leaders, not a worker party, leaders of the leaders
यानि बड़े-बड़े क्षेत्रीय नेता भी गमले में उगे बोनसाई की तरह ही हैं, जिन्हें खाद पानी वट वृक्ष कहे जाने वाले नेताओं से मिलता है। यह सारी बातें इसलिए कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी 17 सितंबर यानी आज भोपाल आ रहे हैं और वे विधानसभा चुनाव की दृष्टि से लंबा रोड शो व कार्यकर्ता संवाद कर चुनाव प्रचार अभियान को औपचारिक शुरूआत देंगे।

25 अप्रैल 2013 को अपनी तीसरी मप्र यात्रा में राहुल ने कांग्रेस को बड़े नेताओं के कब्जे से बाहर निकालने की बात करते हुए कहा था-जैसा कि मुझे लगता है, कांग्रेस न तो राहुल गांधी की है और न ही आप लोगों की है। यह पूरे हिन्दुस्तान की पार्टी है, जो आजादी के संघर्ष से तपकर बनी है।

आज जब वे आएंगे तो पाएंगे कि कांग्रेस के कार्यकतार्ओं के सामने आज भी खेमों तथा क्षत्रपों का वैसा ही संकट बना हुआ है। आज जब माना जा रहा है कि सत्ता का पंछी कांग्रेस के जाल में आने को तैयार है तब कांग्रेस नेता इस जाल की बुनावट ही नहीं कर पा रहे हैं। सारे सिरे उलझे हुए महसूस होते हैं और कार्यकर्ता असमंजस में है कि वह किसके साथ जाए और किसके लिए नारा लगाए।

राहुल गांधी दस साल पहले 28 अप्रैल 2008 को मप्र आए थे। इस यात्रा के दौरान वे इटारसी के आबादीपुरा में प्रमिला कुमरे के घर पहुंचे थे और मैदानी तथ्यों से अवगत होने ग्रामीणों से चर्चा की थी। 25 अप्रैल 2013 को राहुल प्रदेश कांग्रेस की दो दिन की कार्यशाला में शामिल होने पहुंचे। राहुल ने बड़े नेताओं के कब्जे से कांग्रेस को बाहर निकालने की बात करते हुए वरिष्ठ नेताओं को खरी-खरी सुनाई तो कार्यकतार्ओं के मन की बात को अपनी आवाज दी। तब कार्यकर्ताओं को लगा कि वे कठपुतली नेता नहीं, अपनी स्वतंत्र राय रखने वाले कांग्रेस के कर्ताधर्ता से मुखातिब हैं।

राहुल गांधी अब अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकतार्ओं से रूबरू होंगे तो उनके लिए यह जान लेना बेहतर होगा कि बीते दस सालों में कांग्रेस की दशा में अधिक बदलाव नहीं हुआ है। कार्यकतार्ओं को ताकत देने के लिए राहुल गांधी ने अपनी खास योजना आम आदमी का सिपाही लांच की थी और युवा कांग्रेस के चुनिंदा नेताओं को उसके संचालन की जिम्मेदारी सौंपी थी। यह योजना देश की तरह मध्यप्रदेश में भी फ्लाप हो गई। इस बार के टेलेंट सर्च में राहुल की कोर टीम ने मप्र में विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध ऐसे युवाओं को चुना जो कांग्रेस की आवाज बन सकें, लेकिन इन युवाओं के सामने भी किसी क्षेत्रप के खेमे में शामिल होने का अप्रत्यक्ष दबाव है।

असल में कार्यकर्ता यह मान चुके हैं कि कांग्रेस कार्यकतार्ओं की पार्टी नहीं बन पाएगी। कार्यकर्ता पहले इनके बाप दादाओं के झण्डे उठाते रहे, अब नेता पुत्रों के लिए नारे लगाएंगे। राहुल गांधी ने ही भोपाल यात्रा में कहा था कि कार्यकतार्ओं को अपना हक लेने के लिए संघर्ष करना होगा, बिना इसके कोई भी उन्हें यह हक देने वाला नहीं है। लगता है, उनकी बात सच हो रही है, यहां कार्यकतार्ओं को उनका हक देने वाला कोई नहीं है। इन दिनों कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस को ताकत देने के लिए मैदान में हैं। मगर सारे सिरे इतने उलझे हुए हैं कि कांग्रेस का एक तानाबाना उभर कर सामने नहीं आ रहा।

दिग्विजय सिंह समन्वय की कोशिश कर रहे हैं और इन प्रयासों के कारण ही वे भाजपा के सर्वाधिक निशाने पर हैं। कमलनाथ ने मैदान में पकड़ बढ़ाने के जतन किए हैं और भाजपा ने उन्हें घेरना आरंभ कर दिया है। यानि, कांग्रेस को जब सबसे अधिक एकजुटता की आवश्यकता है, तब ही एकता का संदेश मैदान तक नहीं पहुंच रहा। 15 सालों से सत्ता में बाहर कांग्रेस को यदि वापसी करना है तो इन्हीं बिखरे सिरों को समेटने का जतन करना चाहिए।
जैसे, कैफ भोपाली ने लिखा है-कबीले वालों के दिल जोड़िये मेरे सरदार/सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है