पंकज शुक्ला
मप्र में अगले कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होना है। भाजपा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संगठन के सहारे मैदान में है। भाजपा की ताकत दो गुजरातियों का कौशल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीतिक चातुर्य का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने भी दो गुजरातियों पर भरोसा जताया है। महासचिव दीपक बावरिया को प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है तो बीते हफ्ते राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी मधुसूदन मिस्त्री को स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है। पहले से ही आधा दर्जन कद्दावर नेताओं से सजी मप्र कांग्रेस को मिस्त्री के रूप में अपने मिजाज का अनूठा एक और नेता मिलना भानुमति के कुनबे से कम नहीं है।
A bavaria, a mechanic: loose bones of Bawri Congress
ऐसा क्यों कहा जा रहा है, इसे समझ लेना जरूरी है। 2014 के लोकसभा के चुनाव में गुजरात की वड़ोदरा सीट से मधुसूदन मिस्त्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से रिकार्ड मतों से चुनाव हार गए थे। हारना बड़ा दोष नहीं है मगर मिस्त्री नरेंद्र मोदी की जमकर आलोचना करते रहते हैं। उनकी कार्यशैली और जल्द उखड़ जाने वाले स्वभाव पर पार्टी में ही कई मतभेद है मगर विरोधी खुल कर सामने नहीं आ पाते क्योंकि वे राहुल गांधी के करीबी हैं। वे 2013 में भी स्क्रीनिंग कमेटी के चेयरमैन बनाए गए थे। उस समय भी उनके कई नेताओं से मतभेद हुए थे। प्रत्याशी चयन पर तब अधिक सवाल उठे जब कांग्रेस 2008 से भी कम सीटों पर जीती। उनके व्यवहार को लेकर उपजे आक्रोश के दोहराव की आशंका है।
प्रदेश प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया भी राहुल गांधी के ही करीबी हैं। उन्हें मोहन प्रकाश को हटा कर मप्र भेजा गया था ताकि वे ‘कबीलों’ में बंटी कांग्रेस को एक कर सकें। बावरिया ने पत्रकारों से पहली ही मुलाकात में कह दिया था कि वे ऑफ द रिकार्ड बात करना पसंद करते हैं। एनजीओ संस्कृति से पार्टी संचालित करने वाले बावरिया ने जब भी कुछ कहा विवाद को ही जन्म दिया है। उनके कई फैसलों पर अन्य नेताओं ने सवाल खड़े किए। बाद में ये फैसले बदलने भी पड़े। जैसे उम्मीदवार के साठ साल से कम होने का पैमाना हो, टिकट के दावेदार से 50 हजार रुपए जमा करवाना हो या संगठन के पदाधिकारियों को चुनाव लड़ने से मनाही हो। बीते हफ्ते बावरिया ने कांग्रेस अनुसूचित जाति सम्मेलन में कह दिया कि कार्यकारी अध्यक्ष सुरेन्द्र चौधरी मप्र के उप मुख्यमंत्री होंगे।
बावरिया को मप्र में समन्वय करने भेजा था। वे यहां आ कर उप मुख्यमंत्री तय करने लगे। जबकि मुख्यमंत्री के चेहरे पर सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया की राय के विपरीत बावरिया का हमेशा मत रहा है कि पार्टी को चेहरा घोषित नहीं करना चाहिए। जब मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं करना चाहिए तो वे उपमुख्यमंत्री की घोषणा क्यों कर रहे हैं? जिन्हें बिगड़ी सूरत को संवारने भेजा गया वे ही धागों को उलझा रहे हैं। मिस्त्री की कार्यप्रणाली को देख कर भी यही भय लगता है कि वे एक दिख रही कांग्रेस में नई रेखाएं खिंचने का काम न करने लगें।
रथ में घोड़े कई हो सकते हैं मगर सारथी एक होता है तभी वह सही दिशा में जा सकता है। मप्र कांग्रेस में नित नए सारथी जोड़े जा रहे हैं। तय नहीं है कि कौन किस दिशा में ऐड़ लगाएगा और कब लगाम खिंचेगा? यह समझ से परे है कि लंबे विमर्श और विचार के बाद जब कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को प्रदेश की कमान दे दी गई और दिग्विजय सिंह, सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, विवेक तन्खा जैसे नेता मिल कर काम करने लगे हैं तो फिर अन्य वरिष्ठ नेताओं की भीड़ क्यों बढ़ाई जा रही है? समन्वय वहां किया जाता है जहां कुछ असहजता हो। कांग्रेस में तो नेता ही असहजता पैदा करने में जुटे हैं तो समन्वय होगा कहां? स्थानीय नेताओं के अलावा जोन स्तर तक राष्ट्रीय कांग्रेस ने समन्वयक भेज रखे हैं। सभी के सुर अलग-अलग। नेताओं का यह ‘आर्केस्ट्रा’ सुरीली लय पैदा नहीं कर रहा बल्कि कर्कशता बढ़ा रहा है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ बार-बार कह रहे हैं कि उनके सामने बड़ी चुनौती तैयारी के लिए कम समय मिलने की है। मुश्किल यह है कि पार्टी उनकी चुनौतियां घटाने की जगह बढ़ा ही रही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है