और अब तलवार जी भी चल दिए……

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RAJESH BADAL

अजीब सा भयावह दौर है। अब हमारी पीढ़ी का नंबर लग गया। हम लोग इतने बूढ़े हो गए या फिर नियति हमारे प्रति ज़्यादा ही क्रूर हो गई। क़रीब तीन दशकों के साथी और दोस्त भाई ईश मधु तलवार भी अपनी अनंत यात्रा पर रात को चले गए। दो दिन पहले ही बात हुई थी। नई किताब के बारे में देर तक बतियाते रहे।मैंने हँसते हुए कहा था,आपकी रिनालाखुर्द ने बहुत रुलाया था। इस किताब में खिलखिलाने का अवसर देना।इस बात पर ठहाका लगाकर हँस दिए थे। क्या जानता था कि हँसते हँसते वे फिर एक बार रुलाने का इंतज़ाम कर चुके हैं।
कैसे हमारे संपर्क के इकतीस बरस बीते ,पता ही नहीं चला। हम सब उत्साह से भरे 1985 के अगस्त महीने में राजेंद्र माथुर के निर्देश पर नवभारत टाइम्स का जयपुर संस्करण शुरू करने के लिए एकत्रित हुए थे। मैं वरिष्ठ उप संपादक था और वे हमारे मुख्य संवाददाता। आम तौर पर हर अख़बार में डेस्क और रिपोर्टिंग टीम में तलवारें तनी रहती थीं ,लेकिन तलवार जी के साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। हमारे सारे उप संपादक तलवार जी की कॉपी संपादित करने के लिए लालायित रहते थे। क्या मोतियों जैसे शब्द ख़बरों के बीच चुनते थे और क्या ही शानदार हैंडराइटिंग थी। संपादन के लिए अपना लाल स्याही का निब वाला पेन चलाता तो लगता कि तलवार जी की कॉपी गंदी कर दी। यहाँ तक कि शीर्षक तक लिखने की इच्छा नहीं होती थी। कभी कुछ गड़बड़ भी हो जाए तो संवाद मुस्कुराते हुए ही होता था। कभी ग़ुस्सा ,तनाव या चीखना चिल्लाना होता ही नहीं था। कभी कभी उनके किसी रिपोर्टर की कॉपी ऐसी होती कि उसे दोबारा लिखने की ज़रूरत होती तो डेस्क के लोग बचने की कोशिश करते। फिर आख़िर तलवारजी पर ही बात पहुँचती। चाहे रात के कितने ही बज जाएँ ,वे अपनी टेबल से तभी उठते ,जब वे दोबारा लिख कर हमें दे देते। जब घर जाते तो टेबल एकदम साफ़ रहती थी। एक एक विज्ञप्ति पर उनकी नज़र रहती और उसमें से ख़बर निकालने की अद्भुत कला उन्हें आती थी। जयपुर छोड़ने के बाद चाहे भोपाल रहा ,दिल्ली रहा या कुछ समय के लिए अमेरिका रहा ,उनसे संपर्क वैसा ही गर्मजोशी भरा था।
दो तीन बरस पहले मित्र हरीश पाठक का आंचलिक पत्रकारिता पर एक विस्तृत शोध प्रबंध आया था। इस यज्ञ में तलवार जी और मैंने भी अपनी आहुतियाँ डाली थीं। चूँकि यह ग्रन्थ राजेंद्र माथुर फ़ेलोशिप के तहत लिखा गया था ,इसलिए हम सब जयपुर में एक कार्यक्रम करना चाहते थे। तलवार जी ने इसकी ज़िम्मेदारी ली और तय किया कि उनके जन्मदिन 7 अगस्त पर कार्यक्रम करेंगे और इसमें राजेंद्र माथुर पर केंद्रित मेरी फ़िल्म भी दिखाएँगे। कार्यक्रम हुआ और बेहद गरिमामय रहा।रात हमने दावत के दरम्यान संगीतकार दान सिंह के सुरों से सजा गीत – वो तेरे प्यार का ग़म… सुना। कुछ हम लोगों ने भी सुनाया। लेकिन उस शाम तलवार जी महफ़िल की शान थे। संगीतकार दान सिंह तो ग़ुमनामी में खो ही गए थे ,लेकिन तलवार जी ने उन्हें पुनःप्रतिष्ठा दिलाई। उनका रिनाला खुर्द उपन्यास जिसने भी पढ़ा ,उसके आँसू निश्चित ही बहे। चाई जी हमेशा तलवार जी के दिल में धड़कती रहीं।
जयपुर के साहित्य उत्सव को उन्होंने इतना ऊँचा शिखर प्रदान किया कि अन्य सारे उत्सव बौने हो गए। तलवार जी के नाम पर कोई आने से न नहीं कर सकता था। पिछले बरस कोरोना के कारण यह उत्सव ऑन लाइन हुआ लेकिन इसने अपनी अलग छाप छोड़ी।तलवार जी ! आपके जाने से हम लोग विकलांगों की श्रेणी में आ गए हैं। क्यू में तो लगे थे ,मगर नंबर इतनी तेज़ी के साथ आगे आ रहा है – इसका अहसास नहीं था।राजकुमार केसवानी ,कमल दीक्षित,शिव पटेरिया ,जीवन साहू ,महेंद्र गगन और भी अनेक मित्र बीते दिनों साथ छोड़ गए। वाकई कुछ ख़ालीपन सा आता जा रहा है – अब नज़ा का आलम है मुझ पर ,तुम अपनी मोहब्बत वापस लो / जब कश्ती डूबने लगती है ,तो बोझ उतारा करते हैं /
जाते जाते एक बार गले मिल लेते तो तसल्ली हो जाती। आपने तो चुपचाप अपने अध्ययन कक्ष में बैठे बैठे विदाई ले ली। सब कुछ आपने ठीक किया ,पर यह ठीक नहीं किया। अलविदा दोस्त !